संविधान को 2024 के संसदीय चुनावों ने राजनीति का केंद्र-बिन्दु बना दिया है। यूं तो संविधान और व्यावहारिक राजनीति के बीच हमेशा से ही एक रिश्ता रहा है, लेकिन इस बार संविधान राजनीतिक उपयोगिता की विषय-वस्तु बनने के बजाय स्वयं में एक सशक्त राजनीतिक विचार बन कर उभरा है।
भाजपा ने संविधान को पवित्र पुस्तक की तरह पेश किया ताकि विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस की सियासी साख पर उंगली उठाई जा सके। दूसरी ओर विपक्ष ने संविधान के मूल्यों और आदर्शों को मुद्दा बना कर भाजपा की केंद्रीकरण की राजनीति पर सवाल उठाए। मेरी राय में संविधान की ये विरोधाभासी व्याख्याएं व्यापक राजनैतिक आम सहमति से उपजी हैं। समूची राजनैतिक बिरादरी संविधान को राजनैतिक प्रेरणा का स्रोत मानती है। इस बात पर भी सहमति है कि संविधान का अक्षरशः पालन होना चाहिए और उसकी भावना का खयाल रखा जाना चाहिए। यहां तक कि इस महान कानूनी ग्रंथ के रचयिता राष्ट्र-नायकों (नेहरू को छोड़कर!) पर भी कोई असहमति नहीं है।
फिर भी, संविधान की गंभीर राजनीति की ओर कदम बढ़ाने की कोई दिलचस्पी नहीं दिखती है। राजनैतिक दलों की दिलचस्पी संविधान को लेकर बयानबाजी में अधिक है। वे इसके जरिये एक-दूसरे को नीचा दिखाने या चुनावी होड़ के बाजार में खुद को जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। समाज के गहरे लोकतांत्रिक बदलाव का विचार उन्हें बिल्कुल भी नहीं भाता है। रचनात्मक राजनीति में दिलचस्पी के इस विचित्र अभाव को हम आजादी के बाद के दौर में भारतीय संविधान के राजनैतिक सफर पर एक नजर डालने से समझ सकते हैं।
गौरतलब है कि आजादी के बाद शुरुआती दशकों में संविधान बस पूजा-अर्चना की वस्तु नहीं था। उसे हमेशा देश की राजनीति और समाज के कायाकल्प के लिए एक कानूनी-राजनैतिक व्यवस्था की तरह देखा गया। दरअसल, देश में लोकतंत्र की आम दशा-दिशा का व्यापक संवैधानिक अवधारणाओं के नजरिये से आलोचनात्मक मूल्यांकन के कुछ गंभीर प्रयास भी हुए।
इसकी एक बेहतरीन मिसाल जयप्रकाश नारायण की प्रसिद्ध किताब ए प्ली फॉर द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ द इंडियन पॉलिटी (1959) है। किताब में यह साफ-साफ है कि भारत के लिए नया संविधान लिखने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बजाय, जयप्रकाश नारायण मौजूदा संस्थागत तंत्र और उससे जुड़ी समस्याओं पर नए सिरे से नजर डालने के लिए कुछ व्यापक विचारों की रूपरेखा पेश करते हैं।
संविधान के लंबे सफर में इमरजेंसी का दौर (1975-77) एक और महत्वपूर्ण मोड़ था। इंदिरा गांधी की सरकार ने इमरजेंसी को मोटे तौर पर लोकतंत्र की स्थिरता के नाम पर जायज ठहराया था। कांग्रेस की इस राजनीति में संविधान एक कानूनी हथियार था ताकि इमरजेंसी के घोषित उद्देश्य को वैधता मिल सके।
यही वजह थी कि इमरजेंसी विरोधी ताकतों और नागरिक स्वतंत्रता समूहों ने इंदिरा सरकार के विरोध में नैतिक-राजनैतिक मूल्यों के सवाल उठाए। खासकर केंद्र की कार्यपालक शक्तियों के मामले में संवैधानिक प्रावधानों की सीमाओं को पहचाना गया और लोकतंत्र के अधिक व्यापक करने पर विचार किया गया। एक तरह से, संविधान का 44वां संशोधन इन गंभीर विचारों का ही नतीजा था।
संवैधानिक सिद्धांतों के साथ इस महत्वपूर्ण राजनैतिक जुड़ाव से 1970 और 1980 के दशक में जमीनी राजनीति में एक नया क्रांतिकारी बदलाव आया। पर्यावरण संरक्षण के लिए जनांदोलन, जबरन विस्थापन के खिलाफ आंदोलन, दलितों की बुलंद आवाज और जल, जंगल, जमीन के लिए आदिवासी आंदोलनों ने मौलिक अधिकारों के राजनैतिक मूल्य को पहचाना। इन आंदोलनों ने देश की हकीकतों और स्थानीय परंपराओं से बौद्धिक प्रेरणा प्राप्त की और देश के संविधान को एक नया क्रांतिकारी दर्जा दिया।
