भारतीय खेल जगत में इस दौर को नारी शक्ति के उत्थान का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। यह दबदबा किसी नीतिगत सुधार या अचानक मिले अवसर का परिणाम नहीं है, बल्कि दशकों के संघर्ष, दृढ़ संकल्प और अटूट आत्मविश्वास की उपज है। बीते कुछ समय में महिला खिलाड़ियों के प्रदर्शन ने यह दर्शाया है कि भारतीय खेल परिदृश्य में अब उनका प्रभुत्व स्थापित हो चुका है। 2025 में भारतीय महिला क्रिकेट टीम की विश्व कप में ऐतिहासिक जीत हो या इसी वर्ष भारतीय महिला कबड्डी टीम का विश्व कप खिताब अपने नाम करना; हर जीत ने देश को नई ऊंचाईयां दी है। लेकिन इस पूरे बदलाव का सबसे बड़ा हासिल है, पहली ब्लाइंड टी20 विश्व कप में भारतीय टीम की खिताबी जीत। यह जीत उन सभी भारतीय महिला खिलाड़ियों के साहस और लगन का प्रतीक है, जो यह साबित करती है कि शारीरिक या सामाजिक बाधाएं सपनों और दृढ़ संकल्प के आगे छोटी पड़ जाती हैं।
यह फतह केवल क्रिकेट के मैदान में ही नहीं, बल्कि दृढ़ इरादों के बल पर किस्मत को बदलने की कहानी है। पहले ब्लाइंड टी20 विश्व कप में भारतीय महिला टीम की जीत महज एक टूर्नामेंट की जीत नहीं थी, यह जीत हर उस चुनौती पर है, हर उस बंधन पर, जो समाज या नियति ने उन पर लड़कियों पर थोपा है। इन खिलाड़ियों ने साबित किया कि आंखों की रोशनी भले ही कम हो, लेकिन भीतर की इच्छाशक्ति का तेज प्रकाश पूरी दुनिया को देखने और जीतने के लिए काफी होती है। यह जीत अटल इरादे के आगे, शारीरिक बाधा के हारने और ताकत को केवल शारीरिक बल में नापने को झुठलाती है।
पहला दृष्टिबाधित विश्व कप भारतीय महिला क्रिकेट टीम के प्रभुत्व का गवाह बना। सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया को हराने के बाद टीम इंडिया ने फाइनल में नेपाल को शिकस्त दी। भारतीय टीम ने इस मैच में अपने संयम और आक्रामकता का अद्भुत प्रदर्शन किया। टीम गेम ने शानदार जीत हासिल की और विश्व विजेता का खिताब अपने नाम किया। यह सफलता भारतीय खेल इतिहास का इसलिए भी स्वर्णिम अध्याय क्योंकि पहली बार दृष्टिबाधित महिला क्रिकेट खिलाड़ियों को विश्व मंच पर क्षमता साबित करने का अवसर मिला। इन खिलाड़ियों ने दोहरी लड़ाई लड़ी। पहली शारीरिक चुनौतियों से और दूसरी आर्थिक और सामाजिक रूढ़ियों से। इनके बावजूद, लड़कियों ने हार नहीं मानी और मैदान में अपनी पूरी ताकत झोंक दी।
कठिन सफर
दृष्टिबाधित टीम की खिलाड़ियों का सफर अभावों और मुश्किलों से भरा रहा। ये बेटियां देश के ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों से आई हैं, जहां बुनियादी संसाधनों की कमी कठोर सच्चाई है। इस टीम का नेतृत्व दीपिका टीसी ने किया, जो कर्नाटक की हैं। एक दुर्घटना में बचपन में ही उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी। खेतीहर परिवार की दीपिका को खुद भी नहीं पता नहीं था कि क्रिकेट उनके जीवन की दिशा तय करेगा। दृष्टिबाधित बच्चों के स्कूल में उन्हें क्रिकेट के बारे में पता चला। शुरुआत में उन्हें यह खेल खेलने में हिचकिचाहट थी। लेकिन उनके शिक्षक ने उन्हें इस खेल में आने के लिए प्रेरित किया। दीपिका कहती हैं कि समय के साथ क्रिकेट ने उन्हें रास्ता सुझाया और आत्मविश्वास दिया। विश्व कप में देश का नेतृत्व करना अब तक के उनके जीवन की बड़ी उपलब्धि है। उन्हें भारतीय महिला क्रिकेट टीम की सदस्य जेमिमा रोड्रिग्स और पुरुष टेस्ट कप्तान शुभमन गिल का भी समर्थन मिला। जेमिमा हाल ही में हुए महिला विश्व कप टीम का हिस्सा थीं, जिसने खिताब जीता है।

हूतूतूः कबड्डी विश्व कप की जीत के बाद टीम का जश्न
