प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में जब सत्ता संभाली, तो उनकी विदेश नीति का मंत्र था, ‘पड़ोस पहले’ (नेबरहुड फर्स्ट)। भारत के छोटे पड़ोसी देशों और दक्षिण एशिया में बेहतर संबंधों को अधिक अहमियत देने की नीति ‘गुजराल डॉक्टरीन’ का हिस्सा थी। मोदी ने उसे अपनाया और हल्के फेरबदल से अपनी नीति के रूप में पेश कर दी। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बुद्धिजीवी हलके से जुड़े दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल देश के बड़े आकार और बड़ी आबादी के मद्देनजर छोटे पड़ोसी देशों के आगे भारत को ज्यादा मानवीय छवि में प्रस्तुत करना चाहते थे। दूसरे कार्यकाल के पहले साल में मोदी की ‘पड़ोस पहले’ की नीति तेजी से बदल रही है।
मोदी के पहले कार्यकाल में कुछ समय तक यह नीति कारगर रही। 2014 में अपने पहले शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित करके मोदी ने इस नीति को आगे बढ़ाया। फिर, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग उसी साल नवंबर में भारत आए और प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश में अहमदाबाद का दौरा किया। उसके बाद मोदी नेपाल गए और वहां की संविधान सभा के सदस्यों के समक्ष भाषण में नई इबारत लिखने की कोशिश की। आम नेपालियों के बीच भी उनकी लोकप्रियता बढ़ी। फिर मोदी ने पाकिस्तान के साथ अमन-चैन का माहौल बनाने का प्रयास किया। 2015 में अफगानिस्तान से लौटते समय वे पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्मदिन पर शुभकामनाएं देने के लिए अचानक लाहौर रुककर उनके घर पहुंच गए। लेकिन उड़ी आतंकी हमले ने पाकिस्तान के साथ दोस्ती के प्रयासों को विराम लगा दिया। उसके बाद से संबंधों में कोई सुधार नहीं हो पाया।
यह सब-कुछ मोदी सरकार के गलत आकलन की वजह से ही नहीं हुआ। पाकिस्तान में जब तक कमान फौज के हाथ है, उसके साथ संबंध सुधारना लंबे अरसे से मुश्किल रहा है। शी जिनपिंग के नेतृत्व में उभरता चीन ने भारत के पड़ोसी देशों तक में अपनी राह बनाई और चीन के समुद्री जहाज और पनडुब्बियों का दौरा हिंद महासागर में बढ़ गया। जिनपिंग पूरे एशिया में अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) को आगे बढ़ाने में लगे हैं। भारत ने इस पर हामी नहीं भरी है, लेकिन भूटान को छोड़कर सभी पड़ोसी देशों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। हर देश को इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए पैसे की दरकार है, ऐसे में उनके लिए चीन की चेक बुक डिप्लोमेसी को नकारना मुश्किल है। चीन का मिलिट्री बेस अब अफ्रीका के तट पर जिबौती में भी है। लेकिन चीन इस मामले में इकलौता नहीं है, अमेरिका और कई यूरोपीय देशों के भी वहां सैन्य ठिकाने हैं। मालदीव ने भी अब्दुल्ला यामीन के सत्ता में आने के बाद भारत को पीठ दिखा दी थी और चीन का खुलकर स्वागत किया था, लेकिन श्रीलंका में सरकार बदलने के साथ रुख पलट दिया। श्रीलंका में राजपक्षे बंधु वापस सत्ता में आ गए। हालांकि, इस बार राष्ट्रपति राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने भारत की ओर सही संकेत देना शुरू किया, लेकिन किसी भी अहम मुकाम पर वे चीनी कार्ड खेल सकते हैं। भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी हालात पर नजर रखे हुए हैं। अमेरिका तो खुलकर भारत को समर्थन जाहिर कर रहा है और चीन को हमलावर बता रहा है, लेकिन भारत के पड़ोसी चुपचाप एशिया की दो शक्तियों के बीच जोर-आजमाइश को देख रहे हैं।
भारत की सीमाओं पर सुरक्षा का माहौल तेजी से बिगड़ रहा है। पिछले हफ्ते भारत और चीन के बीच लद्दाख में टकराव अहम मोड़ पर पहुंच गया। चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ हिंसक टकराव में 20 भारतीय जवानों के शहीद होने से देश गुस्से में है। भारत-चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पिछले 40 वर्षों में कोई हताहत नहीं हुआ था। चीन अब गलवन घाटी पर भी दावा करने लगा है, जबकि पहले इस पर कोई विवाद नहीं था। चीन के इस आक्रामक रुख का पैटर्न हर जगह दिखता है। चाहे दक्षिण चीन सागर, सेंकाकू द्वीप, हांगकांग, ताइवान हो या फिर लद्दाख, चीन अपने कदम आगे बढ़ा रहा है और नए इलाकों पर दावा कर रहा है।
