महामारी से पहले 20 साल की पूजा वर्मा दो तरह के काम करती थी। एक तो घरों में साफ-सफाई का और दूसरा, ब्यूटी पार्लर में ब्यूटीशियन का। फिर भी सात लोगों का परिवार चलाना आसान नहीं था। उसका भाई दिहाड़ी मजदूर था। गुड़गांव में एक झोपड़ी में रहने वाला यह परिवार किसी तरह अपना पेट भर पाता था। लेकिन मार्च 2020 में लॉकडाउन शुरू हुआ तो, करीब एक महीने तक उन्हें आधा पेट खाकर गुजारा करना पड़ा। पूजा कहती हैं, “लॉकडाउन ने हमें आर्थिक रूप से खत्म कर दिया। एक महीने में ही सारी बचत खत्म हो गई। मई 2020 में हालत यह हो गई कि जिन घरों में मैं काम करती थी, हम सिर्फ उनके दिए खाने पर गुजारा कर रहे थे।” पूजा के परिवार का ‘आधार’ उत्तर प्रदेश के गांव के पते पर है, इसलिए हरियाणा में उन्हें राशन का फायदा नहीं मिला। वे कहती हैं, “झुग्गी का कोई पता नहीं होता, और पता बदलने के लिए कागजात की जरूरत पड़ती है जो हमारे पास थे नहीं। इस कारण कोविड राहत की किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल सका।”
यह कहानी सिर्फ पूजा की नहीं, बल्कि लाखों लोगों की है। किसी भी गांव या झुग्गी बस्ती में चले जाइए, लॉकडाउन के दौरान भूख की दिल दहला देने वाली कहानियां सामने आएंगी। ‘भूख’ भारत में कोई नई बात नहीं। हाल ही इसकी चर्चा तब हुई जब ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआइ) 2021 में भारत को 116 रैंक वाली सूची में 101वां स्थान मिला। पिछले साल भारत 94वें स्थान पर था। रैंकिंग में भारत को पड़ोसी देशों श्रीलंका, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी नीचे जगह मिली है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स को कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्थंगरहिल्फे प्रकाशित करती है। इसे वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से भूखे लोगों को मापने और उनकी स्थिति पर नजर रखने के लिए डिजाइन किया गया है।
जैसी उम्मीद थी, भारत सरकार ने रैंकिंग पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा, “ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2021 में कुपोषित आबादी पर एफएओ (खाद्य और कृषि संगठन, संयुक्त राष्ट्र की संस्था) के आकलन के आधार पर भारत की रैंकिंग कम करना चौंकाने वाला है। यह जमीनी हकीकत और तथ्यों से परे है, इसमें गंभीर खामियां हैं। रिपोर्ट तैयार करने वाली एजेंसियों कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्थंगरहिल्फे ने इस पर पर्याप्त काम नहीं किया है।”
सरकार ने एफएओ के अपनाए गए तरीके को अवैज्ञानिक करार दिया और आरोप लगाया कि उसका नतीजा चार सवालों पर लिए गए ओपिनियन पोल पर आधारित था। यह सर्वेक्षण भी गैलप ने टेलीफोन पर किया। केंद्र का यह भी कहना है कि रिपोर्ट महामारी के दौरान पूरी आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिए किए गए उसके व्यापक प्रयासों की अवहेलना है। सरकारी प्रयासों को सत्यापित करने वाले आंकड़े भी मौजूद हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “सरकार की प्रतिक्रिया जायज है। रैंक तय करते समय भूख से लड़ने के लिए किए गए अनेक प्रयासों की अनदेखी की गई। रैंक तय करने के लिए जो चार पैमाने लिए गए, वे भी दोषपूर्ण हैं।”
एफएओ की रिपोर्ट “द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी ऐंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2021” (दुनिया में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति) में कहा गया है कि चार एशियाई देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में महामारी के कारण नौकरी जाने और आमदनी घटने जैसी स्थिति नहीं आई। बल्कि 2018-20 और 2017-19 के बीच इन देशों में अल्पपोषित आबादी का अनुपात क्रमशः 4.3, 3.3, 1.3 और 0.8 फीसदी कम हुआ है।
