साम्राज्यों के गढ़, न सिर्फ विशाल इलाकों वाले, बल्कि जादुई कलाकारी के अकूत स्रोत वाले भी, कैसे ढह जाते हैं? आखिर कैसे प्रेरणा और रुतबे की समृद्ध धारा सूखने लगती है? हैदराबाद को कभी भारतीय फुटबॉल के पाॅवरहाउस के रूप में स्थापित करने वाली वह सुंदर नर्सरी अब बियाबान हो गई है, जिसकी समृद्ध परंपरा का एक वक्त डंका बजता था और आज भी उसे गर्व से याद किया जाता है। जरा याद कीजिए: आंध्र (1958 तक हैदराबाद) ने बंगाल को 1-0 से हराकर 1976 में जब अंडर-19 की डॉ.बी.सी. रॉय ट्रॉफी जीती, जो उसका आखिरी राष्ट्रीय खिताब था, तब बाईचुंग भुटिया का जन्म हुआ था। उसने संतोष ट्रॉफी तीन बार जीती और दो बार तो लगातार जीत दर्ज की। हैदराबाद सिटी पुलिस एक ऐसी टीम बनी, जिसने रिकॉर्ड पांच बार रोवर्स कप और दो लगातार ओलंपिक जीता तथा राष्ट्रीय टीमों के लिए दर्जन से अधिक शीर्ष खिलाड़ी भी दिए। 1950 के दशक में हमारे फुटबॉल का स्वर्णिम युग हैदराबाद की ही देन था। हैदराबाद के उल्लेखनीय उत्थान और प्रभुत्व की तरह इसका अचानक पतन भारत में फुटबॉल की तरक्की के लिए एक बड़ा झटका था। फिर भी, 1950 और 1963 के बीच जब हैदराबाद सिटी पुलिस (बाद में आंध्र पुलिस) ने रोवर्स कप नौ बार जीता और चार डूरंड खिताब अपने नाम किए, उस वक्त भारत के शीर्ष खिलाड़ियों में अधिकांश दक्कन पठार के ही थे।
तुलसीदास बलराम, कन्नन, सलाम, सैयद नईमुद्दीन, मोहम्मद हबीब और उनके छोटे भाई मोहम्मद अकबर, शब्बीर अली जैसे अन्य हैदराबादी खिलाड़ियों ने अपने रुतबे तथा कौशल से कलकत्ता मैदान में आग लगा रखी थी।
अब, 25 अक्टूबर को कोलकाता में एटीके के खिलाफ इंडियन सुपर लीग का अपना पहला मैच खेलकर अपने गौरवशाली अतीत के दशकों बाद निजाम के इस गढ़ ने फुटबॉल जगत में एक 'कमर्शल' वापसी की। फिर भी यह एक नकली 'वापसी' थी। आइएसएल अक्टूबर 2014 में अस्तित्व में आया और इसका प्रबंधन अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ के कमर्शल भागीदार रिलायंस द्वारा किया जाता है। वित्तीय संकट के कारण पुणे एफसी के भंग होने के बाद हैदराबाद एफसी में शामिल किया गया। आइएसएल को अब भारत के प्रमुख लीग का दर्जा हासिल है और यह एक उच्च-बजट वाला लीग बन चुका है, जिसने पुणे और दिल्ली डायनामोज जैसी टीमों को आर्थिक रूप से पंगु बना दिया है। बिना किसी 'स्थानीय' फुटबॉलर के ही हैदराबाद एफसी को अपने आप को बनाए रखना है और जब वह गचीबोवली स्टेडियम में अपना मैच खेलेगी, तो उसे घरेलू समर्थन भी हासिल करना है।
