जंग हो भी सकती है और नहीं भी, लेकिन अब भारतीय उपमहाद्वीप और उसके बाहर के नीति-निर्माताओं ने भारत और पाकिस्तान के बीच एक और सशस्त्र लड़ाई के प्रति गंभीरता से देखना शुरू कर दिया है। ऐसा होता है तो दोनों देशों के लिए इसके क्या मायने होंगे? विश्व की विभिन्न राजधानियों में विशेषज्ञों और दक्षिण एशिया पर नजर रखने वाले बारीकी से इसका विश्लेषण करने लगे हैं। अक्सर कूटनीति को किसी भी देश की घरेलू राजनीति के विस्तार के रूप में देखा जाता है। पुलवामा आतंकी हमला शायद इसका एक प्रमुख उदाहरण है। इसकी खासियत सिर्फ इस तथ्य में ही निहित नहीं है कि यह कश्मीर में एक और उकसाने वाला हमला था। बल्कि यह ऐसे समय में हुआ है, जब 2019 के लोकसभा चुनावों में तीन महीने से भी कम का समय है। प्रधानमंत्री की छवि “सख्त” नेता की है और वे मतदाताओं से नए जनादेश की मांग कर रहे हैं, तो ऐसे में वे मुश्किल से इन चुनौतियों से मुंह चुरा सकते हैं।
पिछले दिनों पुलवामा में फिदायीन हमले में सीआरपीएफ के 40 से अधिक जवान शहीद हो गए। इस वारदात को एक कश्मीरी युवक ने अंजाम दिया, जिसे पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने प्रशिक्षित किया था। जैश ने इसकी जिम्मेदारी भी ली। जाहिर है, इस हमले ने देश के विभिन्न हिस्सों में कड़ी प्रतिक्रिया की आग सुलगा दी। विभिन्न वर्गों के लोग अब चाहते हैं कि मोदी सरकार जैश-ए-मोहम्मद और पाकिस्तान में उनके सरपरस्तों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे।
प्रधानमंत्री ने कहा है कि उन्होंने पहले ही सुरक्षा बलों को इस स्थिति से निपटने के लिए “खुली छूट” दे दी है। कांग्रेस सहित सभी बड़ी राजनैतिक पार्टियों ने भी राष्ट्रीय संकट के इस क्षण में एकजुट होकर सरकार का साथ दिया। पुलवामा घटना के मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पत्रकारों से कहा, “अब आगे कोई सवाल या चर्चा नहीं होगी। हम अपने सुरक्षा बलों और सरकार के साथ मजबूती से खड़े हैं।”
राजनीतिक नेताओं के ऐसे बयानों ने लोगों की भावनाओं में उबाल पैदा कर दिया है कि भारत देर-सबेर पाकिस्तान में आतंकी संगठनों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के रूप में कठोर दंडात्मक कार्रवाई करेगा। देश में लोगों के मौजूदा मिजाज को देखते हुए अब यह “यदि” का सवाल नहीं है, बल्कि ये अटकलें ज्यादा हैं कि सरकार “कब” पुलवामा हमले के गुनहगारों को सख्त सजा देगी।
भारतीय नेतृत्व भी अपनी ओर से यह जायजा लेने में जुटा है कि अगले कुछ दिनों में अगर वह कठिन राजनीतिक फैसला लेता है, तो उसका कूटनीतिक रूप से कैसे बचाव किया जा सकता है।
दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका, चीन, रूस और यूरोपीय संघ सहित प्रमुख देशों ने पुलवामा हमले की निंदा की और वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करने का संकल्प जताया। लेकिन हमले के खिलाफ कड़े बयान जारी करने के बावजूद दुनिया के देशों ने यह चिंता भी जाहिर की कि बढ़ते तनाव का कोई समाध्ाान निकाला जाए, न कि सशस्त्र संघर्ष की ओर बढ़ा जाए, क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच पूर्ण युद्ध न दोनों देशों के हित में है, न दुनिया के।
