हाल में बिहार विधानसभा चुनावों में पांच सीटें जीतने के बाद सुर्खियों में छाए 51 वर्षीय असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति के बारे में कुछ भी लुकाछिपा नहीं है। हमेशा सुर्खियों में रहने को आतुर, हैदराबाद से चार बार के सांसद भावना विज अरोड़ा से कहते हैं कि इफ्तार पार्टियां करने, मौलानाओं का सम्मान करने और मुस्लिम आयोजनों में शिरकत करने भर से राजनैतिक पार्टियां सेकूलर नहीं हो जातीं। बातचीत के मुख्य अंशः
बिहार में आपकी पार्टी का प्रदर्शन चकित कर गया...
कोई भी खुश नहीं लगता। तस्लीमा नसरीन से लेकर अरविंद केजरीवाल तक हर कोई मुझे कोस रहा है।
आप अपनी पार्टी के प्रदर्शन को कैसे देखते हैं?
यह मुसलमान समुदाय में बेचैनी और मंथन का ही नतीजा है। लोग देश के सियासी मंच पर प्रतिनिधित्व चाहते हैं। यह रातोरात नहीं हुआ है। यह कांग्रेस और भाजपा के साथ सभी पार्टियों की गैर-इंसाफी का नतीजा है। यह तो होना ही था। अगर हम किसी को नीचे ढकेलते जाएंगे तो वे ऊपर उठने की ही कोशिश कर सकते हैं।
क्या मुसलमानों में सेकूलर पार्टियों से मोहभंग बढ़ रहा है?
आज का नौजवान महत्वाकांक्षी है और आगे बढ़ने की सोचता है। पार्टियां सिर्फ सेकूलरवाद को बचाने की बात करती हैं। हम पर ही गैर-मौजूद सेकूलरवाद को ढोते रहने का दबाव क्यों हो? इसे तो हर भारतीय को उठाना है। संविधान में प्रदत्त सेकूलरवाद की गारंटी और राजनैतिक सेकूलरवाद में फर्क है। सेकूलरवाद, बहुलता और अनेकता के तथाकथित पैरोकारों ने कमेटियां बैठाने के अलावा कुछ नहीं किया। हर जगह सांप्रदायिक दंगे होते हैं और उसका कहीं खात्मा नहीं होता। 1984 में दिल्ली में सिखों के साथ क्या हुआ? हाल में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए। मस्जिदें जलाई गईं, लोगों का कत्लेआम हुआ मगर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल किसी कायर की तरह गांधी समाधि पर धरने पर जा बैठे। उनमें वहां जाने और पीड़ित परिवारों से मिलने की हिम्मत नहीं थी। मैं जानता हूं कि कानून-व्यवस्था उनके हाथ में नहीं है मगर दंगाग्रस्त इलाकों में जाने और लोगों के साथ खड़े होने से उन्हें क्या रोक रहा था? अगर मैं उन्हें कुछ असुरक्षित महसूस करा रहा हूं तो होने दीजिए। लोगों से भारी जनादेश हासिल करने के बाद भी केजरीवाल कुछ भी करने में नाकाम रहे। वे अनुच्छेद 370 को खत्म करने का समर्थन करते हैं, जो संघवाद के खिलाफ है। फिर, वे अपनी सरकार के पास अधिकार न होने का रोना रोते हैं। ये पार्टियां ही भाजपा को सत्ता में लाने की दोषी हैं।
आप राजनैतिक सेकूलरवाद और संवैधानिक सेकूलरवाद में फर्क करते हैं....
राजनैतिक सेकूलरवाद अल्पसंख्यकों और दलितों को झांसा देने के लिए ठगी है। उसे सत्ता हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और फिर भुला दिया जाता है। लोगों को हमेशा भुलावे में नहीं रखा जा सकता। इसी वजह से इमतियाज जलील औरंगाबाद से जीत जाते हैं। प्रिंस चार्मिंग को वायनाड जाना पड़ता है, जहां 30 फीसदी मुसलमान हैं। और फिर भी मुझे वोटकटवा कहा जाता है।
संविधान में प्रदत्त सेकूलरवाद की गारंटी बराबरी और अधिकार संपन्न बनाने के लिए है, समान अवसर के बारे में है। राज्य को मजहब के मामले में कुछ कहने का कोई मतलब नहीं होना चाहिए। सरकारें सेकूलरवाद की बातें तो करती हैं लेकिन एक धर्म का समर्थन करती हैं, दूसरों को झांसा देती हैं। वे सेकूलर होने की दुहाई देती हैं मगर अल्पसंख्यकों को अधिकार संपन्न नहीं करतीं। वे सेकूलर होने की बात करती हैं मगर अल्पसंख्यकों पर निशाने के लिए आतंक विरोधी कानून बनाती हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' का वादा करते हैं। क्या वह सेकूलरवाद नहीं है?
