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आवरण कथा/ओबीसी: नई गोलबंदी के गोलार्द्ध

अगले साल तय लोकसभा चुनाव की बेला करीब आने लगी तो ओबीसी राजनीति पर फोकस तेज हुआ, विपक्ष जाति जनगणना और आर्थिक गैर-बराबरी के मुद्दे पर हमलावर तो भाजपा नेताओं को घेरने में लगी
पिछड़ों पर जंगः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जे.पी. नड्डा; (दाएं) तेजस्वी और अखिलेश यादव

अक्सर अजीबोगरीब, अतार्किक से लगने वाले बोल अकुलाहट, बेचैनी समेटे रहते हैं, जिसे गौर से देखने पर कई आशंकाएं, शक-शुबहे, सहेजने की चतुर चालों के पत्ते खुलते हैं। और राजनीति में, खासकर चुनावी राजनीति की करीबी बेला (2024 की शुरुआत में तय लोकसभा चुनावों के मद्देनजर) में सतह पर बेतुके से लगने वाले बयानों की भारी कोलाहल के साथ धारासार बारिश ऐसे की जाती है, ताकि तपती धरती कुछ नम हो जाए, या मुरझाए फुनगों में थोड़ी हरियाली आ जाए। जाहिर है,

इसके लिए भी हवा बनानी या तलाशनी पड़ती है। हाल में कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मुख्य निशाने पर लेने की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और सरकार की आक्रामक (काफी हद तक बेलज्जत) कार्रवाई ऐसी ही फिजा तैयार करने की कोशिश लगती है। इसके साथ अगर हाल में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नेता तथा उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के खिलाफ पुराने मामले में केंद्रीय एजेंसियों सीबीआइ, ईडी के छापे पर भी गौर करें तो चुनावी फसल के लिए कौन-सी जमीन टटोली जा रही है, उसके संकेत दिखने लग सकते हैं। दरअसल जमीन तपाने वाले मुद्दे तो कई हैं और विपक्ष हवा गरम करने में कोई कोताही भी नहीं बरत रहा है, जो उसके लिए लाजिमी भी है। लेकिन हालिया घटनाक्रमों से संकेत मिलने लगा है कि चुनावी जमीन तोड़ने के लिए सबसे ठोस मुद्दा पिछड़ी जातियों का है। सो, दोनों ओर से इसे ही साधने की कवायद दिखने लगी है।

पहले मौजूदा घटनाक्रमों को देख लें। राजद नेताओं और लालू प्रसाद, तेजस्वी यादव तथा उनके परिजनों पर छापे तो एकतरफ हैं, जो उसी पुराने रेलवे नौकरी के बदले जमीन के कथित आरोप से संबंधित हैं, जिससे जुड़े छापे 2017 में हुए थे। यह मामला तब का बताया जा रहा है, जब केंद्र में यूपीए-1 सरकार में लालू प्रसाद रेलमंत्री थे। राहुल गांधी के खिलाफ भी मानहानि का मामला 2019 में चुनाव प्रचार के दौरान कर्नाटक के कोलार में एक भाषण में कहे कुछ शब्दों का है। लेकिन इस साल राहुल जब हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद कारोबारी अदाणी समूह पर तीखे सवाल उठाने लगे तो गुजरात में सूरत की निचली अदालत में मोदी नाम को बदनाम करने की कथित कोशिश के लिए एक भाजपा विधायक ने अपनी पुरानी शिकायत को मुल्तवी रखने की अर्जी हटा ली और सुनवाई की अपील की। फिर, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई तो आनन-फानन राहुल की केरल के वायनाड से लोकसभा सदस्यता भी रद्द कर दी गई और उन्हें संसद आवास खाली करने का नोटिस भी थमा दिया गया। यहां इसके कानूनी पहलुओं पर चर्चा से मतलब नहीं है, बल्कि यह देखना है कि इसके चुनावी सियासत के दरवाजे किधर खुलते हैं।

