इस समय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सबसे खस्ताहाल कृषि क्षेत्र का है। वह भी तब जब सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। यह बात अलग है कि लक्ष्य घोषित करने के बाद हालात और खराब हुए हैं। मसलन, चालू साल की पहली तिमाही में कृषि और सहयोगी क्षेत्र की विकास दर घटकर 2.7 फीसदी रह गई। दूसरे, खरीफ फसलों का उत्पादन गिरने से साफ है कि इस साल विकास दर में सुधार की गुंजाइश काफी कम है। दरअसल, सरकार के दावों और उसके फैसलों में काफी विरोधाभास है। फैसलों में कृषि मंत्रालय के दखल की कमी भी साफ झलकती है।
सबसे पहले एक ताजा फैसले की चर्चा करते हैं। वित्त मंत्री ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया कि बैंकों से एक साल में एक करोड़ रुपये से अधिक नकदी निकालने पर लगने वाला दो फीसदी टीडीएस एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) के ट्रांजेक्शन पर नहीं लगेगा। चालू साल के बजट में घोषित यह नियम एक सितंबर से ही लागू हुआ है। अब दो सवाल पैदा होते हैं। पहला यह कि क्या बजट के समय किसानों को होने वाले भुगतान की पहले से चल रही समस्या पर ध्यान दिया गया था? क्या कृषि मंत्रालय ने वित्त मंत्री के सामने अपनी राय रखी थी? अगर रखी होती तो जो छूट अब घोषित की गई है, उसका प्रावधान बजट में ही किया जाता। लगता है कि इस मसले पर कृषि मंत्रालय के साथ चर्चा ही नहीं हुई और वित्त मंत्रालय ने अपनी समझ का उपयोग करते हुए यह घोषणा की और अब ढील दी गई है। दूसरी बड़ी बात यह है कि नकद निकासी के समय यह कैसे तय होगा कि उसका उपयोग एपीएमसी में किसानों को भुगतान के लिए किया जाएगा। इसलिए यह कदम भी अव्यावहारिक है।
नोटबंदी के बाद तय किया गया था कि कोई भी खरीदार कृषि उपज के लिए केवल दस हजार रुपये तक की नकदी दे सकेगा। इससे अधिक राशि का भुगतान चेक से होगा या सीधे बैंक खाते में पैसा डाला जाएगा। नतीजा यह हुआ कि किसानों को उपज की कीमत मिलने में 10 से 15 दिन लगने लगे। आढ़ती या कृषि जिन्स के खरीदार पहले आरटीजीएस फार्म भरते हैं, बाद में एक साथ वह फार्म बैंक में जमा करते हैं। बैंक कोऑपरेटिव है या छोटे कस्बे या गांव में है, तो ऑनलाइन ट्रांसफर में कई दिक्कतें आती हैं। ऐसे में किसानों को समय से पैसा मिलना मुश्किल है। बाद में वही पैसा लेने किसानों को बैंक जाना पड़ता है। यह सिलसिला अभी तक जारी है और नकदी पर टीडीएस के प्रावधान से दिक्कतें और बढ़ गईं। इसलिए आधी-अधूरी राहत से पूरा फायदा नहीं मिलेगा।
खरीफ फसलों का मार्केटिंग सीजन शुरू हो रहा है और किसान इन्हें एक साथ मंडी में बेचता है। कुछ राज्यों में गन्ने का भुगतान सीधे बैंक में करने की व्यवस्था कारगर रही है, क्योंकि यह भुगतान गन्ना कटाई के पूरे सीजन चलता है और एकमुश्त नहीं होता। हालांकि अब यहां भी अधिकांश राज्यों में किसानों को पिछले सीजन के गन्ने के बड़े हिस्से के भुगतान के लिए अगले सीजन तक इंतजार करना पड़ रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का सात हजार करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है, जबकि नया सीजन शुरू होने में करीब दस दिन ही बचे हैं।
एक बड़ा मुद्दा कृषि उत्पादों के आयात और निर्यात का है। प्याज के दाम में थोड़ा इजाफा होते ही सरकार ने पहले तो इसके न्यूनतम निर्यात मूल्य में बढ़ोतरी कर निर्यात की व्यवहार्यता समाप्त कर दी। इसके बाद सरकारी कंपनी एमएमटीसी ने प्याज आयात का टेंडर जारी कर दिया। इसमें पाकिस्तान से भी आयात की छूट थी, लेकिन मामले के राजनीतिक रंग लेने के चलते पाकिस्तान को सूची से बाहर कर दिया गया। पर इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि जब खरीफ की प्याज बाजार में आने वाली है तो आयात की अनुमति देकर सीधे देश के किसानों के हितों पर चोट क्यों की गई। यही वह मौका है जहां कृषि मंत्रालय को किसानों के साथ खड़े होने की जरूरत थी, लेकिन वहां से इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। असल में कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात की ऑन ऐंड ऑफ पॉलिसी का किसानों को भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है। इसके लिए कोई दीर्घकालिक नीति नहीं है और न ही किसानों की राय ली जाती है। दालों के मामले में करीब-करीब आत्मनिर्भर होने के बाद एक बार फिर दालों के बड़े आयात की तैयारी हो रही है। बेहतर होगा कि इन मसलों पर कृषि मंत्रालय की सक्रियता किसानों के हित में दिखे, तभी तो किसानों की आय दोगुनी करने की दिशा में काम बढ़ता दिखेगा अन्यथा यह एक खयाली पुलाव ही बना रहेगा।