स्वतंत्र पर्यवेक्षकों का तर्क है कि आने वाले दिनों में यदि भारत पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य विकल्प अपनाता है तो पाकिस्तान भी भारत के खिलाफ ठीक इसी तरह की कार्रवाई करने को मजबूर होगा। अगर दोनों पक्ष इसी रास्ते पर जाते हैं और एक-दूसरे के खिलाफ ऐसे ही हमले करते हैं, तो संभव है कि ऐसी स्थिति पैदा हो जाए, जहां भारत और पाकिस्तान एक और पूर्ण युद्ध में उतर जाएं।
प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के अन्य वरिष्ठ मंत्री यह स्पष्ट कर रहे हैं कि पाकिस्तान को कश्मीर हमले के लिए “भारी कीमत” चुकानी पड़ेगी। इसके क्या मायने होंगे, इसे लेकर भारत के अलग-अलग क्षेत्रों और अन्य जगहों पर कयास लगाए जा रहे हैं।
हालांकि, भारत ने भारी प्रचार अभियान शुरू करके पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग करने के लिए कूटनीतिक रास्ता चुना है। भारतीय विदेश सचिव विजय गोखले ने पुलवामा हमले के तुरंत बाद पाकिस्तान के खिलाफ मजबूत विरोध दर्ज कराया। उन्होंने अपनी सरजमीं से जैश-ए-मोहम्मद को गतिविधियां चलाने की अनुमति देने के लिए दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त सोहेल महमूद से आपत्ति जताई। उन्होंने बड़ी संख्या में विदेशी राजदूतों और भारत में मिशन के प्रमुखों को पाकिस्तान द्वारा लगातार भारतीयों के खिलाफ आतंक को नीति के रूप में इस्तेमाल और विभिन्न शहरों और कस्बों में उनकी संपत्तियों की जानकारी दी।
इसमें म्यूनिख सिक्योरिटी मीट में अग्रणी यूरोपीय देशों और विशेषज्ञों की एक सभा को भी जानकारी देने की पहल है। इसके अलावा, 17 फरवरी को पेरिस में शुरू हुई फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की बैठक में पाकिस्तान के आतंकी संगठनों और अजहर मसूद जैसों के खिलाफ कार्रवाई करने में नाकामी के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया गया।
लेकिन पाकिस्तान की तरफ से भी आक्रामक कूटनीतिक पहल तेज हो गई है। पाकिस्तान ने दुनिया से अपनी मासूमियत और वैश्विक आतंक के खतरे से लड़ने की प्रतिबद्धता के बारे में बताना शुरू कर दिया है। वे पाकिस्तान की बेगुनाही पर भरोसा करते हों या नहीं, लेकिन सभी प्रमुख देशों ने किसी भी भारतीय कार्रवाई को अनदेखा करने में रुचि नहीं दिखाई।
अमेरिकी मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका इस मोड़ पर पाकिस्तान को अलग-थलग करना पसंद नहीं करेगा क्योंकि वह अमेरिका-तालिबान वार्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अफगानिस्तान में युद्ध के शांतिपूर्ण समाधान का मार्ग प्रशस्त करने वाले मुद्दों पर दोनों पक्षों के बीच आने वाले दिनों में इस्लामाबाद में बैठकें निर्धारित हैं।
इसके अलावा, हालांकि अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने इस्लामाबाद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई के लिए वाशिंगटन के समर्थन का संकेत दिया था। लेकिन दिल्ली में कूटनीतिक बिरादरी और जानकार यह हिदायत भी देते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर भरोसा नहीं किया जा सकता और वे किसी भी मुद्दे पर अचानक हैरतनाक रुख अपना लेते हैं। हालांकि वे इसके पहले पाकिस्तान की आलोचना कर चुके हैं कि वह अपनी सरजमीं से संचालित होने वाले आतंकवादी संगठनों से निबटने में गंभीरता नहीं दिखा रहा है। इसलिए अगर अमेरिका-तालिबान वार्ता सही दिशा में आगे बढ़ती है तो ट्रंप इस्लामाबाद की ओर से आंख मूंद भी सकते हैं।