स्वामी प्रसाद मौर्य

स्वामी प्रसाद मौर्य

इसे फौरन भाजपा अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा ने साफ कर दिया। नड्डा बोले, “राहुल गांधी ने एक ओबीसी जाति का अपमान किया है और इससे पिछड़ी जातियों के प्रति उनकी और कांग्रेस की नफरत दिखती है।” यह बात दीगर है कि राहुल ने उस दौरान जिन तीन लोगों के नाम लिए थे, उनमें शायद कोई भी ओबीसी की मूल श्रेणी में नहीं आता है। साथ ही, यह भी अलग बात है कि कांग्रेस का फिलहाल खासकर उन राज्यों में (मसलन, उत्तर प्रदेश, बिहार) पिछड़ी जाति की सियासत पर कोई बड़ा दांव नहीं दिखता है। फिर भी सत्तारूढ़ पार्टी चरम हमले में कोई छूट देने के मूड में नहीं दिखती, बल्कि उस कहावत पर अमल करती लग रही है कि ‘युद्घ और प्रेम में सब कुछ जायज है।’ इसे अगर 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे) की टिप्पणी से जोड़कर देखें तो इसके अर्थ खुलने लगते हैं। उस समय कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर ने सोनिया गांधी पर उनकी एक टिप्पणी के जवाब में उन्हें “चाय बेचने वाला” और “नीच” कहा था। जवाब में मोदी बोले, “मैं निचली जाति का हूं इसलिए मुझे अपमानित किया जा रहा है।” चुनावी आंकड़े गवाह हैं कि जाति पहचान का सवाल उठाने का उन्हें और भाजपा को लाभ मिला। उन्हें पिछड़ी जाति के नेता के तौर पर पेश किया जाने लगा।

यह भाजपा की राजनीति में केंद्र स्तर पर पहली दफा हुआ था। उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश तथा बिहार में इसका काफी फायदा मिला। इन राज्यों में ओबीसी की राजनीति करने वाली पार्टियों से कई असंतुष्ट पिछड़ी जातियां खिसकने लगीं। बिहार में राजद और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के वोट बैंक एक हद तक सिकुड़ गए और उन्हें यादव केंद्रित पार्टियां कहा जाने लगा।

हालांकि अब बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल-यूनाइटेड (जदयू) और राजद के साथ आ जाने से तो शायद पिछड़ी जातियों में यह गठबंधन भारी पड़ सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं है। सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीटों वाला यह प्रदेश सबसे अधिक अहमियत रखता है। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में यह दिख चुका है कि भाजपा को पिछड़ी, अति पिछड़ी और कई दलित जातियों के वोट ठीक-ठाक मिले हैं। हालांकि 2022 के चुनावों में सपा नेता अखिलेश यादव ने जाति जनगणना का मुद्दा नए सिरे से उभारकर पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की कोशिश की और कई हद तक कामयाबी भी हासिल की। सपा के वोट प्रतिशत और सीटों में काफी इजाफा हुआ। अलबत्ता इसमें किसान आंदोलन और मुस्लिम वोटों का भी योगदान रहा था। लेकिन पिछड़ी जातियों का रुझान बदलने का फायदा ही बड़ा था।

ओबीसी नेताओं को जाति जनगणना के मुद्दे में पिछड़ों की एकजुटता की नई संभावना दिख रही है। बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की महागठबंधन की नई सरकार ने इसे शुरू भी कर दिया है। हालांकि वे इसे जाति सर्वेक्षण कहते हैं। ओबीसी की गोलबंदी को तीखा करने के लिए ही शायद बिहार में राजद के एक नेता और उत्तर प्रदेश में स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस में शूद्रों के अपमान का मामला उठाया था। लेकिन बाद में बड़े नेताओं ने इसे तूल देना सही नहीं समझा।

जातिगत मतदान रुझान

जातिगत मतदान रुझान

इससे भाजपा में कुछ शक-शुबहे पैदा हुए हैं। अगर उनके पाले में आई पिछड़ी जातियां दूर जाती हैं तो चुनावी संभावनाओं पर काफी असर पड़ सकता है। शायद इसी वजह से केंद्रीय नेतृत्व के रुख से अलग बिहार भाजपा ने जाति जनगणना का समर्थन करना ही बेहतर समझा था। चुनाव विश्लेषक तथा सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार आउटलुक से कहते हैं, “भाजपा अभी धार्मिक आइडेंटिटी का सहारा लिए हुए हैं। लेकिन धार्मिक आइडेंटिटी से हटकर जाति आइडेंटिटी की बात शुरू हो गई तो भाजपा कहीं पिछड़ जाएगी।” वे अपनी बात को विस्तार देते हैं, “अगर हम पिछले पांच-सात साल को देखें तो भाजपा ने ओबीसी फोर्सेस पर भी तमाम तरह की चीजों से अपनी पकड़ बना ली है। उसने वेलफेयर पॉलिटिक्स, तमाम तरह की योजनाओं या अपनी चतुर राजनीति या कुछ राजनैतिक भागीदारी देकर ओबीसी में पकड़ बनाई है। लेकिन जाति जनगणना से कुछ आंकड़े वगैरह निकल कर आएंगे तो वह आइडेंटिटी की लड़ाई हो जाती है। भाजपा की मूल आइडेंटिटी तो ऊंची जाति और बनियों की पार्टी का ही है।”