चीन में भारत के राजदूत रह चुके गौतम बम्बावाले कहते हैं, “पता नहीं, चीन को मौजूदा संकट से क्या फायदा हुआ। कह नहीं सकते कि उनकी योजना क्या है। हां, वे इस विवादित सीमा को और विवादास्पद बना सकते हैं।” उनका मानना है कि गलवन घाटी में चीन ने जो भी रणनीतिक लाभ हासिल किया था, उसे गवां दिया है। वे कहते हैं, “उसने भारत को अमेरिका के और करीब धकेल दिया है।” एक समय था जब भारत और चीन को मिलाकर इसे एशिया की सदी कहा जाने लगा था। लेकिन 15-16 जून की दरम्यानी रात जो कुछ हुआ, उससे दोनों देशों के बीच अविश्वास और गहरा होगा। 1962 के युद्ध के बाद से ही भारत के लोग चीन की ओर संदेह की नजर से देखते हैं।
सरकार की चीन नीति पर भी सवाल उठ रहे हैं। यह भी कि क्या मोदी की व्यक्तिगत संबंधों वाली डिप्लोमेसी उलटी पड़ गई है? क्या राष्ट्रपति जिनपिंग के साथ वुहान में और फिर ममल्लापुरम में मोदी की बातचीत बेअसर साबित हुई? क्या मोदी ने भी वही गलती की, जो जवाहरलाल नेहरू ने अत्यधिक विश्वास करके की थी? प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर चीन के चार दौरे किए थे, जब उन्हें अमेरिका और यूरोप में नहीं बुलाया जाता था। सरकार स्थिति को संभालने का प्रयास कर रही है।
जहां चीन से लगी एलएसी पर तनातनी बनी हुई है, वहीं पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा (एलओसी) और सीमा पर तनाव जारी है। देश की पश्चिमी सीमा पर तनाव उड़ी और पुलवामा आतंकी हमलों के बाद से बना हुआ है। सीमा पार फायरिंग और जान-माल के नुकसान का सिलसिला जारी है। ऐसे में, चीन का सहयोगी पाकिस्तान लद्दाख की ताजा घटनाओं पर खुश है। इन सब मोर्चों के अलावा, नेपाल ने भी कालापानी और कुछ अन्य क्षेत्रों को अपना बताकर नए नक्शे के साथ आंखें दिखाना शुरू कर दिया है। वह अपने दावे के लिए 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ हुए सुगौली समझौते का हवाला दे रहा है। यह इलाका भारत, नेपाल और चीन के तिमुहानी पर है। राजनीतिक नक्शे में बदलाव को नेपाल की संसद ने मंजूरी दे दी है। नक्शे में यह बदलाव करके नेपाल अब भारत के साथ विदेश सचिव स्तर की वार्ता के लिए कह रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री के.पी. ओली का यह फैसला उनके लिए उलटा भी पड़ सकता है।
क्या भारत के खिलाफ नेपाल, चीन और पाकिस्तान के साथ किसी ढीले-ढाले गठजोड़ में शामिल हो सकता है? इस सवाल पर नेपाली टाइम्स के संपादक कुंडा दीक्षित ने कहा, “ऐसी कोई संभावना नहीं है। अगर भारतीय मीडिया नेपाल के जनरल और नेताओं के चीन की तरफ झुकाव की बात करना जारी रखता है, तो यह उसकी अपनी बात हो सकती है। लेकिन गठजोड़ मुश्किल है।”
पिछले महीने भारत ने लिपुलेख रोड का उद्घाटन किया, तो नेपाल की प्रतिक्रिया नए नक्शे के रूप में सामने आई। ठीक उसी तरह, जैसे चीन ने भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में संचार सुविधाएं बढ़ाने के लिए सड़क, पुल और हवाई पट्टियां बनाए जाने का विरोध किया है। भारत में आम धारणा है कि लद्दाख में चीन की हरकत से नेपाल को बल मिला।
ओली की कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के चीन के साथ करीबी रिश्ते हैं। 2015 में नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी का भी आज के हालात में योगदान है। नेपाल का नया गणतांत्रिक संविधान बना तो नेपाल के मैदानी क्षेत्र में रहने वाले भारतीय मूल के मधेसियों के मन में आशंका पैदा हुई। दो महीने तक चली नाकेबंदी से वहां की जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। नेपाल में रसोई गैस से लेकर दवाइयों तक 80 फीसदी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई भारत के जरिए ही होती रही है। तब प्रधानमंत्री ओली ने संकल्प लिया कि वे किसी एक देश पर निर्भर रहने की रणनीतिक गलती कभी नहीं करेंगे। उन्होंने चीन की ओर रुख किया और कई समझौते किए। चीन ने तिब्बत से काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने का भी वादा किया। नाकेबंदी समाप्त होने के तुरंत बाद ओली को सत्ता छोड़नी पड़ी। वे इसके पीछे भारत का हाथ मानते हैं।