दृष्टिबाधित टीम की उप-कप्तान, महाराष्ट्र की गंगा कदम, नौ भाई-बहनों के परिवार से आई हैं। उनके किसान पिता ने उन्हें स्थिर भविष्य देने के लिए दृष्टिबाधित स्कूल में भर्ती कराया था। स्कूल में वे शौकिया क्रिकेट खेलती थीं। लेकिन उनके शिक्षक ने उन्हें इस खेल को गंभीरता से खेलने के लिए प्रेरित किया। गंगा के लिए ध्वनि की दिशा में समय रहते बॉल फेंकना या बैटिंग करना सीखना बड़ी चुनौती थी। 26 वर्षीय गंगा ने इसे सीखने के लिए बड़ी लगन से मेहनत की। आज वे अपने गांव की दूसरी दृष्टिबाधित लड़कियों को खेलने के लिए प्रेरित करती हैं। जम्मू-कश्मीर की रहने वाली, शीर्ष क्रम की बल्लेबाज अनेखा देवी 20 साल की हैं। जन्म से ही उनकी आंखों में आंशिक रोशनी है। उनके चाचा भी दृष्टिबाधित हैं। स्कूल की पढ़ाई के बाद उन्होंने ही अनेखा को दिल्ली में दृष्टिबाधित क्रिकेट शिविर में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
ओडिशा के आदिवासी समुदाय से आने वाली 18 साल की ऑलराउंडर, फूला सरेन ने पांच साल की उम्र में अपनी बाईं आंख की रोशनी खो दी। इसी उम्र में उनकी मां भी चल बसीं। दृष्टिबाधित स्कूल की एक शिक्षिका ने उन्हें क्रिकेट के बारे में बताया। वहां से टूर्नामेंट तक की उनकी यात्रा बहुत चुनौतीपूर्ण थी। क्रिकेट सीखने के साथ परिवार को समझाना आसान नहीं था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके लिए जीवन में ट्रॉफी से ज्यादा यह मायने रखता है कि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी अपनी पहचान है। मध्य प्रदेश की सुनीता सारथे की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। बस अंतर यह है कि वे स्कूल के बाद कॉलेज गईं, वहां अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर कई जगह नौकरी की तलाश की। फिर उनके एक दोस्त ने उन्हें दृष्टिबाधित क्रिकेट के बारे में बताया। वे शिविर में शामिल हुईं। शुरुआत में उन्हें यह खेल तेज और जटिल लगा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके कोच बताते हैं कि सुनीता अतिरिक्त मेहनत करती थीं, क्योंकि उन्हें लगता था कि उन्होंने देर से शुरुआत की है। अब वे भारत की सबसे भरोसेमंद फील्डरों में एक हैं।
इस सफलता ने भारत का मान बढ़ाया और देशवासियों ने भी उनका लोहा माना। उन्हें मिला यह मान-सम्मान केवल विश्व कप विजेता टीम का सम्मान नहीं था, बल्कि उस अदम्य साहस का भी था, जिसने सिद्ध किया कि भारत की लड़कियां हर चुनौती को पार पाने के लिए तैयार हैं। दृष्टिबाधित विश्व कप की यह जीत शारीरिक रूप से कमजोर लोगों के लिए प्रेरणा भी है। इस सफलता ने बताया कि इच्छाशक्ति की मजबूती, हर बंधन से बड़ी है। क्रिकेट के अलावा यही भावना कुश्ती, मुक्केबाजी और वेटलिफ्टिंग जैसे कठिन खेलों में भी दिखती है, जहां महिलाओं ने पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दी है।
अब दमखम महज मर्दाना नहीं
अब भारतीय महिलाएं सिर्फ खेलों में केवल हिस्सा लेने नहीं, बल्कि प्रभुत्व स्थापित करने के लिए मैदान में उतर रही हैं। लेकिन मैदान पर माहौल हमेशा से ऐसा नहीं था। कुश्ती, मुक्केबाजी, और भारोत्तोलन जैसे खेल पुरुषों के लिए ही थे। अखाड़े में पहलवान का मतलब पुरुष होना ही होता था। रिंग में पुरुष मुक्केबाज ही अपना दमखम दिखाते थे। माना जाता था कि जबरदस्त पंच मारने के लिए ताकत चाहिए और यह ताकत पुरुष के पास ही है। वेटलिफ्टिंग तो और कठिन खेल था। कोई स्त्री मांसल देह दिखा कर अपनी बाजुओं में वह दम दिखा सके कि वजन उठा ले, कल्पना से परे था। खेल की यह दुनिया उनके लिए थी ही नहीं। फिर कुछ महिलाओं ने इस लीक से अलग हट कर अपने स्वेद बूंदों से इतिहास लिख दिया।