अशोक गहलोत भी पिछड़ों की राजनीति पर फोकस कर रहे

अशोक गहलोत भी पिछड़ों की राजनीति पर फोकस कर रहे

यही शंका भाजपा को सता रही हो सकती है क्योंकि पार्टी ने कई पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों को भागीदारी के नाम पर उनके नेताओं को पद वगैरह देकर संतुष्ट करने की कोशिश तो की है, मगर उनकी शिक्षा, रोजगार, नौकरी वगैरह देने जैसे व्यापक मांगों पर ज्यादा कुछ नहीं कर पाई है। सरकारी नौकरियों और पदों में काफी कम प्रतिनिधित्व से पिछड़ी जातियों के पढ़े-लिखे वर्ग में निराशा का माहौल है (देखें साथ की रिपोर्ट भर्तियां नाकाफी, पद खाली)। कई जातियों को अनुसूचित जाति में वर्गीकृत की मांग भी भाजपा पूरी नहीं कर पाई है। इसके अलावा निजीकरण पर जोर भी सरकारी नौकरियों के सिकुड़ने से आरक्षण की व्यवस्था बेमानी होने का डर भी सता रहा है। फिर, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई जैसी परेशानियां भी एंटी-इंकंबेंसी का कारण बन सकती हैं। इस पर अगर क्रोनी कैपिटलिज्म और अदाणी-अंबानी जैसे कुछेक कारोबारी घराने को भारी शह देने की बात ज्यादा व्यापक जनधारणा में पैठ गई तो मामला ‘करेला नीम चढ़ा’ वाला हो सकता है। इसके पहले भी 2015 में सूट-बूट की सरकार वाले राहुल गांधी के जुमले के लोगों के जबान पर चढ़ने से मोदी सरकार को भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश वापस लेने पड़े थे और प्रधानमंत्री को कहना पड़ा था कि “उनकी सरकार गरीबों की सरकार है।” शायद ऐसी ही एंटी-इंकंबेंसी की आशंका के मद्देनजर उसे उत्तर प्रदेश चुनावों के पहले विवादास्पद तीन कृषि कानून वापस लेने पड़े थे।

शायद यही वजह है कि भाजपा पिछड़े नेताओं के साथ कांग्रेस में अदाणी के मुद्दे पर सबसे मुखर राहुल गांधी को घेरने की कोशिश कर रही है। यहां यह भी याद कर लेना चाहिए कि पिछड़े नेताओं और कांग्रेस की कथित भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद के आरोपों से साख में आई कमी का लाभ भी भाजपा को मिला है। इसलिए शायद भाजपा शीर्ष नेतृत्व की सोच यह भी हो सकती है कि येन-केन-प्रकारेण इन नेताओं को मुकदमे के जाल में घेरने का फायदा उसे मिले और शायद अपनी पाले में आईं ओबीसी जातियों को दूसरी ओर रुख करने से रोका जा सके। गौरतलब है कि इन जातियों को अपनी ओर लाने के लिए भाजपा को लंबी कसरत करनी पड़ी है।

भाजपा और संघ परिवार को नब्बे के दशक में ही यह एहसास हो गया था कि कांग्रेस की साख गिरने पर अगर सामाजिक न्याय और बराबर प्रतिनिधित्व की मांग जातियों में जोर पकड़ गई तो उसका आधार बड़ा नहीं हो सकता। इसीलिए नब्बे के दशक में वी.पी. सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया तो तब शीर्ष भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली और धार्मिक आइडेंटिटी से जाति आइडेंटिटी की फिजा कमजोर करने की कोशिश करनी पड़ी। तभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक के नेतृत्व में पिछड़ी, दलित जातियों में पैठ बनाने का भी तय किया गया। आडवाणी के नेतृत्व में इसके कुछेक सूत्रधारों में के. गोविंदाचार्य भी थे। इस कोशिश का फल भी मिला। उत्तर प्रदेश में भाजपा और संघ परिवार की ओर सबसे पहले रुख करने वाली कोयरी, लोधी जैसी जातियां थीं। कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती जैसे नेता उभरे। ये सभी नेता अब भाजपा के नए निजाम में हाशिए पर चले गए हैं। लेकिन पिछड़ी जातियों में ज्यादा पैठ बनाने में भाजपा को दो दशक से ज्यादा लग गए। हालांकि 2014 के बाद से भाजपा की राजनीति में धार्मिक आइडेंटिटी पर भारी जोर बढ़ गया। मंदिर, गाय, लव जेहाद, बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का जोर भयानक बढ़ गया। इसी डोर और थोड़ी-बहुत भागीदारी के बल पर वह पिछड़ी जातियों को भी समेटे रखना चाहती है, जिसमें जाति जनगणना जैसे मुद्दे खलल पैदा कर सकते हैं।

नवीन पटनायक

ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी जाति जनगणना की पहल कर रहे हैं

