उत्तर-पश्चिमी भारत के इलाके में 11वीं सदी की शुरुआत में तुर्की सल्तनत के साथ मुसलमानों की बसावट शुरू हुई। स्थानीय लोगों के धर्मांतरण के साथ उनकी आबादी बढ़ती गई। गुरु नानक (1469-1539) के समय तक मुसलमान पंजाब की सामाजिक व्यवस्था का अहम हिस्सा बन गए थे। उनमें मुख्य रूप से रूढ़िवादी सुन्नी थे, जिनका प्रतिनिधित्व उलेमा (मुल्ला और काजी) किया करते थे, जो शरीयत पर जोर देते थे। उनके अलावा सूफी संत भी थे जो इस्लाम की एक समांतर व्यवस्था और परंपराओें की बातें करते थे।
गुरु नानक सुल्तानपुर में अपने 10 साल के प्रवास और बाद में अपनी यात्राओं के दौरान इस्लाम के करीबी संपर्क में आए। उन्होंने 16वीं सदी की शुरुआत में इस्लाम को भारत की प्रमुख धार्मिक प्रणालियों से जोड़ा।
हाल में छपे श्री गुरु ग्रंथ साहिब: टीचिंग्स फॉर मुस्लिम्स में गुरु नानक के 30 से अधिक पद शामिल हैं। संपादक नानक सिंह निश्तर ने आमुख में लिखा है कि सिख गुरुओं ने इस्लामिक मान्यताओं और प्रथाओं का सम्मान किया और मुसलमानों को इसी के आधार पर नेक मुसलमान बनने की सीख दी। हिंदुओं से भी नेक हिंदू बनने को कहा। इससे दो बातें सामने आती हैंः अपने दौर की मुस्लिम मान्यताओं और प्रथाओं के बारे में गुरु नानक का ज्ञान और इस्लाम के बारे में उनका मूल्यांकन।
गुरु नानक सृष्टि की रचना से पहले ईश्वर के अस्तित्व की बात करते हैं। लाखों-लाख वर्ष पहले सिर्फ अंधेरा था; न धरती थी, न आसमान, सिर्फ असीम दिव्य हुकम था और रचयिता अटूट समाधि में लीन था; सिर्फ उस एक के अलावा कुछ नहीं था; कोई ब्रह्मा, विष्णु, महेश न था; कोई मुल्ला, काजी, शेख, हाजी न था; न वेद था, न कुरान। गौरतलब है कि इसमें अल्लाह का जिक्र नहीं है। एक दूसरे पद में गुरु नानक ने अल्लाह को अकाल पुरख बताया है।
दूसरे शब्दों में, इस्लाम का एकेश्वरवाद गुरु नानक की ईश्वर की अवधारणा के करीब था। ब्रह्मांड का सृजन करके ईश्वर ने अपनी कई विशेषताओं का खुलासा किया। मुसलामानों के परिचित संदर्भ में गुरु नानक कहते हैं: “बाबा! अल्लाह अगम्य है, वह असीम है; उसका निवास पवित्र है और उसके नाम पवित्र हैं; वह सच्चा रखवाला है। उसके हुकम को समझा नहीं जा सकता है; उसका वर्णन नहीं किया जा सकता; एक साथ सौ कवि भी उसके कण-मात्र का वर्णन नहीं कर सकते। सभी सुनते और बात करते हैं, लेकिन कोई भी उसकी अहमियत को बखान नहीं सकता। पीर, पैगंबर, सालिक, सादिक, फकीर और शाहिद हैं; शेख, काजी, मुल्ला और दरवेश हैं- सभी अपनी दुआओं (दुरुद) के जरिए उससे बरकत की फरियाद करते हैं। लेकिन जब अल्लाह कुछ करता है या अनकिया करता है, या जब वह कुछ देता है या ले लेता है, तो किसी से सलाह नहीं करता है। सिर्फ वही अपनी शक्ति (कुदरत) जानता है; वह अकेला करतार है। वह सभी को देखता है और जिस पर चाहता है उस पर अपनी कृपा बरसाता है।” एक अन्य पद में, मौला (मास्टर) शब्द का उपयोग अल्लाह के लिए किया गया है। मौला महान रचयिता है, जिसने ब्रह्मांड को सुंदर और हरा भरा बनाया है।
