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गढ़ ढहा पर जमीन बाकी

भाजपा के जनाधार वाले सबसे अहम प्रदेश में कांग्रेस ने पलटी बाजी मगर शिवराज ने बचाई लाज
नई चुनौतीः नतीजों के बाद एकजुटता दिखाते सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह तथा अन्य नेता

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की 15 साल बाद सत्ता में वापसी तो हुई, लेकिन धमाकेदार नहीं रही। वह शिवराज सिंह चौहान की जमीन साफ नहीं कर पाई। किसानों की दो लाख रुपये तक की कर्जमाफी और एससी-एसटी एक्ट में बदलाव से नाराज सामान्य वर्ग का फायदा कांग्रेस को मिलने के बाद भी वह भाजपा को पूरी तरह से रोक नहीं सकी। दोनों को 41-41 फीसदी वोट मिले। 114 सीटें लेकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन गई। 109 सीटों के साथ भाजपा भी ताल ठोकती रहेगी। एंटी इंकंबेंसी और बदलाव की लहर में भाजपा के कई मंत्री और विधायक धराशायी हो गए। शिवराज मंत्रिमंडल के 13 मंत्री और दोनों दलों के 70 से अधिक विधायक हार गए। इससे साफ है कि जनता ने दल से ज्यादा प्रत्याशियों को तवज्जो दी। इसके कारण आखिरी वक्त तक कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर बनी रही।

कांग्रेस को किसानों, युवाओं, कर्मचारियों, व्यापारियों और सामान्य वर्ग का साथ मिला। कांग्रेस ने गांवों में कर्जमाफी का वादा करके 30 और शहरों में बेरोजगारी का मुद्दा उठाकर 33 सीटें बढ़ा लीं। उसे मालवा-निमाड़, मध्य क्षेत्र, ग्वालियर-चंबल, महाकौशल और बुंदेलखंड में बढ़त मिली, लेकिन बिंध्य क्षेत्र में पीछे हो गई। उस इलाके में 2013 जितनी सीटें भी जीत नहीं सकी। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का हारना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। विंध्य क्षेत्र में एससी-एसटी एक्ट में संशोधन को लेकर लोग ज्यादा खफा रहे। यहां लोगों ने सिर मुंडवाकर और शिवराज की गाड़ी पर पथराव करके विरोध भी जताया था। फिर भी विंध्य की 30 में से 24 सीटें भाजपा जीत गई। कांग्रेस की सीटें 11 से घटकर छह हो गईं। कांग्रेस 20 सीटें जीतने की उम्मीद कर रही थी।

विंध्य में सफलता मिल जाती तो फिर उसे स्पष्ट बहुमत मिल जाता। भाजपा को शहरों में बड़ा नुकसान हुआ। इस बार नौ नेताओं की हार-जीत का अंतर नोटा में पड़े वोटों से भी कम रहा। बड़े नामों को हराने के लिए नोटा का उपयोग बढ़ रहा है। पिछले चुनाव में ऐसे पांच बड़े नेता थे, जिनकी हार-जीत के अंतर से नोटा वोट ज्यादा थे।

मंदसौर में किसानों पर पुलिस गोलीकांड के बाद जिस तरह शिवराज सरकार के खिलाफ माहौल बना था, वह चुनावी नतीजों में कांग्रेस के पक्ष में नहीं दिखाई दिया। मंदसौर से भाजपा प्रत्याशी यशपाल सिंह सिसोदिया ने इस बार भी जीत का रिकॉर्ड कायम रखा। गोलीकांड स्थल मल्हारगढ़ में भी भाजपा करीब 11 हजार वोटों से जीत गई। कांग्रेस प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता का कहना है कि विंध्य और मंदसौर क्षेत्र में पार्टी की हार की समीक्षा की जाएगी। इन्हीं इलाकों से राज्य की भाजपा सरकार के खिलाफ माहौल बना था।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंदसौर से चुनावी शंखनाद भी किया था। गुप्ता ने बताया, “मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जीत जनता की जीत है। जनमत को प्रभावित करने के लिए भाजपा ने षड्यंत्र किए, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई।” कहा जाता है, जिस दल ने मालवा मुट्ठी में कर लिया, वह मध्य प्रदेश में सरकार बना लेता है। इस बार मालवा की 66 सीटों में से 35 कांग्रेस अपनी झोली में डालने में सफल रही। भाजपा के खाते में 28 सीटें गईं। मालवा के भाजपाई गढ़ को ढहाने में कांग्रेस पूरी तरह सफल नहीं हुई, लेकिन यहां की सीटों ने कांग्रेस को संजीवनी दी। खंडवा-निमाड़ के चार आदिवासी जिलों खरगोन, बड़वानी, धार और झाबुआ में कांग्रेस की ताकत बढ़ गई है। निमाड़ की कुल 28 सीटों में कांग्रेस ने 20 सीटों पर जीत हासिल की है। दो सीट पर निर्दलियों ने बाजी मारी। ये दोनों कांग्रेस के ही बागी उम्मीदवार थे। भाजपा को केवल छह सीट पर ही जीत मिल पाई। उसका यह गढ़ भी ढह गया।

