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सादा जीवन, दृढ़ सिद्धांत

गुरुदास की कमी मजदूर वर्ग और लोकतांत्रिक आंदोलन को खलती होगी
गुरुदास दासगुप्ता

बात जब गुरुदास दासगुप्ता के बारे में करनी हो तो बहुत मुश्किल खड़ी होती है। एक पक्ष उनका शरणार्थी होकर तत्कालीन पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के वरिसाल से भारत आना था। वह 11 वर्ष की आयु में भारत आते हैं जब चेतना अभी विकसित होना शुरू ही हुई थी। निर्वासन का दर्द, तंगहाली और हिंसा देखने वाले को एक वामपंथी तेवर अख्तियार करता व्यक्तित्व हम देख सकते हैं। पढ़ाई करते हुए जब जाधवपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष चुने जाते हैं, तब इतनी स्पष्टवादिता और चीजों की समझने की बौद्धिकता भी विकसित होती है। मजदूर आंदोलन का चहेता, उत्कृष्ट सांसद का खिताब, लंबे संसदीय जीवन में सुविधाओं की उपलब्धता के बावजूद कबीर की तरह अपनी चादर सफेद बनाए रखना आज कोई मामूली बात नहीं मानी जानी चाहिए। एक पैंट-शर्ट में हफ्तों निकाल देना, टैक्स चोरी पकड़वाने में इनाम के एक करोड़ रुपये संघर्षशील संगठनों में बांट देना चमत्कारिक व्यक्तित्व को दिखाता है।

लेकिन यह सब बात उनके व्यक्तित्व का शानदार पैमाना भर है। उनके कार्यों पर गौर करने से उनके व्यापक दृष्टिकोण का पता चलता है। वे कहते थे कि कर्मचारियों के अभियान ने बैंकों को बचाया। मजबूत बैंकों ने 2009 की आर्थिक मंदी से भारत को बचा लिया। वे खेतिहर मजदूरों, असंगठित श्रमिकों के लिए जब लड़ते थे तो यह दृष्टिकोण भी सामने रखते थे कि आर्थिक तौर पर सबसे निचले तबके की जब तक आय नहीं बढ़ेगी, तब तक जीडीपी की वृद्धि महज एक ढोंग है। वे यह कहने से भी नहीं चूकते थे कि किसान देश का पेट भरता है, पर वह खुद आत्महत्या करने को विवश है। पैदावार की कीमत नहीं मिले और ऊपर से उनकी जमीन छीनी जाए। वह यहां तक कहते थे, “जान देंगे, खून देंगे लेकिन किसान जमीन नहीं देंगे” और तब सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून वापस लेना पड़ता है। आज जो आर्थिक मंदी की चर्चा हो रही है, बेरोजगारी पिछले 40 वर्ष के सबसे उच्च स्तर पर चली गई, जीडीपी पांच फीसदी से नीचे आ गई। किसान तबाह है, लेकिन प्रतिरोध दिखता नहीं है। मजदूर आंदोलन और वामपंथी आंदोलन आज अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। आज जब आवश्यकता थी कि सभी वंचित, अभावग्रस्त और लोकतांत्रिक संस्थाओं के विघटित होने के दौर में सुचिंतित तबका इकठ्ठा हो, तब ये करेगा कौन? यह यक्ष प्रश्न की तरह है। हम याद करते हैं जब देश की मुख्यधारा की राजनीति कॉरपोरेट के मोहपाश में फंस रही थी।

अंबानी, अडानी नीति-नियंता की भूमिका पा रहे थे, तब अकेले गुरुदास रिलायंस गैस स्कैंडल का भांडा फोड़ने में व्यस्त थे, जिसमें वे नेताओं और कॉरपोरेट की मिलीभगत उजागर करते हैं। स्थापित करते हैं कि क्रोनी कैपिटलिज्म किस तरह अर्थव्यवस्था को अपनी अंगुली पर नचा रहा है। इसके लिए वह पीआइएल का भी इस्तेमाल करते हैं।

गुरुदास की कमी मजदूर वर्ग और लोकतांत्रिक आंदोलन को खलती होगी। वे वामपंथियों को व्यापक दृष्टिकोण अपनाने के भी हिमायती रहे, जिसका सर्वथा अभाव आज वामपंथियों में दिखता है, जिसका नुकसान वे खुद उठा रहे हैं। वामपंथ सामाजिक अंतर्विरोध को समझने से इनकार करता रहा है। दबाव में अगर मान भी लिया जाए तो व्यवहार विश्वसनीय नहीं रहा। जिस बंगाल का वामपंथी सामाजिक न्याय की अवधारणा को वर्ग संघर्ष के विरुद्ध खड़ा करता रहा, उसी भद्र बंगालीपन से अलग सामाजिक अंतर्विरोध को मजबूती से उठाने का साहस गुरुदास में ही था। व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाने की आवश्यकता को बाध्यता में बदलने का हुनर भी गुरुदास में ही था। तभी तो वे आजादी के बाद के सबसे बड़े मजदूर आंदोलन के लिए वामपंथी के साथ कांग्रेस और बीजेपी से संबद्ध मजदूर संगठनों को भी विवश करने में कामयाब होते हैं। गुरुदास 1950 के दशक में एआइएसएफ के फायरब्रांड लीडर थे, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉमर्स में पोस्ट ग्रेजुएट किया। कोयला मजदूर नेता कल्याण शंकर रॉय की मौत के बाद वह 1985 में पहली बार राज्यसभा में उनकी जगह चुने गए थे। वे सीपीआइ की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य 1986 में पहली बार बने। वह 1988 में दूसरी और 1994 में तीसरी बार राज्यसभा गए। 2004 और 2009 में लोकसभा सांसद भी चुने गए। गुरुदास 17 साल तक मजदूर संगठन ‘एटक’ के महासचिव रहे।

वह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे तो बोलचाल में उदार, पर सैद्धांतिक दृढ़ता भी उतनी ही मजबूत थी। अंतर्विरोध से उत्पन्न प्रश्न को राजनीतिक विषय बनाने की कला के महारथी गुरुदास दासगुप्ता को श्रद्धांजलि!

(लेखक भाकपा के नेता रहे हैं और अब रालोसपा के बिहार में प्रदेश अध्यक्ष, अभियान समिति हैं)

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