भगवान के प्रति पक्की निष्ठा से बढ़कर कुछ नहीं। सांसारिक उपलब्धियां खास मायने नहीं रखतीं। ईश्वर को भूलकर किले और फौज से लैस राजा का राज-पाट बेमानी है। गुरु नानक कहते हैं, “कोई खून का प्यासा राजा भी मेरी गरदन पर तलवार रख दे तब भी मैं ईश्वर उपासना नहीं छोड़ूंगा।” गुरु नानक के लिए तो भगवान का नाम ही राजा और फौज था। गुरु नानक इस्लाम को भी ब्राह्मणवादी और संन्यास की परंपराओं की श्रेणी में ही रखते हैं। वे कहते हैं कि काजी को कुदरत की रचना का वक्त पता नहीं, क्योंकि कुरान में नहीं लिखा है; ब्राह्मण को सृष्टि के समय का पता नहीं, क्योंकि यह शास्त्रों में नहीं लिखा जिसे वह बांचता है और जोगी को समय, तारीख, दिन, मौसम या महीने का ज्ञान नहीं। गुरु नानक मुल्ला, पंडित और जोगी को एक ही खांचे में रखकर कहते हैं कि उन सभी को दुनिया से कभी-न-कभी तो जाना ही होगा। जोगी और मुल्ला समान हैं, वेद और कुरान भी एक ही पलड़े के हैं। इसका मतलब यह है कि इस्लामी परंपरा को भी ब्राह्मणवादी और संन्यास परंपराओं की तरह गंभीरता से लिया गया। हालांकि, किसी को भी सराहा नहीं गया।
गुरु नानक मुल्ला और काजी से कहते हैं कि एक दिन उनका अंत आ जाएगा, इसलिए हर वक्त अल्लाह को जपें। उनका पांचों वक्त नमाज, कुरान का पाठ, पवित्र ग्रंथों का अध्ययन, रमजान के महीने में उपवास और मक्का में हज करने से उनकी उम्र नहीं बढ़ेगी। कब्र से किसी भी वक्त बुलावा आ सकता है। गुरु नानक मुसलमानों की कुछ प्रथाओं की आलोचना भी करते हैं। एक तो दफनाने के रिवाज पर ही है: “दफनाने के बाद मुसलमान की मिट्टी भी गूंथकर बर्तन और ईंट बनाई जा सकती है, उसे आग में पकाया जाएगा और चिंगारी गिरेगी तो बेचारी धरती कराहेगी।”
गुरु नानक कहते हैं कि ब्रह्मांड का रचयिता ईश्वर ही जानता है कि मरने के बाद इंसान का क्या होगा। इस पद में गुरु नानक शायद इस ओर इशारा करते हैं कि सच्चे धार्मिक जीवन के लिए दफनाने या दाह संस्कार के कोई मायने नहीं हैं।
गुरु नानक का नैतिकता पर बहुत जोर है। मुक्ति के लिए नैतिक जीवन की अनिवार्यता पर उनके कई पद हैं। कुछ तो सीधे मुसलमानों से मुखातिब हैं: “अगर खून से सना कपड़ा नापाक है, तो आदमी के खून के प्यासे का दिमाग कैसे पाक हो सकता है?”
“मुसलमान को अपनी मस्जिद को करुणा, नेकनीयत वाली नमाज-चटाई, कुरान को ईमानदारी से अर्जित करना, खतना को नम्रता से लेना और शराफत से व्रत का पालन करना चाहिए। सच्चे मुसलमान को अपने अच्छे कर्मों को काबा बनाना चाहिए, सच्चाई उसका मार्गदर्शक बने, अच्छे कार्य कलमा और नमाज बनें, खुदा इसी मनके से खुश होता है।”
गुरु नानक मुल्ला और काजी की जगह इस्लाम की सूफी परंपरा को महत्व देते हैं: “मुसलमान शरीयत को तवज्जो देते हैं; वे उसे पढ़ते और फख्र करते हैं, लेकिन सिर्फ वही सच्चे ईमान वाले हैं जो उसका अक्स देखने को शरणागत हो जाते हैं।”
अल्लाह को आमने-सामने देखना या उसका एहसास करना सूफी विचार है। वास्तव में, मुल्लाओं की नजर में अल्लाह और आदमी के बीच मूल संबंध मालिक और सेवक का है, जबकि सूफियों के लिए यह एक प्यार का संबंध है।
गुरु नानक सूफियों की शब्दावली में मुल्लाओं के साथ बहस करते हैं और ऐसा करने में वे सूफियों को सच्चे मुसलमानों के रूप में दिखाते हैं: “मुसलमान बनना मुश्किल है। औलिया (अल्लाह के दोस्त-सूफी) के मजहब को अपनाना चाहिए और बलिदान ऐसा औजार बनाना चाहिए जो दिल की जंग दूर करे। वे तभी मुसलमान बनेंगे, जब वे अपना भरोसा जताएंगे और जीवन और मृत्यु के सभी विचारों को खारिज कर देंगे, अल्लाह के फरमान को अधिक स्वेच्छा से कबूल करेंगे और उसे सच्चे सृजनकर्ता के रूप में विश्वास करेंगे और खुद को पवित्र करेंगे। इसके बाद ही वे अल्लाह की कृपा प्राप्त कर सकते हैं और तभी वे असली मुसलमान बनेंगे।”