मालवा और चंबल में कांग्रेस की तरफ से कमान सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संभाल रखी थी। पार्टी के युवा चेहरे सिंधिया का आकर्षण रहा। इस बार कांग्रेस की चुनावी रणनीति अच्छी रही। कांग्रेस की गुटबाजी सतह पर नहीं दिखी और तालमेल भी अच्छा रहा। कमलनाथ के नेतृत्व में राज्य के नेता एकजुट रहे जिसका आखिर में पार्टी को फायदा मिला। कमलनाथ और सिंधिया चुनावी लड़ाई में फ्रंट में रहे। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पर्दे के पीछे रहकर काम किया। बागियों को मनाने से लेकर कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम किया। कमलनाथ ने महाकौशल में पार्टी को अच्छी सफलता दिलाई है। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह विंध्य में लगे हुए थे। लेकिन, वे खुद भी चुनाव हार गए और पार्टी को भी जीत नहीं दिला सके।  

कांग्रेस और भाजपा का गणित बागियों ने भी बिगाड़ा। वैसे, कांग्रेस की तुलना में भाजपा में बागी ज्यादा रहे, लेकिन कांग्रेस के बागी अधिक जीते। कांग्रेस की तुलना में भाजपा के बागियों को सफलता कम मिली। दोनों दलों में टिकटों को लेकर असंतोष रहा। मसलन, कांग्रेस ने भाजपा छोड़कर आए सरताज सिंह और शिवराज के साले को टिकट दिया। रीवा से अभय मिश्रा को भी उम्मीदवार बनाया। दोनों दलों में परिवारवाद भी खूब चला। कहीं इसका फायदा हुआ तो कहीं नुकसान हुआ।

मध्य प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं का भाजपा को खास फायदा नहीं मिला। उन्होंने 10 स्थानों पर सभाएं की लेकिन तीन पर ही पार्टी जीत पाई। भाजपा की हार का बड़ा कारण नोटबंदी और जीएसटी भी रहा। कांग्रेस के प्रचार विज्ञापनों में इन दोनों मुद्दों को टारगेट किया गया, जिसका लाभ उसे मिला। राज्य में कांग्रेस की रणनीति और तैयारी अच्छी थी, लेकिन शिवराज सिंह चौहान के जमीनी नेता होने की छवि को वह तोड़ नहीं पाई। इस बार राज्य में बसपा का जनाधार खिसक गया है। उसकी सीटें चार से घटकर दो हो गई हैं। हालांकि सपा खाता खोलने में कामयाब रही है। उसे एक सीट मिली है।

"अपेक्षित जनादेश नहीं मिला। विपक्ष की भूमिका निभाएंगे और आगे के लिए नतीजों की समीक्षा करेंगे"

दीपक विजयवर्गीय, प्रदेश प्रवक्ता, भाजपा

वोटों का बंटवारा होने से कांग्रेस और भाजपा दोनों को नुकसान हुआ। भाजपा  ने  तो इस बार 200 प्लस सीटें जीतने का टारगेट तय कर रखा था, लेकिन 109 सीटों पर सफलता मिल पाई। कांग्रेस 150 सीटें जीतने का दावा कर रही थी मगर 114 पर अटक गई। 2013 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले कांग्रेस को 56 सीटों का फायदा हुआ है।

बसपा, सपा और निर्दलियों की मदद से प्रदेश की सत्ता में कांग्रेस 15 साल बाद वापसी हुई है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा है, “हम  कांग्रेस की कई नीतियों का समर्थन नहीं करते। लेकिन मध्य प्रदेश में उसका समर्थन करेंगे।” अब देखना है कि कांग्रेस अपने वादों पर कितना खरा उतरती है और अन्य दलों को साथ लेकर कैसे सरकार चलाती है।   

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