पाकिस्तान का सदाबहार दोस्त चीन इस्लामाबाद को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने वाले किसी भी कदम के खिलाफ होगा और वह पर्दे के पीछे से संकट का हल करना चाहेगा। दिलचस्प बात यह है कि रूस पुलवामा हमले पर सख्त बयान जारी कर चुका है लेकिन वह भी चीन के साथ जा सकता है और दोनों दक्षिण एशियाई प्रतिद्वंद्वियों के बीच बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण समझौते पर जोर दे सकता है।
लेकिन भारतीय राजनैतिक प्रतिष्ठान को पहले भी इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा था, जब उन्हें राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने और पाकिस्तान के खिलाफ कड़े फैसले लेने पड़े थे। 1999 में करगिल संघर्ष के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा किया और तब तक युद्धविराम का आह्वान नहीं किया जब तक कि पाकिस्तानी घुसपैठियों को भारतीय क्षेत्र से खदेड़ नहीं दिया गया। 2002 में भी उन्होंने जैश-ए-मोहम्मद आतंकवादियों द्वारा भारतीय संसद पर हमले के बाद एक बार फिर सीमा पर भारी सैन्य जमावड़ा करने का फैसला किया, जिससे पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ा और उसने अपनी जमीन पर आतंकवादी ढांचे को खत्म करने पर सहमति व्यक्त की। कांग्रेस के समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 2008 में मुंबई पर 26/11 के हमले के बाद पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कूटनीतिक दबाव का विकल्प चुना और पाकिस्तान को यह मंजूर करने के लिए मजबूर किया कि वह हमले के अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करेगा, जिन्होंने उसकी जमीन से वारदात को अंजाम दिया था।
लेकिन इस बात पर गंभीर संदेह हैं कि इस मोड़ पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिशें कितनी सफल हो पाएंगी। नई दिल्ली के प्रयासों के बावजूद, इस्लामाबाद में नेतृत्व उत्साहित दिख रहा है, खासकर तब, जबकि सऊदी क्राउन प्रिंस न केवल 20 अरब डॉलर का सहायता पैकेज देने के लिए सहमत हुए, बल्कि वैश्विक आतंकवाद से लड़ने की उसकी प्रतिबद्धता का भी समर्थन किया।
क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की टिप्पणी से नाराज मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि अब बातचीत का समय समाप्त हो गया और यह कार्रवाई का समय है। अटकलों का दायरा बड़ा है कि क्या इस तरह की कार्रवाई केवल अपने क्षेत्र से सक्रिय आतंकवादियों के खिलाफ पाकिस्तान पर दबाव बनाने में कूटनीतिक कदम उठाने तक सीमित होगी या हमले के लिए सैन्य पहल होगी।
वुड्रो विल्सन सेंटर के माइकल कुगेलमैन को न्यूयॉर्क टाइम्स में उद्धृत किया गया है, “वास्तव में भारत कैसी प्रतिक्रिया करता है, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वह किस हद तक जोखिम उठाने को तैयार है, खासकर उस स्थिति में जब मामला काफी बढ़ जाए।” वैसे, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने बेहद संतुलित रुख का परिचय दिया है। उन्होंने 19 फरवरी को अपने आधिकारिक बयान में कहा कि दहशतगर्दी से पाकिस्तान भी काफी परेशान है और जंग कोई इलाज नहीं है। उन्होंने बातचीत की भी पेशकश की है। हालांकि चेताया भी कि भारत की ओर से जंग छेड़ने की हालत में जवाबी कार्रवाई के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा।
लेकिन आम चुनावों के मौके पर ऐसा लगता है कि मोदी के पास पाकिस्तान, जैश-ए-मोहम्मद और अन्य भारत विरोधी आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई से कम का कोई विकल्प नहीं है।