हालांकि, सूफी मार्ग के लिए इस सापेक्षिक प्रशंसा की वजह से हमें यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि गुरु नानक बिना किसी योग्यता के सूफियों को मान्यता देते हैं।
वे काजी और सूफी शेख को बराबर मानते हैं, जो आत्म-केंद्रित से होते हैं। सच्चा दरवेश अपने सृजनकर्ता से मिलने के लिए सबकुछ छोड़ देता है। लेकिन कई शेख राज्य से प्राप्त राजस्व-मुक्त भूमि पर निर्वाह करते हैं और अपने शिष्यों के बीच ‘टोपियां’ वितरित करते हैं, जो उन्हें दूसरों का मार्गदर्शन करने के लिए अधिकृत करते हैं। इसी तरह, शेख पर्याप्त रूप से अल्लाह के साथ खुद की सम्मानजनक स्थिति को लेकर निश्चिंत थे और उन्होंने दूसरों को भी आश्वासन दिया। काजियों के अपने दफ्तर थे और शेखों के पास अपने प्रतिष्ठान (खानकाह) थे।
वे साधनों को अंत मानने का प्रयास करते हैं, यह भूल
जाते हैं कि सिर्फ ईश्वर ही चिरस्थायी है। गुरु नानक ने दोनों को यह याद करने की सलाह दी: “अल्लाह अवर्णनीय है; वह गूढ़ है; वह सर्व-शक्तिशाली सृजक, दयालु है। पूरी दुनिया क्षणभंगुर है और दयालु ही स्थायी है। सिर्फ वही शाश्वत है, क्योंकि वह किसी नियति के अधीन नहीं है। धरती और आसमान नष्ट हो जाएंगे; केवल वह और सिर्फ वही हमेशा के लिए रहेगा।”
कुल मिलाकर, गुरु नानक मुख्य रूप से अल्लाह और शरीयत के बारे में बात करते हैं। पैगंबर और कुरान का जिक्र है, लेकिन वह भी अधिक भूमिका या महत्व के बिना। वे इस्लाम की दो अलग-अलग व्याख्याओं की भी बात करते हैं: एक उलेमा या काजी की और दूसरी शेखों या पीर की। वे उनकी कुछ अहम प्रथाओं को संदर्भ देते हैं और उनकी मान्यताओं की व्यापक समझ दिखाते हैं। ईश्वर की इस्लामी अवधारणा गुरु नानक की अपनी अवधारणा के करीब है। वे अपने कुछ नैतिक मूल्यों को सूफियों के साथ साझा करते हैं और जीवन की सूफी शैली की तारीफ करते हैं।
हालांकि, मुल्ला और काजी ने जो कहा या किया, वे उसे तारीफ के लायक नहीं मानते हैं। सूफी भी पूरी तरह सीमाओं से मुक्त नहीं थे।
ईश्वर पर पूर्ण विश्वास के उनके दावे के बावजूद उन्हें सरकार से वित्तीय सहायता मिली। वे यह भी मानते थे कि उन्होंने ईश्वर से मिलन का मार्ग खोज लिया है और अपने शिष्यों को दूसरों का मार्गदर्शन करने के लिए अधिकृत कर सकते हैं, जो गुरु नानक की नजर में आडंबरपूर्ण था।
गुरु नानक से इस्लाम कलियुग (चौथा और सबसे बुरा लौकिक युग) के साथ जुड़ा हुआ था, जिसमें उनके द्वारा खोजा गया मार्ग किलयुग से मुक्ति दिलाने वाला था।
जब एक सच्चा मुसलमान बनने का सवाल उठता है, तो इसका जवाब मुसलमानों को गुरु नानक द्वारा दिखाए गए तरीकों का अनुसरण करने में मिलता है।
(जे.एस. ग्रेवाल इतिहासकार और गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के पूर्व कुलपति हैं और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी, शिमला के निदेशक और बाद में अध्यक्ष रहे हैं। इंदु बंगा पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में प्रोफेसर एमेरिटस हैं)