उन्होंने भी मुक्केबाजी रिंग में, अखाड़ों में, वजन उठाते हुए खूब पसीना बहाया। 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में पहली बार भारतीय महिला एथलीट टीम का हिस्सा बनीं। मुट्ठी भर एथलीट का जाना तब सिर्फ भागीदारी तक ही सीमित था। उस दौर में समाज में खेल को लेकर विचार अलग थे। खेल में महिलाओं के लिए मैदान तो दूर सोच में भी जगह लगभग न के बराबर थी। यह धारणा लंबे समय तक बनी रही।

वुमन इन ब्लूः विश्व कप जीतने के बाद महिला क्रिकेट टीम
भारत में 1950 और '60 के दशक में खेल का मतलब क्रिकेट, हॉकी और एथलेटिक तक ही सीमित था। तीनों ही खेल ताकत और मर्दानगी के प्रतीक खेल थे, सो महिलाओं की उपस्थिति उनमें लगभग शून्य थी, कुश्ती, बॉक्सिंग और वेटलिफ्टिंग जैसे खेलों की तो बात ही मत कीजिए। फिर धीरे-धीरे बदलाव आया। आंध्र प्रदेश की कर्णम मल्लेश्वरी ने वेटलिफ्टिंग की सोच के पूरे ताने-बाने को बदल कर रख दिया। 12 साल की उम्र में उन्होंने वेटलिफ्टिंग में कदम रखा था। महिलाओं के लिए असंभव माने जाने वाले क्षेत्र वेटलिफ्टिंग में आकर कर्णम ने साबित किया कि ताकत शरीर की नहीं, इरादे की होती है। उन्होंने 1993 में विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता, फिर 1994 और 1995 में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया। और जब 2000 के सिडनी ओलंपिक में उन्होंने 69 किलो वर्ग में कांस्य पदक अपने नाम किया, तब पूरा देश गर्व से भर उठा। वह ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। कर्णम की सफलता ने सिर्फ पदक नहीं दिलाया, बल्कि उस दीवार को भी गिराया, जो महिलाओं को खेलों से दूर रखती थी। देश के हर हिस्से में उनकी कहानी पहुंची और लड़कियों के लिए यह प्रेरणा बन गई कि खेल पर किसी लिंग का एकाधिकार नहीं होता। उन्होंने दिखाया कि मेहनत, अनुशासन और लगन के सामने सामाजिक सोच भी झुक जाती है।
कर्णम के बाद भारत में यह लहर धीरे-धीरे दूसरे खेलों तक फैलने लगी। उसके बाद पूर्वोत्तर के छोटे से राज्य मणिपुर से एक नई कहानी शुरू हुई। मैरी कॉम की कहानी। मैरी कॉम ने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर बॉक्सिंग को चुना। उस समय बॉक्सिंग महिलाओं के लिए असभ्य खेल कहा जाता था। मैरी कॉम ने अपने मुक्कों से दुनिया को जवाब दिया। 2002 में उन्होंने विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता। 2005, 2006, 2008, 2010 और 2018 में भी इस चैंपियनशिप का स्वर्ण अपने नाम किया। इस बीच, मैरी कॉम का नाम भारतीय मुक्केबाजी का पर्याय बन चुका था। 2012 के लंदन ओलंपिक में उन्होंने कांस्य पदक जीतकर साबित किया कि विश्व मंच पर भारतीय महिलाओं का भी अधिकार कम नहीं है। मैरी कॉम की सफलता ने न केवल महिलाओं को खेलों की ओर आकर्षित किया, बल्कि छोटे राज्यों और गांवों की लड़कियों को भी यह विश्वास दिलाया कि सीमाएं दिमागी होती हैं। उनके बाद भारत के कई हिस्सों से लड़कियां रिंग में उतरने लगीं।
एक क्रांति का सूत्रपात
