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12 जून 2023 · JUN 12 , 2023

आवरण कथा/इंटरव्यू: “विपक्षी एकता के पचड़े में पड़ने की जरूरत नहीं”

पूर्व केंद्रीय मंत्री, दिग्गज राजनेता यशवंत सिन्हा से कर्नाटक चुनाव के संदेश और 2024 के चुनावी परिदृश्य पर बातचीत
यशवंत सिन्हा

हाल में विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रहे, पूर्व केंद्रीय मंत्री, दिग्गज राजनेता यशवंत सिन्हा से कर्नाटक चुनाव के संदेश और 2024 के चुनावी परिदृश्य पर हरिमोहन मिश्र की बातचीत के मुख्य अंश:

कर्नाटक के नतीजों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में कैसे देखते हैं?

अगर कर्नाटक में भाजपा जीती होती तो श्रेय किसे दिया जाता? पार्टी कहती कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगभग अकेले, अपने करिश्मे से लहर का रुख मोड़ दिया और भाजपा को जीत दिला दी। तब श्रेय उनको मिलता, तो दोष भी उन्हें ही मिलना चाहिए। दूसरे, देश के प्रधानमंत्री पूरी तरह से बाखबर व्यक्ति होते हैं। उनके पास जितनी सूचना आती है, उतनी और किसी को हासिल नहीं होती। देश के किसी भी कोने में छोटी से छोटी घटना के बारे में सूचना उन्हें चौबीसों घंटे मिलती रहती है। इसलिए यह समझना नादानी होगी कि मोदी जी को कर्नाटक की सही स्थिति का पता नहीं था। उनको बहुत सारे स्रोतों, आइबी, अपनी पार्टी के लोगों से पता होगा। जितना उन्होंने कर्नाटक में परिश्रम किया, जैसे वे हर मुद्दे को लपक लेते थे, जो उन्हें लगा कि विपक्ष ने गलती से उनके हाथ में दे दिया, जैसे बजरंग बली का मुद्दा। यह सब जानते हुए वे गए। इसके पहले भी प्रधानमंत्री हुए हैं जो राज्य विधानसभा चुनावों में प्रचार करने जाते रहे हैं, लेकिन उतना कुछ नहीं किया करते थे जो मोदी करते हैं या इस चुनाव में उन्होंने किया। इसकी दो ही व्याख्या है कि या तो उन्हें सही सूचना नहीं मिली, जिसे मैं मानने को तैयार नहीं हूं, या सूचना मिली मगर उन्हें भरोसा था कि स्थितियों को हम अपने हक में पलट देंगे, जो नहीं हो पाया। फिर इसमें यह भी जोडि़ए कि जिन लोगों ने कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा निकाला था, उनके लिए यह कितनी बड़ी हार होगी। तो, मैं मानता हूं कि कर्नाटक में मोदी जी की व्यक्तिगत हार है और कर्नाटक में सारे हथकंडे विफल साबित हो सकते हैं तो आने वाले चुनावों में भी विफल साबित हो सकते हैं।

भाजपा और कांग्रेस की चुनावी रणनीतियों पर क्या राय है?

कांग्रेस ने स्थानीय नेतृत्व को आगे किया, कर्नाटक के मुद्दों को आगे किया और राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव नहीं लड़ा। केंद्र सरकार के कामकाज, नाकामियों की बात नहीं की, अदाणी की बात नहीं की। स्थानीय मुद्दों पर पार्टी ने चुनाव लड़ा और विधानसभा चुनाव में यह काम आया। भाजपा ने राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा, मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा, केंद्र की उपलब्धियां गिनाईं लेकिन वह काम नहीं आया। इसलिए मेरी राय में यह रुझान विधानसभा चुनाव तक सीमित नहीं रहेगा, इसका असर लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिलेगा।

अगर लोकल मुद्दे पर कांग्रेस चुनाव जीती तो राष्ट्रीय चुनाव में इसका असर कैसे पड़ेगा?