अपने अधिकारिक हैंडल से ट्वीट करते हुए कांग्रेस ने मोदी सरकार पर कटाक्ष किया, “हमारा देश एक पीआर जुनूनी सरकार से बेहतर का हकदार है, जिसे अपने लोगों को खाना खिलाने की कोई चिंता ही नहीं है।” कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने लिखा, “मोदी जी को 1) गरीबी 2) भूख मिटाने 3) भारत को वैश्विक शक्ति बनाने 4) हमारी डिजिटल अर्थव्यवस्था और 5) और भी बहुत कुछ के लिए बधाई। 2020: भारत 94वें स्थान पर, 2021: भारत इसमें 101वें स्थान पर। बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी पीछे है।”
कांग्रेस के अलावा दूसरे लोगों ने भी भारत की रैंकिंग की आलोचना की। दिल्ली के आंबेडकर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर और ‘भोजन का अधिकार’ अभियान की सदस्य दीपा सिन्हा ने कहा कि जीएचआइ की गणना के तरीके में खामी है, लेकिन भारत सरकार की प्रतिक्रिया भी गलत है।
“भारत सरकार की मुख्य आपत्ति यह है कि जीएचआइ गैलप सर्वेक्षण पर आधारित है। यह गलत है। जीएचआइ एफएओ के अल्पपोषण डेटा पर आधारित है, जिसे सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही तैयार किया गया है। इसलिए तरीके पर बहस हो सकती है। लेकिन वह भी इसलिए क्योंकि जैसा दूसरे लोग मानते हैं, इसमें भूख को अधिक नहीं बल्कि कमतर आंका गया है। अगर आकलन का ज्यादा मजबूत तरीका अपनाया गया होता, तो संभव है कोविड-19 के बाद की अवधि में भारत का प्रदर्शन और खराब होता।”
ध्यान देने वाली बात यह है कि पूरे भारत में 2016-18 के दौरान स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कम ऊंचाई) और वेस्टिंग (ऊंचाई के हिसाब से कम वजन) के आधार पर बाल पोषण के ट्रेंड में सुधार हुआ था। लेकिन सरकार 2018 से आंकड़े देने में विफल रही है। कोविड-19 में लॉकडाउन की वजह से नौकरी छूटने, मजदूरों के अपने घर लौटने, आंगनवाड़ी और स्कूल बंद होने से बच्चों को मध्यान्ह भोजन न मिलने जैसी वजहों ने पोषण को बहुत अधिक प्रभावित किया है।
सिन्हा एक और बात की ओर ध्यान दिलाती हैं। वे कहती हैं, “जीएचआइ के साथ एक समस्या यह भी है कि इसमें हर देश के सालाना आंकड़े नहीं होते, इसलिए रैंक की तुलना नहीं की जा सकती है।” लेकिन वे जीएचआइ से मिलने वाले संकेतों पर जोर देती हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि भारत रैंकिंग में लगातार पिछड़ रहा है। भूख का मतलब सिर्फ पेट भरना ही नहीं है बल्कि पोषण भी है।
वे कहती हैं, “कोविड ने भारत में भोजन की खपत और पोषण को प्रभावित किया है। एक छोटे से सर्वे से पता चला है कि ऊंची महंगाई और आइसीडीएस जैसी सरकारी खाद्य योजनाओं में व्यवधान के कारण दाल और तेल जैसे महंगे खाद्य पदार्थ थाली से गायब हो रहे हैं। इसलिए हमें जीएचआइ को चेतावनी के रूप में लेना चाहिए और इसे मानने से इनकार करने के बजाय अगली रिपोर्ट में बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए।”
भारत सरकार का दावा...
महामारी के दौरान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) और आत्मनिर्भर भारत योजना लागू की गई। 2020 में 3.22 करोड़ टन और 2021 में 3.28 करोड़ टन अनाज 80 करोड़ लोगों को मुफ्त बांटा गया।
लगभग 13.62 करोड़ परिवारों को सालाना अतिरिक्त 2,000 रुपये का लाभ देने के लिए 1 अप्रैल, 2020 से मनरेगा मजदूरी में 20 रुपये की वृद्धि की।
प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खाता रखने वाली 20.4 करोड़ महिलाओं को अप्रैल और जून 2020 के बीच तीन महीने के लिए 500 रुपये प्रति माह की अनुग्रह राशि दी।
तीन करोड़ वृद्ध विधवाओं और दिव्यांगों को कोविड-19 के कारण आई आर्थिक कठिनाइयों से निपटने के लिए अप्रैल से जून 2020 तक 1,000 रुपये की राशि दी गई।