व ह दिन कुछ और था, जब फुटबॉल रूपी संसार के स्थानीय देवता सार्वभौमिक सितारे की रोशनी में जैसे अपनी आभा खो चुके थे। 24 सितंबर 1977 के उस तीसरे पहर पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के ईडन गार्डेन में तकरीबन 75,000 की भीड़ उस 'श्यामल मोती' (ब्लैक पर्ल) की छटा अपनी आंखों में भर लेने और जिंदगी का एहसास भर लेने को उतावली थी कि अपने समकालीनों और और आने वाली पीढ़ियों को कह सकें कि हमने दुनिया के सबसे चमकते सितारे पेले को नंगी आंखों से देखा है। स्टेडियम के बाहर उससे भी ज्यादा लोग उस एहसास को मानो अपने जेहन में भर लेने को उतावले थे, जो नंगी आंखों से नहीं देख सकते थे। शायद दूरदर्शन पर पश्चिम बंगाल के हर कोने और देश के दूसरे हिस्सों के करोड़ों लोगों के लिए जैसे वह तिपहरी छोटे परदे पर आंखें गड़ाए ही गुजरी थी। अलबत्ता, मशहूर क्लब मोहन बागान के साथ न्यूयॉर्क कॉसमस के उस चैरिटी मैच में उनके अपने चोटी के सितारे श्याम थापा, हबीब, अकबर, सुभाष भौमिक, शिवाजी बनर्जी (गोलकीपर), प्रदीप, सुधीर कर्माकर, दिलीप पालित के साथ कॉसमस की ओर से कार्लोस अल्बर्टो जैसे बड़े सितारे भी थे। लेकिन पेले के मैदान में दिखते ही जैसे पेले-पेले की उठती-गिरती तरंगें पूरे स्टेडियम को आंदोलित कर रही थीं। स्टेडियम के भीतर और बाहर तुमुल ध्वनि से आकाश गूंज उठता था। हालांकि काफी पहले जर्सी उतार चुके पेले ज्यादा कुछ जादूगरी नहीं दिखा सके और शायद दो दिन की अच्छी बारिश से गीले मैदान में भी खेल कुछ जम नहीं पाया था। पेले के बीमा एजेंटों ने तो उनसे ऐसे मैदान में न उतरने की सिफारिश की थी, मगर पेले ने कहा कि इतने दर्शकों को निराश नहीं कर सकते।
पेले की दीवानगी तो यूं तो दुनिया भर में है लेकिन भारत और खासकर पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा जैसे फुटबॉल प्रेमी प्रदेशों में दीवानगी के आलम के क्या कहने। दरअसल, यह दीवानगी उस अप्रतिम प्रतिभा के प्रति अनोखी श्रद्घांजलि जैसी भी है, जिसने किशोरवय में ही अपने खेल, हुनर और जादुई प्रदर्शन से न सिर्फ दुनिया भर के लोगों को चमत्कृत कर दिया, बल्कि फुटबॉल को हमेशा के लिए बदल दिया। उन्होंने यूरोपीय खिलाड़ियों की तेजी, ताकत और ज्यामितीय खेल को ड्रिब्लिंग, वॉली, हाफ-वॉली, साइकिल किक जैसे हुनर से फुटबॉल को लैटिन अमेरिका के लिए ऐसा औजार बना दिया कि वह यूरोपीय दंभ को रौंदकर अपना परचम ऊंचा लहराए। ठीक उसी तरह जैसे मुक्केबाजी में कैसियस क्ले उर्फ मुहम्मद अली ने गोरों का घमंड चूर करना अपने जीवन का मकसद बना लिया था। कुछ वैसा ही जज्बा पेले ने लैटिन अमेरिका और यूरोप से इतर देशों में भर दिया। पेले के टीम में रहते ब्राजील ने तीन विश्व कप खिताब 1958, 1962 और 1970 का ऐसा रिकॉर्ड बनाया, जिसकी बराबरी संभव नहीं हो पाई। 1958 के विश्व कप में पेले महज 17 साल के थे और 1962 में उन्हें ऐसे टार्गेट किया गया कि चोटिल होने के कारण विश्व कप के ज्यादातर मैचों में खेल नहीं पाए। लेकिन उनका भरा जज्बा ब्राजील के खिलाड़ियों की जांबाजी का सबब बन गया।