याद करें, 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हार गई थी। 2000 में दो नए प्रदेश झारखंड और छत्तीसगढ़ (उत्तराखंड के साथ तीन) बने थे। दोनों एक-दूसरे से सटे हैं और दोनों की प्रकृति एक जैसी है। छत्तीसगढ़ में आदिवासी आबादी कुछ ज्यादा है, झारखंड में थोड़ी कम है। झारखंड में 14 लोकसभा सीटों में भाजपा सिर्फ एक सीट जीत पाई, जबकि छत्तीसगढ़ में 11 में से 10 सीट जीत गई। तब मैं पूछता था कि कौन-सी हवा थी, जो छत्तीसगढ़ में भाजपा के हक में थी और सीमा पार करते ही झारखंड में उलट गई। ऐसा नहीं था। लोकसभा का चुनाव होने के बावजूद मुद्दे दोनों राज्यों में लोकल थे। लोकल मुद्दों के आधार पर लोगों ने वोट दिया, जिसके एक-दूसरे के विपरीत नतीजे दो राज्यों में आए। तो, मैं मानता हूं कि लोकसभा के चुनाव में भी स्थानीय मुद्दे हावी हो सकते हैं, बशर्ते विपक्षी दल उनको सही ढंग से उठा सकें। अगर वे कथित राष्ट्रीय मुद्दों के चक्कर में पड़ जाते हैं और उस पर चुनाव होता है तो फिर परिणाम वे नहीं होंगे जिसकी वे आशा करते हैं। यह मेरी थ्योरी है।

विपक्षी एकता को लेकर आपका क्या कहना है?

हां, मेरी दूसरी थ्योरी है इसको लेकर। लंबे समय से यह धारणा है कि जब तक विपक्षी दल एक नहीं होते, सत्ताधारी दल को हराना मुश्किल है, चाहे इंदिरा गांधी हों या नरेंद्र मोदी। मैं ठीक इसके विपरीत राय रखता हूं कि विपक्षी दलों को इस पचड़े में पड़ने की जरूरत ही नहीं है। विपक्षी दल दो प्रकार के हैं। एक, क्षेत्रीय पार्टियां हैं जिनकी कई राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें हैं। दूसरी कांग्रेस पार्टी है। अगर पूरे देश पर नजर डालें तो मैं मानता हूं कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने की लगभग सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के कंधों पर है। अब वे 5-10 सीटें एक जगह हार जाएं और दूसरी जगह जीत जाएं, इसकी बात मैं नहीं कर रहा हूं। जैसे बंगाल को लीजिए, 2019 में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस 22 और भाजपा 18 सीटें जीती थी। ममता बहुत कोशिश करेंगी वहां तो हो सकता है कि भाजपा 10 सीटें हार जाए, 8 सीटें ही पाए। यानी 10 सीट ममता के खाते में चली जाए, लेकिन 10 सीट से किसी तरफ फर्क नहीं पड़ने वाला है। फर्क तब पड़ेगा जब भाजपा कम से कम 100 सीटों पर हारे। मेरा मानना यह है कि 200 से अधिक सीटों पर भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर है। जम्मू, हिमाचल प्रदेश, (दिल्ली, पंजाब को छोड़ देते हैं), हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र (जहां महाविकास अघाड़ी गठजोड़ है), इन सभी राज्यों में करीब 200 सीटों पर पिछले चुनावों में कांग्रेस को चार-पांच सीटें और भाजपा को 190 से ज्यादा सीटें मिलीं। अगर इस बार भी वही नतीजे आते हैं और कांग्रेस की करारी हार होती है तो भाजपा को 300 या बहुमत के आसपास सीटें मिलने से कोई रोक नहीं सकता। इसलिए भाजपा को हराने की मुख्य जिम्मेदारी कांग्रेस की है। अगर इन 200 सीटों पर कांग्रेस ने 75 से 100 सीटों पर नहीं हराया तो भाजपा को 2024 में फिर सरकार बनाने से कोई रोक नहीं सकता। इसलिए कर्नाटक का चुनाव महत्वपूर्ण है जहां कांग्रेस ने भाजपा को हराया।

तो, भाजपा के खिलाफ हर सीट पर एक उम्मीदवार का फार्मूला बेमानी है?

