रेन गन के साथ स्त्री किसान
एन. परमेश्वरी तमिलनाडु
एन. परमेश्वरी शादी के बाद किसान बनीं। तमिलनाडु के नमक्कल जिले के कोल्लापट्टी गांव की यह महिला किसान बताती हैं, “शुरू में मैं खेती के काम में मदद करती थी। लेकिन अब मैं पूरे समय खेती से जुड़े कामकाज देखती हूं। जबकि मेरे पति नटेसन हमारे पॉवरलूम बिजनेस को देखते हैं।”
अब वे मूंगफली और गन्ना उगाती हैं। यह बाद की बात है कि यह बहुत चुनौतीपूर्ण और दिलचस्प है। मूंगफली आमतौर पर बारिश की फसल है और बारिश आने से पहले यह बहुत ज्यादा तैयारी की मांग करती है। मूंगफली की खेती करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जमीन में हफ्तों तक मिट्टी की कंडीशनिंग करनी पड़ती है।
48 साल की परमेश्वरी ने 12 साल पहले जैविक खेती तकनीक का हाथ थाम लिया था इसलिए उन्हें मूंगफली की अच्छी उपज मिलती है। वे कहती हैं, “इसका परिणाम भी उतना ही अच्छा है, हमें हर तरह से स्वस्थ और भरपूर फसल मिलती है, जिसमें कोई रसायन नहीं होते। हम केवल दाने बेचते हैं, पूरी मूंगफली नहीं इसलिए भी हमारी फसल की भारी मांग होती है। हर फसल के आखिर में हमें प्रति एकड़, लाभ के रूप में लगभग 18,600 रुपये मिलते हैं। यहां तक कि पशुओं के चारे के रूप में हमारी मूंगफली के छिलकों की भी हमें अच्छी कीमत मिल जाती है, क्योंकि इसमें कोई रसायन नहीं होता।”
बारिश की फसल होने के कारण, कम बरसात मूंगफली की खेती को प्रभावित कर सकती है। लेकिन परमेश्वरी रेन गन का इस्तेमाल कर इस कमी को पूरा करती हैं। रेन गन स्थानीय तौर पर इजाद की गई है। दस फुट ऊंची मशीन पर एक स्प्रिंकलर लगा होता है, जो कुएं या बोरवेल से पानी खींच कर साठ से अस्सी फीट के दायरे में बारिश की तरह सिंचाई करता है। इसे आसानी से यहां-वहां ले जाया जा सकता है, ताकि पूरे खेत में सिंचाई की जा सके।
पांच महीने लंबी चलने वाली मूंगफली की खेती एक बार जब खत्म हो जाती है, तब वह अपने और दूसरों के लिए पशु चारे के लिए खेत में लाल मक्का उगाती हैं। इन फसलों और दूसरे 15 एकड़ के खेत में वह गन्ने की फसल का प्रबंधन करने के अलावा, अपनी आधा दर्जन दुधारू गायों को भी पालती हैं।
यह पूछे जाने पर कि आपकी तरह अन्य महिला किसानों को कभी किसी तरह की कठिनाई का सामना करना पड़ता है? जवाब में वे कहती हैं, “जब कोई आपकी भागीदारी और खेत में लंबे समय रहने की आपकी इच्छाशक्ति देखता है, तो आपको भी वही सम्मान मिलने लगता है, जो किसी पुरुष किसान को मिलता है। यहां तक कि व्यापारी भी हमारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं जब वे हमारी शानदार उपज देखते हैं।” यकीनन उन्हें नई पहचान मिलनी चाहिए और पूरा हक मिलना चाहिए।
चैन्ने से जी.सी. शेखर
दो जून रोटी का संघर्ष
मंगला देवी, उत्तर प्रदेश
उत्तर से चलती शीतलहर और कड़कड़ाती ठंड के बीच सुबह की ओस में ही 75 साल की वृद्धा मंगला देवी अपने हंसिये के साथ पशुओं के लिए चारा लेने खेत में निकल पड़ती हैं। इस बूढ़ी विधवा के पास कोई जमीन नहीं है। वे अभी भी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के खेड़ी गांव में किसी के खेत में काम करती हैं। वे बताती हैं कि उनके पति के पास दो बीघा जमीन थी पर वह उनके पास से निकल गई। कारण, तो वे भी नहीं जानतीं। उनके दोनों बेटे अपने परिवार के साथ बाहर रहने चले गए हैं। वे अकेली रहती हैं। वे कहती हैं, “महिलाएं भी किसानी का काम करती है, लेकिन उनके काम को पहचान नहीं मिलती।” जिस उम्र में महिलाएं अपने परिवार के साथ आरामदायक जिंदगी बसर करती हैं, उस उम्र में भी देवी को दो जून की रोटी कमाने के लिए हर दिन खेत में जाकर तीन से चार घंटे काम करना पड़ता है। वे घर के भी सारे काम करती हैं और बकौल उनके अपनी सहेलियों, गायों की भी देखभाल करती हैं।
