आइएएस टॉपर के नाते मशहूर हुए शाह फैसल ने 17 मार्च को श्रीनगर में नई राजनैतिक पार्टी ‘जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट’ के साथ अपनी सियासी पारी शुरू की, तो कुछ तल्खी को भी न्योता दे बैठे। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने इसे 1999 की पुनरावृत्ति बताया। एनसी उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला के राजनैतिक सलाहकार तनवीर सादिक ने फैसल पर आरोप लगाते हुए कहा, “ठीक 20 साल पहले 1999 में एक पार्टी का गठन नेशनल कॉन्फ्रेंस के विरोध में तब किया गया था, जब उसने विधानसभा में स्वायत्तता रिपोर्ट रखी थी और अब आज फिर वैसे ही प्रयास हो रहे हैं।” सादिक 1999 में बनी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की बात कर रहे थे। एनसी नेतृत्व हमेशा से आरोप लगाता रहा है कि पीडीपी नई दिल्ली की उपज है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में 1953 की स्थिति बहाल करने की मांग करने वाला स्वायत्तता प्रस्ताव विधानसभा से पारित होने के बाद इसका गठन किया गया था।
हालांकि फैसल आरोपों से अचंभित नहीं हैं। नए राजनैतिक दल की शुरुआत के मौके पर श्रीनगर में लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जब उन्होंने सरकारी सेवा से इस्तीफा दिया तो कई दल उन्हें साथ लाने के लिए लोकसभा चुनाव का टिकट देने को तैयार थे। वे कहते हैं, “जब मैंने खुद की पार्टी बनाई तो वे मुझे एजेंट बता रहे हैं। मैंने इस्तीफा तब दिया जब मेरी नौकरी के 25 साल बचे थे। मैंने एजेंट बनने के लिए नौकरी नहीं छोड़ी।” उनकी सभा में मौजूद कुछ युवा कौतूहलवश आए थे, जबकि दूसरों को उनसे उम्मीद थी। भाजपा की 16 मार्च की सभा में मौजूद लोग कैमरों से अपना चेहरा छिपा रहे थे, जबकि शाह फैसल की सभा में मौजूद भीड़ आश्वस्त और मुखर थी।
उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा से रैली में पहुंचे युवा वकील मीर आजाद का कहना है कि पारंपरिक राजनैतिक दलों ने कश्मीर के लिए कुछ नहीं किया। वे बताते हैं, “शाह फैसल पढ़े-लिखे हैं और प्रतिष्ठित पद छोड़कर राजनीति में आए हैं। यह काफी मायने रखता है, खासकर युवाओं के लिए और उन्हें इस पार्टी में उम्मीद दिख रही।” बॉयो-केमिस्ट्री में पीएचडी कर रहे कुपवाड़ा जिले के रईस अहमद ने कभी वोट नहीं डाला। वे कहते हैं, “शाह फैसल चुनाव लड़ते हैं तो मैं वोट दूंगा।” उनके मुताबिक, फैसल समाज के वंचित तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं और सत्ता के लिए राजनीति में नहीं आए हैं।
सरकारी नौकरी छोड़ राजनीति में आने के फैसल के फैसले ने युवाओं में उम्मीद जगाई है और कई उन्हें यूथ आइकन के तौर पर देखते हैं। राजनीति में उनका उतरना पीडीपी की कमजोरी से पैदा हुए राजनैतिक शून्य को भरने की कोशिश भर नहीं है। पीडीपी जम्मू-कश्मीर में ढाई साल भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने के दौरान मानवाधिकार उल्लंघनों और कश्मीर के संवैधानिक विशेषाधिकारों को कमजोर करने की वजह से निशाने पर है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी दोनों से निराश तबका फैसल में विकल्प देख रहा है। लेकिन, घाटी में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो मानते हैं कि फैसल वोटों का बंटवारा कर राज्य में कश्मीरियों का वजूद और कमजोर करेंगे। सादिक कहते हैं, “जम्मू-कश्मीर का राजनैतिक इतिहास राज्य का विशेष दर्जा छीनने के लिए नई दिल्ली की तरफ से किए गए कई छद्म प्रयासों का गवाह है। आज भी हालात अलग नहीं हैं। हमें बांटकर सहूलियत पैदा करने के लिए एक नई पार्टी खड़ी की गई है। इससे सावधान रहें।”