1960 के रोम ओलंपिक टीम के सदस्य और स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक सैयद हकीम को नहीं लगता है कि आइएसएल से हैदराबाद को कोई फायदा होने वाला है। वे कहते हैं, “वह मर चुका है, हैदराबाद फुटबॉल पूरी तरह खत्म हो चुका है।” हकीम आगे कहते हैं कि कई ओलंपिक और एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले नूर, बलराम, हबीब, अजीजुद्दीन या मोईनुद्दीन जैसे खिलाड़ी नई पीढ़ी के युवाओं को याद नहीं हैं। हकीम कहते हैं, "हैदराबादियों को केवल क्रिकेट, टेनिस या बैडमिंटन के सितारे याद हैं।" शब्बीर अली 1972-84 के दौरान भारत के लिए 72 मैचों में रिकॉर्ड 23 गोल दाग चुके हैं। हबीब की तरह शब्बीर भी हैदराबाद में रहते हैं। जब अंग्रेजों ने 18वीं शताब्दी के अंत में इस खेल की शुरुआत की, तो फुटबॉल ने छावनी क्षेत्र सिकंदराबाद में मजबूत पकड़ बना ली। रिसाला बाजार, ट्रिमुलगरी, गन रॉक और अम्मुगुडा के युवाओं ने शाइनिंग स्टार, क्लब ऑफ नवाब और जागीरदार, इलेवन हंटर्स और मैरा गो राउंड जैसे नामों वाली टीमों का गठन किया। जब ओल्ड सिटी क्षेत्र की टीमें इसमें शामिल हुईं, तो प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। अंतिम निजाम नवाब मीर उस्मान अली खान सहित समृद्ध थिएटर मालिकों और अमीर लोगों के पास क्लबों के संरक्षण का अधिकार था।
लेकिन जिन लोगों ने उन वर्षों में हैदराबाद के फुटबॉल वर्चस्व को बनाए रखा, उनमें एक नाम सैयद अब्दुल रहीम या रहीम साहब का था। रहीम साहब दूरदर्शी कोच, अनुशासनप्रिय, प्रतिभावान खिलाड़ियों के जौहरी और आधुनिक भारतीय फुटबॉल के वास्तुकारों में से एक थे। जब जिमखाना स्कूल, निजाम कॉलेज और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने गंभीर फुटबॉल खेलना शुरू किया, तो खेल को एक नया मुकाम मिल गया। 1939 में हैदराबाद फुटबॉल एसोसिएशन का जन्म हुआ। 1943 में रहीम सचिव बने। 1943 में रॉयल एयर फोर्स के खिलाफ हैदराबाद पुलिस की ऐश गोल्ड कप जीत एक महत्वपूर्ण मोड़ था। रहीम की बड़ी संख्या में प्रतिभावान खिलाड़ियों को निखारने की अद्भुत क्षमता ने हैदराबाद को वर्चस्वशाली बंगाल, बेंगलूरू और सर्विसेज जैसी टीमों के लिए एक सशक्त खतरा बना दिया। उन्होंने 1949 और 1950 में लगातार संतोष ट्रॉफी के फाइनल में जगह बनाई। दोनों बार वे कलकत्ता में बंगाल से हार गए। हैदराबाद ने दो बार लगातार 1956 और 1957 में संतोष ट्रॉफी जीती। उनकी तीसरी ट्रॉफी 1965 में आई।
सैयद नईमुद्दीन याद करते हैं, “उनकी (रहीम) कार्यशैली ने खिलाडि़यों को मजबूत और अनुशासित बनाया।” नईमुद्दीन ने 1970 के मर्देका कप और उसके अगले साल बैंकाक में हुए एशियाई खेलों में भारत की कप्तानी की थी और यह आखिरी बार था, जब भारत ने कांस्य पदक जीता था। रहीम ने क्लब या देश के खिलाड़ियों में जो गर्व की भावना भरी उसके बारे में बताते हुए नईमुद्दीन आगे कहते हैं, “खिलाड़ियों की मेहनत अविश्वसनीय थी और यह हमेशा खेल के प्रति प्यार के लिए था। यह कभी भी पैसे के लिए नहीं था।” बतौर कोच रहीम अपने समय से कहीं आगे की सोच रखते थे। यूरोपीय दिग्गजों विशेष रूप से पुस्कस के हंगरी का अध्ययन करने के बाद