इसका एहसास पिछड़े नेताओं ही नहीं, समूचे विपक्ष को हो चला है। इसी लिए ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी जाति जनगणना की पहल कर रहे हैं। तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी इस ओर कदम बढ़ा चुके हैं। आंध्र प्रदेश में भी इसकी मांग उठने लगी है। कांग्रेस ने भी रायपुर अधिवेशन में संगठन और कार्यकारिणी में 50 फीसदी आरक्षण पिछड़ों, दलित, आदिवासियों, युवाओं और महिलाओं को देने का ऐलान कर चुकी है। इसमें 25 प्रतिशत पिछड़ी जातियों के लिए ही है। दरअसल, पिछड़ी जातियों पर इस कदर जोर देने का सबब उनकी आबादी है। कुछेक अनुमानों के अनुसार यह 60 फीसदी से ऊपर हो सकती है। राजद के राज्यसभा सदस्य मनोज झा तो आउटलुक से कहते हैं कि यह आबादी 70-72 फीसदी तक हो सकती है। इसलिए जनगणना में ये आंकड़े उभर आए तो फिर देश के संसाधनों और संस्थाओं में ज्यादा भागीदारी की मांग भी उठ सकती है। बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम के दौर का वह नारा याद कीजिए कि ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी भागीदारी।’

यह सवाल सत्ता-प्रतिष्ठान और उद्योग घरानों को हमेशा डराता रहा है। इसी वजह से संविधान के अनुच्छेद 340 में स्पष्ट उल्लेख के बावजूद नब्बे के दशक तक ओबीसी आरक्षण का मामला सिरे नहीं चढ़ पाया। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था तो शुरू से ही की गई, लेकिन अन्य शैक्षणिक-सामाजिक पिछड़ी जातियों के मामले में अनुच्छेद 340 में राष्ट्रपति को आयोग बनाने का अधिकार दे दिया गया। 1953 में काका कालेलकर की अगुआई में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ। उसने 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। उसमें 2,399 पिछड़ी जातियों का जिक्र था, जिसमें 837 को अति पिछड़ा माना गया। लेकिन जाति के आंकड़े 1931 की जनगणना के ही थे इसलिए उसने 1961 की जनगणना में जाति गणना की भी सिफारिश की। उसकी सिफारिशों में एक अनोखी बात यह भी थी कि उसने सभी महिलाओं को पिछड़े वर्ग में रखा था। लेकिन कालेलकर आयोग की सिफारिशें नहीं मानी गईं।

उसी दौरान समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया भी महिलाओं को पिछड़े वर्ग में शुमार रखने की वकालत कर रहे थे और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने नारा भी दिया था कि ‘संसोपा ने बांधी गांठ पिछड़ा पावैं सौ में साठ।’ तब पिछड़े वर्गों से कर्पूरी ठाकुर जैसे कई नेता उभरे। इसी से मुलायम सिंह, लालू यादव भी निकले, जो नब्बे के दशक के बाद लगभग दो दशकों तक हिंदी प्रदेशों में राजनीति की धूरी बने रहे। दूसरे प्रदेशों में भी कई नेता अभरे। बहरहाल, 1979 में जनता पार्टी की सरकार के दौरान दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बी.पी. मंडल की अगुआई में बना। आयोग ने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 1980 में पेश की। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर पिछड़ों की आबादी 52 प्रतिशत तय की। आखिर 1979 में वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल रिपोर्ट को लागू की। लेकिन 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता तो अनुसूचित जातियों-जनजातियों को तकरीबन 23 प्रतिशत आरक्षण को ध्यान में रखकर ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण तय हुआ।

अब, बकौल मनोज झा, “1931 जनगणना के बाद तो पाकिस्तान और बांग्लादेश नामक दो देश अलग बन गए तो वह आंकड़ा वैज्ञानिक कैसे हो सकता है। फिर सुप्रीम कोर्ट ने हालिया फैसले (आर्थिक रूप से पिछड़े अगड़े वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण के मामले में) में 50 प्रतिशत की सीमा भी हटा दी है तो उचित प्रतिनिधित्व तय करने के लिए जाति जनगणना जरूरी हो गई है।” वैसे 2001 की जनगणना में जाति गणना की पेशकश तत्कालीन जनगणना आयुक्त ने की थी, मगर वह तब खारिज हो गई। फिर पिछड़ा नेताओं के दबाव में 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण किया गया, मगर सरकार ने तकनीकी खामियों का हवाला देकर आंकड़े जारी करना जरूरी नहीं समझा।

जो भी हो, अब सारे संकेत हैं कि पिछड़ा राजनीति एक बार फिर करवट ले सकती है, जिसके अक्स दिखने लगे हैं। अब देखा जाए ऊंट किस करवट बैठता है।

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