इस बदलाव के यज्ञ में हरियाणा ने भी अपनी समिधा डाली। वहां के अखाड़ों की मिट्टी में धीरे-धीरे एक क्रांति जन्म लेने लगी। पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक हरियाणा का समाज इससे पहले कुछ समझ पाता, फोगाट बहनों, गीता, बबीता, रितु और संगीता अखाड़ों की मिट्टी में ऐसी रच-बस गईं कि छोरियां, छोरों को चित करने लगीं। पिता महावीर फोगाट के प्रशिक्षण में गीता-बबीता ने कुश्ती सीखी। उनके अखाड़े में उतरने पर गांववालों के ताने, ‘‘लड़कियां कुश्ती करेंगी?’’ उनके पसीने में बह कर खत्म हो गए। महावीर फोगाट की जिद रंग लाई और नतीजा यह हुआ कि गीता फोगाट ने 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर जवाब दे दिया। वह भारत की पहली महिला पहलवान बनीं, जिसने कॉमनवेल्थ खेल में सोना जीता। उसके बाद बबीता ने 2014 में स्वर्ण जीता और रितु ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन किया। यह एक परिवार का आंदोलन बन गया, जिसने भारत में महिला कुश्ती की नींव रखी। फोगाट बहनों की कहानी ने दिखाया कि समाज जहां ‘नहीं’ कहता है, वहीं ‘हां’ का इतिहास लिखा जाता है। फोगाट बहनों की बदौलत हरियाणा की अनगिनत लड़कियां अब अखाड़ों में अभ्यास करती दिखाई देती हैं। आज हरियाणा महिला पहलवानों का गढ़ बन चुका है।
कई सफलताओं ने भारत के खेलों की तस्वीर को भी बदला। महिला खिलाड़ियों को सरकारी प्रोत्साहन भी मिला। खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण ने विशेष योजनाएं बनाईं, ताकि ग्रामीण इलाकों से भी प्रतिभाएं सामने आ सकें। फिर समाज की सोच भी बदलने लगी। परिवार बेटियों के साथ खड़े होने लगे। 2000 से 2010 के बीच भारत में महिलाओं की खेल भागीदारी में तेज वृद्धि हुई।
बदली सोच
भारतीय महिला खिलाड़ियों की यह यात्रा सिर्फ खेलों की नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की कहानी है। यह उस जिद की कहानी है जिसने कहा, “अगर मौका नहीं मिलता, तो खुद बनाओ।” आज जो युवा खिलाड़ी रिंग या मैट पर उतरती हैं, वे कर्णम, मैरी कॉम और फोगाट बहनों की विरासत से प्रेरणा लेती हैं। इन नामों ने खेलों की दिशा बदली, पर उससे भी ज्यादा समाज की सोच बदली।
फोगाट बहनों की कहानी के बाद भारतीय कुश्ती ने एक नया दौर देखा। अब यह खेल केवल हरियाणा या पंजाब तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पूरे देश की बेटियां अखाड़े में उतरने लगीं। इन्हीं में से एक नाम था साक्षी मलिक। रोहतक की मिट्टी से निकली इस लड़की ने 2016 के रियो ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया। वह ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बनीं। रियो के उस मुकाबले में साक्षी का संघर्ष आखिरी सेकंड तक जारी रहा, और जब उन्होंने जीत हासिल की, तो वह सिर्फ एक पहलवान की जीत नहीं थी। वह हर उस लड़की की जीत थी जिसने समाज की मनाही के बावजूद अखाड़े में कदम रखा। साक्षी के उस पदक के बाद भारत में महिला कुश्ती को अभूतपूर्व पहचान मिली। रियो के बाद भारतीय महिला कुश्ती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। विनेश फोगाट ने विश्व स्तर पर कई पदक जीते। बबीता और रितु फोगाट ने अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी छाप छोड़ी। अंतिम पंघाल ने जैसे इस पूरे अभियान को नई ऊंचाइयां दे दी। अंतिम ने जूनियर विश्व कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतकर अगली पीढ़ी की उम्मीदें जगा दीं।

दे दनादनः मीनाक्षी हुड्डा के पंच से पस्त विरोधी खिलाड़ी
वेटलिफ्टिंग में भी यह क्रांति जारी रही। कर्णम मल्लेश्वरी के पदचिह्नों पर चलकर असंख्य बेटियां उभरीं। मणिपुर की मीराबाई चानू ने 2021 के टोक्यो ओलंपिक में रजत पदक जीतकर देश को गौरवान्वित किया। उनके चेहरे पर वह मुस्कान और आंखों में गर्व की चमक भारत की नई तस्वीर थी। मीराबाई का सफर भी कठिनाइयों से भरा था। एक छोटे से गांव से आकर उन्होंने संसाधनों की कमी, चोटों और संदेहों के बावजूद दुनिया की सबसे मजबूत महिलाओं को चुनौती दी। उन्होंने यह दिखाया कि भारत में अब “वेटलिफ्टिंग” में कर्णम के साथ उनका नाम भी उस विरासत में जुड़ता है। उनकी सफलता ने पूर्वोत्तर के राज्यों में खेल संस्कृति को नई ऊर्जा दी। चानू से प्रेरणा लेकर इंफाल, आइजोल, गुवाहाटी, शिलांग जैसे शहरों में जिम और प्रशिक्षण केंद्रों में लड़कियां भारी वजन उठाने का अभ्यास करती नजर आती हैं, ताकि वेटलिफ्टिंग का सफर जारी रहे।