आलेख और फोटोः त्रिभुवन तिवारी
किसान चाची का संघर्ष
राजकुमारी देवी, बिहार
खेती-किसानी बिहार की खासकर ऊंची जातियों में हमेशा ही पुरुष प्रधान रही है। लेकिन किसान चाची के नाम से चर्चित राजकुमारी देवी ने पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों को काटकर उस वक्त खेती शुरू किया जब महिलाओं को घर की चारदिवारी से बाहर निकलने की भी इजाजत नहीं थी।
मुजफ्फरपुर जिले के सरैया थाना के अंतर्गत आनंदपुर गांव के एक भूमिहार बेरोजगार युवक से 1974 में शादी के बाद, राजकुमारी को पता चला कि उनके ससुराल वाले, गांव के दूसरे लोगों की तरह उनसे घर के पारंपरिक काम करने की उम्मीद करते हैं जैसे उनके परिवार की अन्य महिलाएं करती हैं। लेकिन राजकुमारी इससे आगे कुछ और करना चाहती थीं। उन्हें खेत-खलिहान लुभाते थे, जबकि उन्हें पता था कि एक रूढ़िवादी परिवार की बहू के लिए ऐसा करना बेहद हंगामेदार हो सकता है।
2019 में पद्मश्री से सम्मानित किसान चाची का कहना है कि उनकी खेती में रुचि अपने किसान पिता के कारण पैदा हुई, जो बचपन में उन्हें खेतों में ले जाया करते थे। वे कहती हैं, “बचपन से ही खेती मुझे लुभाती थी। इसलिए आश्चर्य नहीं कि शादी के बाद भी मैंने खेती करने का मन बनाया।” शुरुआत में उन्हें कई परेशानियां आईं। उनके रूढ़िवादी परिवार की तो छोड़ो, उनकी अपनी मां और भाई ने भी उन्हें ससुराल में “मर्दों की तरह काम” करने को लेकर फटकार लगाई। यहां तक कि उनके पति ने भी शुरुआत में बेरुखी दिखाई। वे कहती हैं, पीछे मुड़कर देखूं, तो सभी ने मना करने की कोशिश की, जिनमें उनका भाई भी था जो उन्हें खेती से अलग करने के खातिर हर महीने पैसे भेजने को कह रहा था। उनके ससुर ने तो महज तीन बीघा जमीन देकर उन्हें परिवार से अलग कर दिया। ससुर इसलिए नाराज थे कि उन्होंने परिवार की इज्जत ‘मिट्टी में मिला’ दी।
वह राजकुमारी की जिंदगी का निर्णायक मोड़ साबित हुआ, जो अब 65 साल की हो चुकी हैं। उन्होंने कड़ी मेहनत करके खुद को साबित करने की ठान ली। हर साल बाढ़ में डूबने वाले उस इलाके में उन्होंने मौसमी फलों के साथ तंबाकू जैसी नकदी फसलें उगानी शुरू कीं। उन्होंने अचार और विभिन्न फलों के जैम बनाना शुरू किया और पाया कि उसके ग्राहक बहुत हैं। ऐसा कर उन्होंने दूसरे किसानों को भी राह दिखाई। परिजनों की टीका-टिप्पणी को नजरअंदाज करके कई बार दिन-दिन भर अकेले ही खेतों में जुटी रहती थीं।
कीचड़ भरी गलियों में साइकिल चलाकर (गांववालों के लिए वह भी झटका था) उन्होंने आस-पास के क्षेत्रों की गरीब महिलाओं के एक टोली बनाई और उन्हें आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनने के लिए खेती और पशु-पालन के ओर प्रेरित किया। बाद में उन्होंने कृषि विभाग के स्थानीय अधिकारियों की मदद से कई स्वयं सहायता समूह बनाए। इलाके में वे किसान चाची के नाम से चर्चित हो चुकी थी और 2005 में उनकी चर्चाएं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक भी पहुंचीं।
अब तो वे लंबा सफर पूरा कर चुकी हैं और किसान चाची ब्रांड नाम से ऑनलाइन अचार भी बेचने लगी हैं। इन वर्षों में बतौर किसान राजकुमारी देवी ने काफी प्रशंसा अर्जित की है। इससे यही साबित होता है कि महिलाएं सामंती सामाजिक परिवेश में भी पुरुषों से बेहतर कर सकती हैं, बशर्ते उनमें पक्का इरादा, जोश और जुनून हो।
गिरिधर झा
कंपोस्ट से कमाई
चेन्नमा, कर्नाटक