रहीम ने भारत में 4-2-4 प्रणाली की शुरुआत की, जबकि यूरोप और बाकी जगहों पर अधिकांश टीमों ने 2-3-2-3 शैली को अपनाया था। बाद में 1950 के दशक में 3-3-4 की शैली अपनाई। रहीम ने अपनी योजना के तहत फॉरवर्ड को हाफलाइन के पास वापस ले लिया, ताकि एक अतिरिक्त रक्षक (डिफेंडर) के जरिए मदद पहुंचाई जा सके। बाद में दुनिया भर के क्लबों ने इस शैली को अपनाया। रहीम का अंतरराष्ट्रीय रिकॉर्ड उनकी कल्पनाशील प्रतिभा का एक आंतरिक हिस्सा है। रहीम ने तीन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया औऱ उन्होंने देखा कि उनकी टीम हेलसिंकी में 1952 में यूगोस्लाविया से 1-10 से हारने के बाद बाहर हो गई। भारत ने अपनी अच्छी तैयारी के बाद 1956 में मेलबर्न में विरोधियों पर करारा हमला बोला। हालांकि, वह तीसरे स्थान के मैच में बुल्गारिया से हार गया। रहीम 1960 में भारत के आखिरी ओलंपिक में (उसके बाद भारत ने कभी भी क्वालीफाई नहीं किया) कोच रहे। इस ओलंपिक में भारत छठे स्थान पर रहा, जिसमें उसने फ्रांस के खिलाफ 1-1 से ड्रॉ भी खेला था। एशियाई खेलों में रहीम ने दिल्ली में 1951 में भारत के स्वर्णिम-जीत वाले प्रदर्शन की योजना बनाई। उनकी अंतिम उपलब्धि 4 सितंबर, 1962 को जकार्ता एशियाई खेलों के दौरान आई। ‘डेविड बनाम गोलियाथ’ की प्रतिस्पर्धा में भारत ने 1 लाख दर्शकों के सामने सेनायण स्टेडियम में दक्षिण कोरिया को 2-1 से हरा दिया। उस टीम में चार हैदराबादी खिलाड़ी -पीटर थंगराज, तुलसीदास बलराम, यूसुफ खान और अफजल थे। कहा जाता है कि रहीम की रणनीति ने कोरियाई रणनीति को तोड़ दिया और खिलाड़ियों को खुद पर भरोसा किया। यह रहीम की तरकश का आखिरी तीर था, क्योंकि नौ महीने बाद 11 जून 1963 को फेफड़े के कैंसर ने उन्हें इस खेल से दूर कर दिया। वह तब महज 53 वर्ष के थे। जकार्ता में उस यादगार रात में भी कोई भी खिलाड़ी उनकी बीमारी के बारे में नहीं जानता था।
अपने आखिरी दिनों में रहीम ने स्पष्ट रूप से ईरान, जापान और कोरिया जैसी टीमों के उदय की भविष्यवाणी की थी। तब ये टीमें वैश्विक पटल पर दस्तक देने के करीब थीं। उनके शब्दों में सच्चाई है- तीनों टीमें आज एशिया में सर्वश्रेष्ठ हैं, जबकि भारत फुटबॉल खेलने वाले फीफा के शीर्ष 100 देशों में भी नहीं है। हालांकि, रहीम के निधन से हैदराबाद फुटबॉल का एक प्रसिद्ध अध्याय समाप्त हो गया, लेकिन 1986 तक हैदराबाद के 21 खिलाड़ी एशियाई खेलों में भाग ले चुके थे। हालांकि, धीरे-धीरे इसमें गिरावट आनी शुरू हो गई थी। अनुभवी कमेंटेटर प्रदीप रॉय का कहना है कि हैदराबाद के नुकसान से बंगाल को फायदा हुआ। रॉय कहते हैं, “एक बार जब उन्होंने संतोष ट्रॉफी के फाइनल में प्रवेश किया और रोवर्स, डूरंड और डीसीएम में अच्छा प्रदर्शन करना शुरू कर दिया, तो कलकत्ता कल्ब ने उनके खिलाड़ियों की निगरानी शुरू कर