कर्नाटक में विपक्षी एकता नहीं हुई न! यह बड़ा भारी सबक है जिसका कहीं कोई जिक्र नहीं कर रहा है कि कर्नाटक में कांग्रेस, भाजपा और जेडी-एस के बीच त्रिकोणीय मुकाबला था, लेकिन जनता ने तय किया कि भाजपा को हराना है तो कांग्रेस को जिताना है। इसमें भाजपा और जेडी-एस दोनों का नुकसान हुआ। मैं बहुत दिनों से इस बात का कायल हूं कि विपक्षी एकता हो या नहीं हो, जनता मन बना लेती है कि सत्तारूढ़ पार्टी को हराना है। इसका उदाहरण है दिल्ली, जहां की जनता ने मन बना लिया था। इसलिए मैं कह रहा हूं कि विपक्षी एकता के पचड़े में पड़ने की, उसमें ऊर्जा खपाने की जरूरत नहीं है। जो जहां मजबूत है, वह वहां चुनाव लड़े। मैं बहुत दिनों से यह कह रहा हूं। नीतीश कुमार निकले हुए हैं देश भर में विपक्षी एकता के लिए। उनके चेंज ऑफ हार्ट का स्वागत है, हालांकि राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने मेरा फोन तक नहीं उठाया। खैर, अब वे विपक्षी एकता के सूत्रधार बने हुए हैं, लेकिन नीतीश कुमार जी की तो उत्तर प्रदेश में नहीं चलेगी। वहांं अखिलेश की चलेगी। अखिलेश के युवा कंधे पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि भाजपा जहां से अधिकतम सीटें जीतती है, वहां वे इसे कम करने का प्रयास करें। नीतीश अपने यहां प्रयास करें। कांग्रेस बाकी राज्यों में प्रयास करे। उसी तरह क्षेत्रीय पार्टियां हर जगह प्रयास करें। राज्यवार विश्लेषण करेंगे तो आप पाएंगे कि सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के ऊपर है। भाजपा ने पिछले दो चुनावों में कांग्रेस के असर वाले राज्यों में करीब 100 प्रतिशत सीटों पर कब्जा किया। इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस को कर्नाटक की जीत से बल मिला है, उत्साह मिला है, जिसका उपयोग पार्टी आगामी विधानसभा करेगी और उसका असर लोकसभा चुनाव में पड़ेगा।

तो, मोदी की लोकप्रियता घटी है?

बिल्कुल, मोदी जी का व्यक्तित्व क्षीण हुआ है। पहले उनके खिलाफ ट्वीट करता था तो सिर्फ गाली पड़ती थी, अब कुछ लोग उसकी तारीफ भी करते हैं। उसी तरह यूट्यूब चैनल में फर्क आया है। बहुत सारे लोग भाजपा के खिलाफ कुछ न कुछ करते हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव का अनुभव अलग है। 2018 में कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जीत गई, गुजरात में भी जीत के मुहाने तक पहुंच गई थी लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एकतरफा जीत दर्ज कर ली।

लोकसभा के 2019 के चुनाव में ‘स्टोलेन मैनडेट’ था, चोरी का जनादेश था। पुलवामा और बालाकोट नहीं हुआ होता तो 2019 में भाजपा को बहुमत नहीं मिलता। उसका गहरा असर जनमानस पर पड़ा। हजारीबाग जैसे दूरदराज के इलाके में लोग उसी की बात कर रहे थे कि सचमुच 56 इंच की छाती दिखा दी। पुलवामा क्यों हुआ, इसका जिक्र खत्म हो गया। पाकिस्तान को सबक सिखा दिया, इसका जिक्र ज्यादा हुआ। मोदी जी ने इसे चुनाव में भुनाने का काम किया। दोबारा ऐसा हो पाएगा, यह मैं संभव नहीं समझता।

अगर फिर असामान्य स्थितियां पैदा हुईं तो?

नहीं, अब नहीं हो सकता है। काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है। लोग पूछेंगे कि चीन तुम्हारी जमीन पर कब्जा करके बैठा हुआ है वहां तो कुछ नहीं कर रहे हो। जब चाहे पाकिस्तान से भिड़ जाते हो क्योंकि पाकिस्तान इस्लामी देश है और हमारे देश की घरेलू राजनीति में उसका असर पड़ता है।

ये राष्ट्रीय मुद्दे क्या होते हैं? क्या महंगाई, बेरोजगारी, गैर-बराबरी राष्ट्रीय मुद्दे नहीं हैं?

राष्ट्रीय मुद्दा मोदी जी हैं। कर्नाटक के चुनाव में कितनी तरह की वेशभूषा में उतरे। क्या नौटंकी नहीं की। अब वह बात खुलने लगी कि फूलों का इंतजाम कैसे हुआ। कैसे एक ही भीड़ को हर जगह बार-बार दिखाते रहे।

2024 के पहले सक्रिय होंगे?

कोशिश करेंगे। कोई पूछेगा तो अपनी बात कहेंगे।

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