आधा दर्जन चरती गायों के ठीक बगल में, चिन्नम्मा के खेत का प्रवेश रास्ता है। वहीं पास ही में वर्मीकॉम्पोस्ट भी पड़ा है। गोबर की परत के नीचे कीड़े चिन्नम्मा के लिए पोषक तत्वों से भरपूर मिश्रण बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। ये कीड़े उनके जीवनयापन में मदद करते हैं। उत्तरी बेंगलूरु से करीब 50 किलोमीटर दूर, दोब्बाबल्लापुरा के पास अंतरहल्ली गांव की चिन्नम्मा का परिवार हर तीन महीने में 5,000 प्रति टन के हिसाब से यह जैविक खाद बेचता है, जिससे उनकी आजीविका चलती है। आउटलुक से उन्होंने कहा, “जैविक खाद से मिले मुनाफे ने हमारी दो बेटियों के कॉलेज एडमिशन में बहुत मदद मिली।”
2007 में चिन्नम्मा को एक कृषि मेले में सर्वश्रेष्ठ महिला किसान पुरस्कार मिला था। तब से वे उन्नत कृषि तरीकों पर पैनी नजर रखती हैं। 45 साल की चिन्नम्मा अपने 52 साल के पति हनुमंतराजू के साथ मिल कर 6 एकड़ जमीन संभालती हैं। वे बताती हैं कि कृषि पर निर्भर आय के सहारे परिवार के भरण-पोषण की चिंता ने उन्हें स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) द्वारा आयोजित प्रशिक्षण सत्र में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। तब से पिछले कुछ साल में, वे दूसरी महिला किसानों को जानकारी देने का काम कर रही हैं। वे कहती हैं, “हम सिर्फ चीनी, कॉफी और दालें खरीदते हैं। इसके अलावा हमें जिसकी भी जरूरत होती है- सब्जी, फूल, फल सब हमारे खेत से आता है।”
कुछ साल पहले, केवीके ने उन्हें फ्रेंच बीन्स की सफल खेती के रूप में मान्यता दी। अब चिन्नम्मा सुपारी, केला, अमरूद और अन्य फलों जैसी लंबी अवधि वाली फसलों की खेती कर रही हैं। इससे उन्हें उपज बेचने हर दिन बाजार नहीं जाना पड़ेगा, मजदूरी में किफायत मिलेगी और लाभ अच्छा मिलेगा। चिन्नम्मा कहती हैं, “हर चीज के दो पहलू होते हैं, कृषि के भी। हमने कई गलतियां कीं और विफलता भी पाई। लेकिन यदि हम वैज्ञानिक तरीके से खेती करने लगें और यदि हम अपनी उपज के लिए बाजर खोज पाएं, तो खेती से आजीविका चलाना इतना खठिन नहीं होगा।”
उनकी बड़ी बेटी रक्षिता इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है, जबकि उनकी बहन हृषिता हॉर्टिकल्चर में बीएससी कर रही है। रक्षिता कहती हैं, “हमारी मां ने जो भी उपलब्धि हासिल की उस पर हमें गर्व है। बहुत कम उम्र से वह स्वावलंबी और कड़ी मेहनत करने वाली रही हैं।”
बेंगलूरू से अजय सुकुमारन
किसान कहां, सिर्फ गृहिणी
निक्की तोमर, उत्तर प्रदेश
पूरे दिन खेत में काम करने वाली कई महिला किसानों में से एक निक्की तोमर की गिनती भी किसानों में नहीं होती। उनकी पहचान किसान से ज्यादा गृहिणी की है। खेती से जुड़े परिवारों की अधिकांश ग्रामीण महिलाओं की तरह, 24 साल की निक्की के पास भी घर और परिवार की दोहरी जिम्मेदारी है। उनके दो बेटे हैं और वे घर, खेत के काम के अलावा उन्हें पढ़ाने की भी जिम्मेदारी उठाती हैं। 80 बीघा खेत में वे मिट्टी की गुड़ाई, सिंचाई आदि का काम देखती हैं। खेत में वह सात घंटे से भी ज्यादा बिताती हैं। इसके बाद वह अपने बुजुर्ग सास-ससुर की देखभाल करती हैं, बच्चों को देखती हैं, खाना पकाती हैं, बर्तन मांजती हैं और सफाई के साथ दूसरे घर के काम देखती हैं। वे कहती हैं, “मैं मोटरसाइकिल चला लेती हूं, ट्रैक्टर चला लेती हूं और खेती भी कर लेती हूं।” क्या उनके पास अपनी जमीन है? या उनके काम को पुरुष किसानों की बराबरी की तरह देखा जाता है? इस सवाल पर वे कोई िटप्पणी नहीं करतीं। सामंती प्रथा से गहरा जुड़ा घूंघट उन्हें रोकता है, जैसे भारत की अदृश्य महिला किसानों की कई आवाजें हाशिये पर ही रोक ली जाती हैं।
आलेख और फोटोः त्रिभुवन तिवारी