ब्राजील के मीनस जेरायस में 23 अक्टूबर 1940 को एडसन अरांतेस डो नासिमेंटो नाम के साथ जन्मी इस लाजवाब प्रतिभा ने 82 वर्ष की उम्र में कैंसर से जूझते हुए 29 दिसंबर 2022 को दुनिया को अलविदा कह दिया। 2022 के विश्व कप में ब्राजील की टीम क्वार्टर फाइनल में बाहर हो गई तो उन्होंने टीम के सबसे चमकदार सितारे नेमार जूनियर को लिखा- 'हार न मानो, अभी आकाश खुला है।' कहते हैं, एडसन बचपन में अपने पिता की फुटबॉल टीम के गोलकीपर बिले को अपनी तोतली भाषा में पीले-पीले कहकर पुकारते थे। बस, लड़के उन्हें पेले कहकर चिढ़ाने लगे। बाद में यही नाम उन्हें दुनिया से परिचय का वाहक बन गया। उन्होंने जिस दस नंबर जर्सी को अपनी पहचान से जोड़ लिया, वह भी फुटबॉल प्रेमियों और यहां तक कि हर फुटबॉल सितारे के लिए पवित्र बन गई। माराडोना से लेकर आज मेस्सी और नेमार सभी इसी दस नंबर के कायल हैं। बाद के वर्षों में पीली जर्सी धारण करने वाले कई महान खिलाड़ी गरीचा, दीदी, जीको, रोमारियो, रोनाल्डो, रोनाल्डिनहो से लेकर नेमार जूनियर ने ब्राजील के खेल को अनोखी जादुई हुनर से नवाजा।
लेकिन पेले के रिकॉर्ड की बराबरी करना किसी के लिए संभव नहीं हो पाया। वे तीन बार विश्व कप खिताब जीतने वाली टीम के इकलौते खिलाड़ी हैं। वे ब्राजील के सबसे ज्यादा 95 गोल करने वाले इकलौते खिलाड़ी हैं। दूसरी राष्ट्रीय टीमों के साथ मैच में 77 सबसे ज्यादा गोल करने वाले भी इकलौते खिलाड़ी हैं। उनके करीब नेमार के 75 गोल और रोनाल्डो के 62 गोल हैं। पेले ने राष्ट्रीय टीम में 114 मैच खेले, जिसमें 92 पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय मैच थे। उनके गैर-आधिकारिक या कुछ छोटे 526 मैच में 1,283 गोल हैं। पेले 14 विश्व कप मैचों में 12 गोल किए।
बहरहाल, पेले इन रिकॉर्डों से भी बड़े इस मायने में हैं कि उन्होंने खेल का रंग-ढंग बदल दिया और जांबाजी की परिभाषा भी बदल दी। उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में 1970 के विश्व कप के फाइनल मैच में उतरने की भावना को कुछ इस तरह जाहिर किया था, “रात को सोने के समय एक अजीब तनाव तारी था, लगा कि नींद ही नहीं आएगी। लेकिन नींद आ गई और सुबह नींद खुली तो बहुत हल्का महसूस हो रहा था। शरीर इतना हल्का लग रहा था जैसे उड़ रहा हो। मैदान में उतरा तो ऐसी खुशी महसूस हो रही थी, जिसका एहसास पहले नहीं हुआ था। मुझे लग गया था कि हम जीतने जा रहे हैं।” वाकई यह एहसास अद्भुत है और साबित करता है कि दुनिया यूं ही उनकी दीवानी नहीं है। अलविदा अरबों दिलों के राजा!