जब संविधान बराबरी की बात करता है तो वह गैर-बराबरों के बीच बराबरी की बात है। अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात है और उन्हें अपनी शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार देता है। वह इंसाफ और आजादी के बारे में है। सीएए और एनआरसी जैसे कानून बराबरी के अधिकार का उल्लंघन हैं और वे सेकूलरवाद के बारे में नहीं हैं। समस्या यह है कि तथाकथित सेकूलर पार्टियों ने ऐसे मुद्दों पर रुख साफ करना बंद कर दिया है। डर यह है कि वे कुछ कहते हैं तो भाजपा को फायदा होगा।
लोग आपको वोटकटवा कह रहे हैं...
ज्यादातर मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिया, मुझे नहीं। सवाल पूछा जाना चाहिए कि फिर भी वे एनडीए को क्यों नहीं हरा पाए। हर सामाजिक वर्ग-भूमिहार, ब्राह्मण, यादव, एससी, एसटी और ईबीसी ने भाजपा को वोट दिया। राजद ऊंची आवाज में अपने एमवाइ (मुसलमान-यादव) वोट बैंक की बात करता है, फिर भी उसके सबसे कद्दावर नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी दरभंगा के केवटी में एनडीए के यादव उम्मीदवार से हार गए। ऐसी सत्ता-विरोधी लहर के बावजूद महागठबंधन एनडीए को नहीं हरा सका। फिर भी वे मुझे सेकूलर खेमे को कमजोर करने का दोष देते हैं।
क्या महागठबंधन ने गठजोड़ के लिए आपसे संपर्क किया था?
नहीं। करीब सात महीने पहले संसद के सेंट्रल हॉल में मैं दो-तीन राजद सांसदों से मिला था। मैंने उनसे कहा कि हम सीमांचल में चार वर्षों से काम कर रहे हैं और लोकसभा चुनावों में हमें तीन लाख वोट मिले थे। उनमें से एक सांसद ने तो अच्छे से बात की, लेकिन कोई वादा नहीं किया। लेकिन दूसरे ने सीधे कहा कि मैं चुनाव क्यों लड़ रहा हूं। मैं गठबंधन के लिए गिड़गिड़ा नहीं सकता। मैं यही कह सकता हूं कि हमने कोशिश की, अब हम पर दोष मत मढ़िए।
आपको पांच सीटें जीतने की उम्मीद थी?
देश के 10 सबसे पिछड़े जिलों में चार सीमांचल के हैं। वहां साक्षरता दर 35 फीसदी से भी कम है। वहां कोई डिग्री कॉलेज नहीं है। बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित यही इलाका होता है। लोग बेवकूफ नहीं है। वे देखते हैं कि नेता पांच बार चुनाव तो जीत गए, लेकिन लोगों के लिए कुछ नहीं किया।
क्या आपको लगता है कि पश्चिम बंगाल और असम में एनआरसी और सीएए बड़ा मुद्दा बनेंगे?
बिल्कुल। सीएए को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनपीआर) और एनआरसी से जोड़कर देखना चाहिए। यह भाजपा-नीत सरकार की तरफ से लाई गई सबसे बड़ी दरार है। 2010 में एनपीआर का सीएए से कोई लेनादेना नहीं था। अब दोनों को जोड़ दिया गया है। भाजपा और (संघ प्रमुख) मोहन भागवत लच्छेदार बातें कह सकते हैं, लेकिन हम छोटे बच्चे नहीं कि उनकी बातों पर भरोसा कर लें। असम में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी तैयार किया गया। फिर भी भाजपा अनेक लोगों के नाम सूची से हटाना चाहती है, इनमें ज्यादातर मुसलमान हैं। वे अब दूसरा एनआरसी चाहते हैं।
आप पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ेंगे?
बिल्कुल लड़ेंगे, हार या जीत मायने नहीं रखती।
क्या आपको लगता है कि बंगाल में भी आप पर ‘वोटकटवा’ का तमगा लगेगा?