दशकों से कश्मीर की सियासत उसके राजनैतिक मसलों और उनके हल के तलाश के इर्द-गिर्द घूमती रही है। जो भी पार्टी “कश्मीर मुद्दे के समाधान” की राजनीति को खारिज करती है, घाटी में पैर नहीं जमा पाती। नेशनल कॉन्फ्रेंस लगातार अपने नारों में स्वायत्तता बहाली की बात करती रही है। पीडीपी का रुख शुरू से ही नरमपंथी अलगाववादियों जैसा रहा है। हालांकि पीडीपी ने भाजपा के साथ गठबंधन के दौरान ऐसे मुद्दों को कुछ ठंडे बस्ते में रख दिया था। वह गठबंधन टूटते ही फिर उसी राह पर लौट आई है। अब वह खुद को एक मुस्लिम पार्टी की तरह पेश कर रही है और उसे उम्मीद है कि मुस्लिम बहुल राज्य में लंबे समय में उसे इसका फायदा होगा। जम्मू-कश्मीर की रक्तरंजित सियासत में पीडीपी मुख्यधारा में रहकर भी अलगाववादी राजनीति को हवा देने में माहिर रही है। इसके उलट नेशनल कॉन्फ्रेंस मंझधार में फंसी है, क्योंकि उसका नेतृत्व स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्ष सियासत में यकीन रखता है। सज्जाद गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस काडर आधारित पार्टी है और भाजपा से गठबंधन के बावजूद पिछले कुछ महीनों से वह जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को महफूज रखने जैसे मसलों को उठा रही है।
कश्मीर की राजनैतिक समस्या को केंद्र में रखने की जरूरत को महसूस करते हुए फैसल ने अपनी पार्टी के 29 सूत्री एजेंडे में “जम्मू-कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं के अनुसार कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण सामधान” को सबसे ऊपर रखा है। मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार राज्य का विशेष दर्जा बनाए रखने की बात कहते हुए उनकी पार्टी जम्मू-कश्मीर का पुनर्निर्माण धार्मिक, जातीय, भाषाई और भौगोलिक विविधता वाले समावेशी बहुलतावादी समाज के रूप में करने का वादा भी कर रही है। फैसल पहले दिन से भ्रष्टाचार खत्म करने पर जोर दे रहे हैं, लेकिन विश्लेषक इसे बेमानी मानते हैं। उनका कहना है कि 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद उनकी जगह प्रधानमंत्री बने बख्शी गुलाम मोहम्मद के जमाने से ही कुछ हद तक भ्रष्टाचार स्वीकार्य है। एक विश्लेषक ने बताया, “असल में भ्रष्टाचार को दिल्ली से बढ़ावा मिलता है।”
फैसल का मजबूत पक्ष यह है कि वे खानदानी राजनीति से नहीं आते और न ही विरासत का बोझ उनके कंधों पर है। ऐसे में पहले से ही कई दलों और नेताओं में बंटी राज्य की चुनावी सियासत में वे खुद को कैसे स्थापित करते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। फैसल के अनुसार, किसी क्षेत्रीय दल में शामिल होने का उनका शुरुआती फैसला लोगों को नहीं भाया था। उन्होंने बताया, “लोगों ने मेरा विरोध किया। मुख्य राजनैतिक दलों ने राज्य की सत्ता में रहते हुए जो कुछ किया उसकी वजह से वे लोग नहीं चाहते कि मैं सियासत में उतरूं। मैं उनके विरोध का शुक्रगुजार हूं।” वे कहते हैं, “हर नए विचार का विरोध होता है और मैं हर आलोचना और विरोध के लिए तैयार हूं।”
उनके साथ छात्र नेता शहला रशीद शोरा और कारोबारी फिरोज पीरजादा भी मंच पर थे। शहला जोर देकर कहती हैं कि लोगों का सशक्तीकरण उनकी पार्टी की शीर्ष प्राथमिकता होगी। वे कहती हैं, “यह राजनैतिक दल नहीं, बल्कि आंदोलन है। मुझे उम्मीद है कि लोग हमारे साथ जुड़ेंगे।” उन्होंने बताया कि उनकी कोई पारिवारिक विरासत नहीं है और वे छात्र राजनीति से आई हैं। उनका कहना है, “हमारी पार्टी कश्मीर में छात्र राजनीति को बढ़ावा देगी और इसके लिए संघर्ष करेगी।”
लेकिन, क्या फिरोज पीरजादा के साथ रहकर शाह फैसल की पार्टी परंपरागत दलों को चुनौती दे पाएगी, जिनके पास 4,000 करोड़ रुपये की संपत्ति होने की बात कही जा रही है? क्या उनकी पार्टी कारोबारियों, छात्रों और आम लोगों को लुभा पाएगी? अगले कुछ महीनों में ही साफ हो पाएगा।