सरकार अंग्रेजी राज की तरह “शासन” करने और “काबू” करने के लिए नहीं, लोकतांत्रिक देश में “सेवा” और “रक्षा” करने के लिए है। हाथरस में हुए दलित बच्ची के साथ जघन्य अपराध के सिलसिले में इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ पीठ की यह टिप्पणी जिले तथा राज्य की प्रशासनिक मशीनरी की भूमिका पर सिर्फ गंभीर सवाल ही खड़े नहीं करती, बल्कि उत्तर प्रदेश की सरकार की कार्यशैली को भी कठघरे में खड़ा करती है। हाइकोर्ट ने हाथरस के जिला मजिस्ट्रेट और कई पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई के आदेश दिए और कई उच्च अधिकारियों के बयानों पर भी सख्त टिप्पणी की।
हाथरस के चंदपा थाने के तहत बुलगढ़ी गांव के खेतों में घास काटते वक्त 14 सितंबर को गैंगरेप और बेतरह मारपीट की शिकार हुई 19 साल की दलित बच्ची ने 29 सितंबर को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया तो सारा देश इस हैवानियत से सन्न रह गया था। इन 15 दिनों में स्थानीय पुलिस-प्रशासन का रवैया लीपापोती और अपराधियों को बचाने का था ही, लेकिन लड़की की मृत्यु के बाद जैसी नाइंसाफी दिखाई गई, उससे तो मानो देश में लोगों के सब्र का बांध ही टूट गया। उसकी लाश परिजनों को उनकी गुहार के बावजूद नहीं दी गई, उन्हें घरों में बंद कर दिया गया और रात 2 से 3 बजे के बीच अंतिम संस्कार कर दिया गया। आरोप तो यह है कि पेट्रोल या किरासन तेल डालकर जला दिया गया। इस दहशतनाक घटना पर हाइकोर्ट के न्यायाधीश पंकज मित्तल और राजीव राय की पीठ ने स्वतः संज्ञान लिया था।
हाइकोर्ट ने पुलिस के बलात्कार न होने के दावे और शव के जबरन अंतिम संस्कार को “पीड़िता और उसके परिवार के मानवाधिकारों का प्रथमदृष्टया सरासर उल्लंघन” माना। दरअसल राज्य के एडीजी (कानून-व्यवस्था) प्रशांत कुमार ने बयान दिया था कि फॉरेंसिक जांच में बलात्कार के सबूत नहीं मिले हैं। जांच के लिए नमूने घटना के हफ्ते भर से ज्यादा बाद लिए गए थे और डॉक्टरों के मुताबिक तीन-चार दिन बाद नमूनों से कुछ नहीं पता चलता। जाहिर है, लापरवाहियां या जानबूझकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश शुरू से ही हुई थी। 14 सितंबर को पुलिस ने पीड़िता के बयान को संज्ञान में नहीं लिया। आखिर 22 सितंबर को अलीगढ़ के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में उसके बयान के बाद आरोपियों की गिरफ्तारियां हुई थीं।
यही नहीं, आरोप इलाज में लापरवाही के भी हैं। पीड़िता की तबीयत बिगड़ने के बाद एक दिन पहले ही सफदरजंग अस्पताल लाया गया था जबकि उसकी जीभ कटी हुई थी और रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट थी। उसका गला घोंटने की भी कोशिश हुई थी। तो, क्या यह असंवेदनशीलता इसलिए थी कि पीड़िता और पीड़ित परिवार गरीब और दलित है? हाइकोर्ट ने अपने आदेश के पहले राज्य के अधिकारियों से यह भी पूछा था कि क्या कोई अमीर और रसूखदार होता तब भी प्रशासन का यही रवैया होता।