लोकसभा चुनाव में भाजपा वहां 18 सीटों पर जीती थी। तब तो हमने चुनाव नहीं लड़ा था। राज्य में 28 फीसदी आबादी मुसलमानों की है और उनकी सामाजिक-आर्थिक हालत बहुत खराब है। पूछिए कि उनके लिए क्या किया तो उनके पास इफ्तार पार्टियां आयोजत करने, मौलानाओं को सम्मानित करने और मुस्लिम कार्यक्रमों में जाने के सिवाय दिखाने को कुछ नहीं होता।
मुसलमान अधिकार संपन्न कैसे होंगे?
केसीआर का तेलंगाना मॉडल देखिए। वे अल्पसंख्यकों के लिए रेसिडेंशियल स्कूल चला रहे हैं। उनमें 60 हजार से ज्यादा छात्र पढ़ रहे हैं। वहां शिक्षा का स्तर भी बहुत अच्छा है। तेलंगाना में मुसलमानों के जीवन में बड़ा बदलाव आया है। इन रेसिडेंशियल स्कूलों की मांग इतनी अधिक है अब उन्हें दाखिले के लिए परीक्षा आयोजित करनी पड़ रही है। हम यही चाहते हैं। भारत में अधिकार राजनीतिक प्रतिनिधित्व से आता है। अन्य सामाजिक और धार्मिक समूहों का प्रतिनिधित्व आनुपातिक रूप से ज्यादा है। आबादी के लिहाज से मुसलमानों का प्रतिनिधत्व कम क्यों है? धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से जो मुसलमान नेता चुनकर आते हैं उनके पास भी अपने समुदाय के हितों की बात कहने की वास्तविक शक्ति नहीं होती।
मुसलमानों को इन बातों का अहसास हो रहा है, और ऐसा मेरी वजह से नहीं है। इस बदलाव का श्रेय मैं नहीं लेता, लेकिन यह निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए अच्छा है। अब समय आ गया है कि विविधता आंकड़ों में भी दिखे। मुसलमान भी विभाजित हैं। पसमांदा खुद को पिछड़ा मानते हैं और कहते हैं कि मैं ऊंचे वर्ग के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता हूं। हां, मुसलमानों में भी वर्ग हैं। लेकिन मैं खुद को पसमांदा या अशरफ नहीं मानता, सिर्फ मुसलमान मानता हूं। मैंने यह भी कहा है कि दलितों को अपने साथ मुसलमान दलितों को भी शामिल करना चाहिए।
आपको भाजपा की बी-टीम कहा जाता है...।
मैं बी-टीम बनकर थक गया हूं, अब ए-टीम बनना चाहता हूं। मैं जानता हूं कि मेरी पार्टी दूसरों की रातों की नींद हराम कर रही है। यह अच्छा है। मेरी राजनैतिक यात्रा आसान नहीं रही। मुझे पीटा गया, जेल में डाला गया। मेरे धैर्य की परीक्षा ली गई। वे मुझे किसी भी नाम से पुकार सकते हैं, मुझ पर इनका कोई असर नहीं होता।
आपने कहा आपकी यात्रा आसान नहीं रही, मतलब?
जब अकबर (छोटा भाई अकबरुद्दीन) और मैं 13-14 साल के थे, तब संघ के गुंडे हमारे घर आकर चिल्लाते थे, “ओवैसी, कब्रिस्तान या पाकिस्तान।” मैं उन दिनों को भूल नहीं सकता। वे बातें मेरे जेहन में समा गई हैं। दुर्भाग्यवश देश में अब भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं। मध्य प्रदेश में पटाखे बेचने वाले मुसलमानों को धमकाया जा रहा है। सरकार में बैठे लोग उन्हें रोकना नहीं चाहते।
आपकी तुलना मुहम्मद अली जिन्ना से की जाती है...
मुझे नया जिन्ना कहना निहायत ही गलत है, अन्याय है। मैं कट्टरवाद को खत्म करने के लिए राजनीति में आया हूं। मेरे पुरखों ने जिन्ना के साथ न जाकर भारत में रुकने का फैसला किया। अभी हमारा जो राजनीतिक दफ्तर है, कभी जिन्ना ने उसका दौरा किया था। आज वहां भारत का झंडा लहराता है। मुझे और कुछ कहने की जरूरत नहीं।