बॉक्सिंग में मेरी कॉम की विरासत को आगे बढ़ाया लवलीना बोरगोहेन ने। उन्होंने टोक्यो ओलंपिक में कांस्य पदक जीता। उनकी यह जीत व्यक्तिगत गौरव का भी प्रतीक थी, और यह संदेश भी था कि भारत अब बॉक्सिंग में स्थायी ताकत बन रहा है। लवलीना की प्रेरणा से असम और पूर्वोत्तर के गांवों में नई पीढ़ी की लड़कियां रिंग में उतरने लगी हैं। हाल के वर्षों में निकहत जरीन का नाम भारतीय मुक्केबाजी की नई पहचान बन गया है। तेलंगाना की इस खिलाड़ी ने 2022 और 2023 दोनों में विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर सिद्ध कर दिया कि भारत का पंच भी जबरदस्त है। निकहत का आत्मविश्वास, खेल के प्रति स्पष्टता और रिंग में आक्रामकता नई पीढ़ी की पहचान है। इसी बीच, जैस्मिन लम्बोरिया और मीनाक्षी हुड्डा जैसी युवा मुक्केबाजों ने भी दुनिया का ध्यान खींचा। जैस्मिन ने 57 किलो वर्ग में विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया, वहीं मीनाक्षी हुड्डा ने 48 किलो वर्ग में स्वर्ण पदक अपने नाम किया।
नीतियां नहीं, संघर्ष की दास्तां
इन तीन खेलों, कुश्ती, बॉक्सिंग और वेटलिफ्टिंग में जो परिवर्तन आया है, वह किसी नीतिगत सुधार या अचानक मिले अवसर का परिणाम नहीं, बल्कि दशकों के संघर्ष की उपज है। यह उस समाज की कहानी है जिसने धीरे-धीरे यह स्वीकार किया कि ताकत का कोई लिंग नहीं होता। भारतीय खेल संस्थाओं ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। ‘खेलो इंडिया’ और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों ने मिलकर वातावरण बनाया कि खेल भी शिक्षा की तरह जरूरी है। अब राज्य सरकारें भी बेटियों को खेल में छात्रवृत्तियां दे रही हैं, खेल होस्टल बढ़ रहे हैं, और महिला प्रशिक्षकों की संख्या में भी वृद्धि हुई है।
कई राज्यों में अब महिला खिलाड़ियों के लिए विशेष खेल नीतियां बनी हैं। इन योजनाओं का असली असर तब दिखाई दिया जब गांवों में मांएं अपनी बेटियों को आगे बढ़ाने लगीं। पहले जो अखाड़े सिर्फ लड़कों के नाम पर होते थे, अब उनमें सुबह-सुबह लड़कियों की मेहनत भी नजर आने लगी। अब टीवी पर, अखबारों में और सोशल मीडिया पर पहले जहां क्रिकेट ही सब कुछ था, वहीं अब लोगों की चर्चा में मीराबाई, साक्षी, निकहत या जैस्मिन होती हैं।
इन बेटियों की कहानियों में एक समानता और भी है। वह है, कठिनाइयों से न डरना। चाहे संसाधनों की कमी हो, समाज की बंदिशें हों या परिवार की मजबूरियां, इन सबके बीच उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया है।
जिन खेलों को कभी “मर्दाना” कहा जाता था, अब वही महिलाओं की ताकत का प्रतीक बन चुके हैं। आने वाले वर्षों में जब भारत ओलंपिक में पदक तालिका में ऊपर जाएगा, तो उसमें सबसे बड़ा योगदान इन बेटियों का होगा। वे अब मैदान में सिर्फ खुद के लिए नहीं, बल्कि उस समाज के लिए खेल रही हैं जिसने कभी उन्हें हाशिए पर रखा था। अब भारत में अखाड़े की मिट्टी, रिंग का कोना और वेटलिफ्टिंग प्लेटफॉर्म सब गवाह हैं कि नारी शक्ति का उदय हो चुका है। यह सिर्फ खेलों की कहानी नहीं, यह भारत की नई पहचान की कहानी है, जहां बेटियां हार नहीं मानतीं, जहां वे रुकती नहीं, और जहां हर जीत के साथ वे कहती हैं “अब मेरी बारी है।”