प्रशासन ने यही नहीं किया, जब पूरे देश का ध्यान इस घटना की ओर गया और प्रेस तथा विपक्षी नेताओं ने वहां पहुंचने की कोशिश की तो उन्हें रोकने के पुलिसिया इंतजाम ऐसे किए गए, मानो कोई युद्घ हो रहा हो। पीड़िता के घर की घेरेबंदी कर दी गई। कई दिनों तक प्रेसवालों को बातचीत नहीं करने दिया गया। इसके उलट गांव की ऊंची जातियों के टोले में आरोपियों के पक्ष में महापंचायत चलती रहा। जिला मजिस्ट्रेट पीड़िता के पिता को चेताते वीडियो में कैद हुए कि बयान देने में सतर्कता बरतें, वरना हम भी बदल सकते हैं। दरअसल सरकार ने पीड़ित परिवार को 25 लाख रुपये देने और एक शख्स को नौकरी देने का ऐलान भी किया। इलाके के भाजपा सांसद राजवीर दिलेर एक वीडियो क्लिप में यह कहते भी पाए गए कि मामला सुलटा लिया गया है।
विपक्षी नेताओं को जाने से रोकना राज्य सरकार के लिए भारी बन गया। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को पहली कोशिश में नहीं जाने दिया गया, लेकिन होहल्ला बढ़ने पर उन्हें जाने की इजाजत दी गई। भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद को भी काफी जद्दोजहद के बाद वहां जाने की इजाजत मिली। आप के संजय सिंह पर पुलिस की मौजूदगी में स्याही फेंकी गई। सपा और रालोद के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पुलिस की लाठियां खानी पड़ीं। लाठियों से रालोद के महासचिव जयंत चौधरी भी नहीं बच पाए।
उधर, सरकार जब चारों तरफ से घिरने लगी तो मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य में जातिगत और सांप्रदायिक दंगे भड़काने की अंतरराष्ट्रीय साजिश के सबूत मिले हैं, जिसके तार पीएफआइ से जुड़े हैं। पुलिस ने चंदपा थाने और राज्य के दूसरे इलाकों के थानों में करीब 17 एफआइआर दर्ज की हैं। इस सिलसिले में केरल के एक पत्रकार सहित चार लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया है। पुलिस का आरोप यह भी है कि इसके लिए 100 करोड़ रुपये की राशि बाहरी देशों से आई है, लेकिन ईडी की प्रारंभिक जांच में ऐसा कुछ नहीं मिला है।
बहरहाल, राज्य सरकार और भाजपा के लिए इससे नई राजनैतिक चुनौती भी खड़ी हो गई है। उसके अपने दलित विधायकों और सांसदों में भी रोष बढ़ता जा रहा है और जयंत चौधरी की मुजफ्फरनगर, मथुरा वगैरह में महापंचायतों में उमड़ी भीड़ भी चिंता का सबब है। जयंत के मंच पर कांग्रेस और सपा की भी शिरकत से विपक्ष की एकजुटता का संदेश मिल रहा है। इसमें सिर्फ बसपा की नेता मायावती की चुप्पी जरूर कुछ रहस्यमय है। लेकिन राज्य में विधानसभा चुनावों में डेढ़ साल से भी कम समय है, इसलिए भाजपा के लिए चुनौती बड़ी है। सवाल यह भी है कि क्या दलित होना अभिशाप बन गया है।
ठोको लाठी शास्त्र
जयंत चौधरी
हमारे औपनिवेशिक अतीत से लेकर आज के भारत तक, स्वतंत्रता सेनानी, नेता, एक्टिविस्ट, आम आदमी, लेखक, स्तंभकार का कभी न कभी हर मर्ज की दवा ‘लाठी’ से आमना-सामना हुआ है। लाठी शक्ति का रूप है, जो ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ मुहावरे से उपजा है और जो सांकेतिक रूप से बेंत के रूप में भी जरूरतमदों को सहयोग देती है।
हाल ही में मैं बहुमुखी लाठी की जद में आया जब मैं हाथरस के बुलगढ़ी गांव गया था, जहां आरोप है कि चार उच्च जाति के लड़कों ने 19 साल की दलित लड़की के साथ बलात्कार किया, जिसके बाद अपने जख्मों से लड़ते हुए वह जिंदगी से हार गई।