ऐसी ही गलती 1989 में राजीव गांधी ने की थी, जब भारत ने काठमांडू को आवश्यक वस्तुएं ले जा रहे ट्रकों को रोक दिया। किसी वजह से विदेश मंत्रालय इस तरह की गलती दोहराने के प्रति चेतावनी देने में नाकाम रहा, जिससे भारत विरोधी भावनाएं जोर पकड़ गईं।
ओली ने 2017 के चुनाव प्रचार में लोगों से वादा किया कि वे ऐसे हालात बनाएंगे कि भविष्य में कभी नाकेबंदी जैसी दिक्कतें न झेलनी पड़े। वे भारी बहुमत के साथ चुनाव जीत गए। उन्होंने भारत के साथ रिश्ते सुधारे और काठमांडू में चीन की मजबूत उपस्थिति बनी रही। दूसरी ओर भूटान के अलावा, भारत का सबसे करीबी दोस्त देश बांग्लादेश है। शेख हसीना की अवामी लीग सरकार भारत के साथ हमेशा मित्रवत रही है। लेकिन 2019 के दौरान असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू होने के बाद से कथित रूप से बांग्लादेशी अाप्रवासियों को वापस भेजने की बातें उठने पर बांग्लादेश में चिंता होने लगी। फिर नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ बांग्लादेश को भी जोड़ दिया गया, जहां हिंदू, सिख और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न होता है। इससे शेख हसीना सरकार असहज हो गई।
हालांकि, बाद में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने साफ किया कि उनका मतलब बांग्लादेश की मौजूदा सरकार से नहीं, बल्कि पिछली सरकारों से है। अवामी लीग सरकार को अपने धर्मनिरपेक्ष और उदार सिद्धांतों पर गर्व है। शेख हसीना ने सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा, लेकिन मोदी को शेख मुजीबुर रहमान की 150वीं जयंती समारोह के मौके पर ढाका जाना था तो वहां कई नागरिक समूह और विपक्षी दलों ने भारत के खिलाफ प्रदर्शन करने की योजना बनाई। महामारी ने हसीना सरकार को समारोह को संक्षिप्त करने का बहाना दे दिया। मोदी ने दौरा रद्द कर दिया। इस तरह बांग्लादेश में सतह पर सब ठीक है, लेकिन भीतर ही भीतर अविश्वास घुमड़ रहा है। बम्बावाले कहते हैं, “मैं नहीं समझता कि भारत के घरेलू मुद्दों से किसी दूसरे देश पर प्रभाव पड़ता है। अनुच्छेद 370 को रद्द करने या एनआरसी और सीएए का मुद्दा भारत के अंदरूनी मुद्दे हैं, जिन्हें खुद सुलझाना है।”
लेकिन विदेशी घोषित किए गए अधिकांश लोग बंगाली मुस्लिम हैं, इसलिए वे जेल जाने के बजाय बांग्लादेश वापस जाने का प्रयास करेंगे। भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि असम में गैर-नागरिक घोषित किए गए लोगों के साथ क्या किया जाएगा, लेकिन उन्हें असम में जेल शिविरों में रखे जाने के संकेत हैं। इन चिंताओं और भाजपा नेताओं के लगातार भड़काऊ बयानों से माहौल बिगड़ रहा है।
अब वक्त है कि मोदी सरकार ‘पड़ोस पहले’ की नीति पर दोबारा विचार करे। पूर्व राजनयिक भास्वती मुखर्जी कहती हैं, “छोटे पड़ोसी देश ज्यादा संवेदनशील होते हैं और बड़े देश के फैसलों से गलतफहमी पाल बैठते हैं।” प्रधानमंत्री मोदी ने नवाज शरीफ के साथ सुलह की कोशिश की लेकिन पाकिस्तान की घरेलू राजनीति आड़े आ गई। वे कहती हैं, “नेपाल ने घरेलू राजनीति में भारत को घसीट लिया। ऐसे में वही नीति कारगर होगी जो उकसावे में न आए।” चीन पर उन्होंने कहा, “चीन वही कर रहा है जो वह पूरे एशिया में करता है। चीन के साथ रिश्तों को दुरुस्त करना महत्वपूर्ण है। हमें यह समझना चाहिए कि यह 2020 है, 1962 नहीं। भारत को किनारे नहीं किया जा सकता है।”
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पड़ोसी देशों के साथ विवाद के बिंदु
भारत-चीनः एशिया की प्रतिद्वंद्वी शक्तियां
भूमि विवादः अब भी अनसुलझा। पश्चिमी सेक्टर में अक्साई-चीन और लद्दाख पर चीन का दावा। अब पूरी गलवन घाटी पर दावा जो भारत के पूर्वी सेक्टर में है। चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है। तवांग मठ पर भी उसकी नजर। चीन के साथ लगती सीमा 3,500 किमी लंबी।