दी। ईस्ट बंगाल, मोहन बगान और मोहम्मडन स्पोर्टिंग में बेहतरीन खिलाड़ी थे और हर कोई इन्हीं तीन बड़ी टीमों में खेलना चाहता था। उनकी शैली की सराहना की गई और स्टारडम की भी गारंटी थी।” हालांकि, पुलिस की नौकरी छोड़ना जोखिम भरा था, फिर भी 60 के दशक की शुरुआत में हैदराबाद के शीर्ष खिलाड़ियों के एक वर्ग ने ‘बिग थ्री’ यानी ईस्ट बंगाल, मोहन बगान और मोहम्मडन स्पोर्टिंग की ओर रुख किया। दो बार के ओलंपियन बलराम भारतीय फुटबॉल के महान खिलाड़ियों में एक हैं, लेकिन हबीब और अकबर दोनों भाइयों ने भी खुद का नाम ऊंचा किया। अपनी खास रेड लेदर जूतों से खेलने वाले नईम का स्टाइलिश बचाव, शब्बीर के कलाबाज हेडर और विक्टर अमलराज का कुशल मिडफील्ड पुराने प्रशंसकों की यादों के धरोहर हैं। मोहन बगान के लिए अकबर के 17वें सेकेंड में उस गोल को भला कोई कैसे भूल सकता है, जिसे उन्होंने 1976 में ईडेन गार्डेन में डर्बी लीग में ईस्ट बंगाल के खिलाफ बनाया था? रॉय याद करते हैं, “खेल शुरू होने के बाद प्रसून बनर्जी ने लेफ्ट विंग कॉर्नर में उलंगनाथन को तेजी से पास दिया, जिसे बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से ईस्ट बंगाल के रक्षा क्षेत्र से सुधीर कर्माकर ने अपने कब्जे में कर लिया। उलंगनाथन के क्रॉस पर अकबर का शानदार हेडर ही मैच का एकमात्र गोल था।” छोटे कद के हबीब एक मास्टर रणनीतिकार थे। उनकी अथक रचनात्मकता और दूरदर्शिता ने उनकी टीम को पूर्ण बना दिया। रॉय कहते हैं, “अकबर ने नाम कमाया, तो यह उसके बड़े भाई की बदौलत था।” हबीब का सबसे अच्छा प्रदर्शन 24 सितंबर, 1977 को ईडेन में पेले के न्यूयॉर्क कॉसमॉस के खिलाफ आया। हबीब ने 33वें मिनट में मोहन बगान के लिए 2-1 से बढ़त बनाई। कॉसमॉस को विवादास्पद गोल मिलने के बाद मैच 2-2 पर समाप्त हुआ।
अब 70 वर्ष के हो चुके और पार्किंसंस से पीड़ित हबीब शायद ही कभी मीडिया से बात करते हैं। लेकिन अकबर के साथ अपनी साझेदारी बड़े शौक से याद करते हैं। हबीब कहते हैं, “उसने मुझे खेल से प्यार करना सिखाया। हम वर्षों तक खेले और इससे समझ बनाने में मदद मिली। हम खिलाड़ियों को लंबे समय तक एक साथ खेलने की जरूरत है, ताकि एक संबंध विकसित हो सके। तभी गोल होंगे।” शीर्ष खिलाड़ियों के पलायन की वजह से हैदराबाद फुटबॉल प्रभावित हुआ, जिससे काफी बड़ी चुनौतियां सामने आईं। कन्नन, अहमद हुसैन, सलाम वगैरह के लिए स्टारडम बड़ी बात थी, न कि पैसा। 80 वर्ष से अधिक उम्र के हो चुके बलराम ने रेलवे के लिए काम किया और शब्बीर इलाहाबाद बैंक से सेवानिवृत्त हुए थे।
भारतीय फुटबॉल के गौरवपूर्ण वर्षों में हैदराबादियों की अहम भूमिका रही। हमारा फुटबॉल लंबे समय से विश्व स्तर की उपलब्धियों से वंचित है। आधुनिक समय के फुटबॉल प्रशासकों को इस बात से सबक लेना होगा कि इन महान दिग्गजों ने कैसे रजत पदक जीते।