संविधान की इस सक्रिय राजनीति के ज्वलंत उदाहरण सरदार सरोवर बांध के खिलाफ नर्मदा बचाओ आंदोलन और 1980 के दशक में आदिवासियों के नेतृत्व में चला छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का मजदूर आंदोलन है।
दरअसल, 1990 के दशक की शुरुआत में हुए महत्वपूर्ण आर्थिक-राजनैतिक बदलाव से संविधान को पूजा की वस्तु कहने का दौर शुरू हुआ। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और कल्याणकारी राज्य के कथित पतन से राजनैतिक वैधता का गंभीर संकट खड़ा हुआ। राजनैतिक दलों पर काफी दबाव था। उन्हें वैश्वीकरण को मंजूर करना था, लेकिन यह दावा नहीं छोड़ना था कि उनकी राजनीति जनसेवा है, जिसका मतलब कल्याणकारी राज्य से है। उन्हें सामाजिक परिवर्तन के पैरोकार की अपनी भूमिका को उचित ठहराना था, जो दायित्व उन्हें संविधान देता है।
इस पृष्ठभूमि में राजनैतिक वर्ग ने संविधान की एक नई व्याख्या खोज निकाली और संविधान को उत्सव मनाने और राजनीतिक पूजा-अर्चना की वस्तु में बदल दिया गया। सामाजिक बदलाव पर संवैधानिक जोर की जगह सामाजिक समावेश का नया मुहावरा ढूंढ लाया गया। भारतीय लोकतंत्र का जयकारा लगाना नया राजनैतिक मंत्र बन गया। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव और उनमें लोगों की बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी अंततः संविधान की स्थायी सफलता के प्रमाण के रूप में पेश की जाने लगी।
संविधान की औपचारिक पूजा-अर्चना से नई राजनीतिक सामान्य समझ पैदा हुई कि संविधान अराजनैतिक है, एक पवित्र पुस्तक या लोकतंत्र का चार्टर है, जिसका सामाजिक बदलाव की व्यापक राजनीति से लेना-देना नहीं है।
राजनीति और संविधान के बीच इस कथित अलगाव को स्वीकार कर लिया गया। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक पोस्टर जारी किया था जिसका शीर्षक था राजनीति नहीं काजनीति। दिलचस्प यह है कि भाजपा भी राजनीति के इस नजरिये को लगभग ज्यों का त्यों स्वीकार करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2021 मे उत्तर प्रदेश की एक रैली में कहा था कि, ‘‘इन्फ्रास्ट्रक्चर हमारे लिए ‘राजनीति’ का नहीं, बल्कि राष्ट्रनीति का हिस्सा है।’’
इसका सीधा-सा मतलब है कि राजनीतिक वर्ग राजनीति को एक नकारात्मक गतिविधि मानता है। राजनीति के बारे में यह नकारात्मक नजरिया संविधान को बेमानी करता है।
हमारा संविधान एक पवित्र ग्रंथ नहीं है बल्कि वह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की सकारात्मक राजनीति से उभरा राजनीतिक दस्तावेज है। हमें यह आशा करनी चाहिए कि संविधान-केंद्रित राजनीति की जो बहस 2024 के चुनावों से शुरू हुई है, वह शायद राजनीति के सकारात्मक अर्थों को दोबारा स्थापित करने में मदद करेगी।
संविधान सभा की बहसों से...
मैं ऐसा नहीं सोचता कि हम वर्तमान भारत को ऋगवेद काल का भारत बना सकते हैं, लेकिन यह बात स्वीकार करते हुए भी मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि हमें अपने आद्य इतिहास की धरोहर- सभ्यता और संस्कृति की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। हमें आधुनिक विश्व की वे सब चीजें अपनानी चाहिए जिनसे हमारी जरूरतें पूरी होती हैं। आधुनिक भारत का निर्माण इस तरह किया जाना चाहिए कि हमारी संस्कृति और सभ्यता अक्षुण्ण रहे
गोविंद दास
(सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) में एसिस्टेंट प्रोफेसर) (विचार निजी हैं)