बहुमत के दंभ पर सवार सरकार ने नागरिक कार्यकर्ता के नाते भी हमें अपने मूल कर्तव्य को निभाने से रोकने के लिए जबर्दस्त बंदोबस्त किया था। सरकार का ज्यादातर वक्त राजनैतिक विरोधियों के दमन में ही गुजरता है। तो, वहां शोषित और वंचितों के साथ खड़े होने का मतलब है, जबर्दस्त डर का सामना! स्थानीय अधिकारी मुझे भीड़ को रोकने के लिए बनाए गए बैरीकेड के पास ले गए और जैसे ही एक महिला पत्रकार ने मेरा इंटरव्यू शुरू किया, लाठियों की बरसात शुरू हो गई। चंद सेकंड में ही उत्तर प्रदेश की ‘ठोको’ पुलिस ने खुद को गौरवान्वित किया, जैसा अब एक वायरल वीडियो में देखा जा सकता है। उन्होंने हमें घेरा और धोनी के हेलीकॉप्टर शॉट की शानदार छाप हम पर छोड़ने लगे। मथुरा का एक युवा अभी तक सिर की चोट के कारण अस्पताल में भर्ती है।
जब हम पर अंधाधुंध लाठियां बरसाई जा रही थीं, उस पल पुलिसवालों को दार्शनिक संदेश देने और उन्हें गरिमा की याद दिलाने का समय नहीं था। उस वक्त आगे की लड़ाई लड़ने के लिए खुद को और अपने आसपास के दूसरे लोगों को बचाना जरूरी था। यहां तक कि एक पखवाड़े बाद देश जब राज्य की इस क्रूर छवि से आगे बढ़ गया और ऊर्जा, ऑक्सीजन और पानी देने वाली थ्री इन वन टर्बाइन के अभिनव प्रयोग पर चर्चा करने लगा, मैं ऐसा नहीं कर पाया। शायद वजह लाठियों से दिमाग की झनझनाहट हो, लेकिन मैं अपने दिमाग से उन तीन मसलों को नहीं झटक सकता, जो हम भारत के लोगों को झुकने पर मजबूर कर रहे हैं, भले इंडिया के लोग ऐसा न महसूस करते हों।
एक तो, शोषण और अत्याचार-अनाचार के दायरे में जाति भेदभाव और स्त्री होने का अभिशाप है। दरअसल स्त्रियां ही हमेशा सबसे घृणित अपराधों का लक्ष्य होती हैं। हाथरस में जो हुआ, वही इसी हकीकत का इजहार है। दुखद यह भी है कि हाथरस के मुकाबले भीषण या उससे भी अधिक घिनौने अनगिनत मामले हमारे आसपास हर समय होते रहते हैं।
दूसरे, औपनिवेशिक सत्ता का दमनकारी प्रतीक लाठी अब भी अपने ही नागरिकों के खिलाफ आधुनिक राज्य का पसंदीदा हथियार बना हुआ है। सत्ता में बैठे लोग विरोधियों को दबाने के लिए बातचीत करने या भीड़ को नियंत्रित करने के तरीकों के बजाय अंधाधुंध लाठी का इस्तेमाल करते हैं। हम हिंसा के प्रति जैसे चेतन-शून्य हो गए हैं और पुलिसिया लाठी के आदी हो गए हैं। यह कहना कोई गुस्सा नहीं जगाता कि हमने लाठी खाई है। अक्सर ‘पिटने’ के बाद यह वाक्य गर्व की तरह बोला जाता है। इससे तो अत्याचारियों को शह ही मिलती है। चाहे महामारी के डर से शहरों से पलायन करने वाला मजदूर हो, फसल की अच्छी कीमत के लिए आंदोलन करने वाले किसान हों या विपक्षी नेता, पुलिस के लाठी-डंडों से कभी दूर नहीं होते। मुझ पर हुए लाठीचार्ज को मैं न केवल अनैतिक बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस के मैनुअल का उल्लंघन भी कहता हूं, जो कहता है कि बल प्रयोग तभी हो सकता है, जब भीड़ ‘लाठीचार्ज करने के इरादे की स्पष्ट चेतावनी’ के बावजूद तितर-बितर होने से मना करे। ऐसे में, राज्य सरकार राज्य पुलिस में हिंसा की संस्कृति को संस्थागत रूप दे रही है। मेरे दादा चौधरी चरण सिंह ने 1977 में देश का पहला पुलिस आयोग बनाया था और 43 साल बाद भी हम एक विश्वसनीय, प्रभावी और संवेदनशील पुलिस बनाने के लिए सुधारों की आवश्यकता पर बहस कर रहे हैं।
तीसरे, कब किसानों की लाठी अत्याचार का प्रतीक बन गई? किसानों के लिए लाठी परंपरा से विरोध या सामाजिक शक्ति का प्रतीक रही है, चाहे वह खेतिहर हो या हाथरस के परिवार जैसा खेतिहर मजदूर। बुजुर्गों के लिए यह सहारा है। शक्तिहीन के लिए यह जानवरों से बचने का हथियार रहा है। आज जब लाठी राज्य की ताकत बन गई है, इनमें से हर लाठी विराम ले चुकी है।
(रालोद उपाध्यक्ष की आपबीती)