नदी: भविष्य में ब्रह्मपुत्र के पानी का बहाव मोड़ने से समस्या हो सकती है। यह नदी तिब्बत से निकल कर अरुणाचल प्रदेश के रास्ते भारत में प्रवेश करती है। चीन ऊपरी इलाकों में बांध बना रहा है, जिससे आने वाले दिनों में निचले इलाकों में पानी का बहाव कम होगा। इससे भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य प्रभावित होंगे।
बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिवः भारत इसके खिलाफ है और बीजिंग के अनेक प्रयासों के बावजूद इसने चीन के इस अभियान में शामिल होने से इनकार कर दिया। भारत ने अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों से हाथ मिलाया और इस बात की ओर इशारा किया कि जो देश चीन से कर्ज लेते हैं वे उसके जाल में फंस जाते हैं। श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह इसका उदाहरण है।
भारत-पाकिस्तानः कश्मीर विवाद मुख्य
कश्मीरः पाकिस्तान चाहता है कि कश्मीरियों का भविष्य तय करने के लिए यहां जनमत संग्रह कराया जाए। भारत कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किए जाने के बाद इसका विशेष दर्जा भी समाप्त हो गया है।
आतंकवादः भारत का आरोप है कि पाकिस्तान लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल उसके खिलाफ करता है। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी समूह भारत में संसद भवन, मुंबई, जम्मू-कश्मीर विधानसभा और अन्य हमलों के लिए जिम्मेदार। पाकिस्तान का कहना है, भारत उसके अशांत बलूचिस्तान प्रांत में विद्रोहियों की मदद कर रहा है।
पानीः इस विवाद के भविष्य में और बढ़ने के आसार हैं, क्योंकि छोड़े गए पानी की मात्रा पर दोनों देशों में अनबन है। 1960 की सिंधु जल संधि के मुताबिक पाकिस्तान पंजाब की पश्चिमी नदियों और भारत तीन पूर्वी नदियों के पानी का इस्तेमाल कर सकता है।
भारत-नेपालः महत्वपूर्ण त्रिकोण पर दावा
मानचित्र विवाद: नेपाल अपने मानचित्र में भारत स्थित कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को अपने इलाके में दर्शाता है। भारत, नेपाल और चीन के बीच त्रिकोण पर स्थित होने के कारण यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है।
पानीः नदी के पानी के बंटवारे पर विवाद। बीच-बीच में वार्ता होती रहती है, पर अभी तक हल नहीं निकला।
मधेसीः ये भारतीय मूल के लोग हैं, जो नेपाल में भारत से सटे तराई इलाकों में रहते हैं। भारत लगातार उनका पक्ष लेता रहा है। 2015 में नेपाल की नाकेबंदी का उद्देश्य नए संविधान में मधेसियों को उनके अधिकार दिलाना था।
भारत-बांग्लादेशः पानी से एनआरसी तक
पानीः तीस्ता नदी के पानी का बंटवारा बांग्लादेशियों के लिए भावनात्मक मुद्दा है। दिल्ली और ढाका के बीच अच्छे संबंधों के बावजूद इसमें अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है।
एनआरसीः असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर लागू करना भारत का आंतरिक मामला। बांग्लादेश की सीमा के पास रहने वाले अनेक बंगाली मुस्लिम एनआरसी से बाहर हो गए हैं और उन्हें आशंका है कि उन्हें बांग्लादेश भेज दिया जाएगा।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए): इस अधिनियम में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और ईसाइयों को नागरिकता देने का प्रावधान है। बांग्लादेश नाराज है क्योंकि उसका कहना है कि वहां अल्पसंख्यकों को सताया नहीं जाता।
भारत-श्रीलंकाः यहां भी चीन
तमिल अलपसंख्यकः श्रीलंका ने अभी तक अपने यहां के तमिल अल्पसंख्यकों को वह सब नहीं दिया, जिसका वादा उसने 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते में किया था। भारत इस मुद्दे को सुलझाने के लिए श्रीलंका से आग्रह करता रहता है।
चीन की मौजूदगीः श्रीलंका में चीन के पैर पसारने से भारत के लिए चिंता। महिंदा राजपक्षे के पिछले कार्यकाल में चीन की पनडुब्बियों के कोलंबो में डेरा डालने की यादें अभी ताजा हैं।
मछली पकड़ने पर विवाद: दोनों देशों के मछुआरे एक-दूसरे के इलाके में चले जाते हैं, उनकी गिरफ्तारी होती है और नाव जब्त कर ली जाती हैं। यह समस्या अक्सर आती रहती है।