गजराज राव हिंदी सिनेमा के समकालीन दौर के सबसे स्वाभाविक अभिनेताओं में एक हैं। हर फिल्म में उनका अभिनय अलग रंग प्रदर्शित करता है। यूं तो वे तकरीबन 30 वर्षों से सिनेमा की दुनिया में सक्रिय हैं लेकिन फिल्म बधाई हो से उन्हें विशेष पहचान मिली। इस फिल्म की सफलता ने गजराज राव के लिए हिंदी सिनेमा में नए दरवाजे खोले। भोला, मजा मा, सत्यप्रेम की कथा जैसी हालिया फिल्मों में गजराज राव के काम को खूब पसंद किया गया है। गजराज राव से उनके जीवन और फिल्मी करियर पर मनीष पाण्डेय ने बातचीत की। कुछ अंश:
अपनी अभिनय यात्रा को कैसे देखते हैं?
किसी भी कलाकार के लिए महत्वपूर्ण यह होता है कि उसका काम अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। उसकी मेहनत उचित मंच तक पहुंच जाती है तो कलाकार को आनंद आता है। मैंने लंबे समय तक रंगमंच में काम किया लेकिन मेरे दायरा बहुत सीमित था। फिल्मों में भी मेरे किरदार बहुत सीमित थे। आम दर्शक न मेरे चेहरे से परिचित थे और न ही उन्हें मेरा नाम मालूम था। जब बधाई हो को सफलता मिली तो एकदम से मुझे चारों ओर से प्यार, सम्मान, महत्व मिलने लगा। एक कलाकार की यही अभिलाषा होती है। मुझे कई लोग मिलते हैं और कहते हैं कि उन्हें मैं अपने बीच का लगता हूं। यह बात मेरे लिए हर पुरस्कार से बढ़कर है। मुझे संतुष्टि मिलती है।
आप अपने संघर्ष के बारे में कुछ बताइए?
मेरा मानना है कि संघर्ष और मनुष्य जीवन आपस में जुड़े हुए हैं। ऐसा नहीं है कि आप कलाकार हैं तो आपको कोई अधिक संघर्ष करना पड़ता है। हर इंसान का अपनी तरह का संघर्ष होता है। कोई संघर्ष छोटा नहीं होता है। मेरे पिताजी रेलवे कर्मचारी थे। जब मैं उन्हें टिफिन देने जाता था तो देखता था कि यात्रियों की भीड़ उनको घेर कर खड़ी होती थी। भीड़ पिताजी से आक्रोशित होकर बात करती थी मगर पिताजी विनम्र रहते थे। पिताजी हमेशा समझाते थे कि कभी भी संघर्ष को लेकर अफसोस नहीं करना चाहिए। बचपन में पिताजी से मिली यह सीख मेरे साथ जुड़ गई। अपने संघर्ष के दौरान मैंने कभी हिम्मत नहीं छोड़ी। आज जब अभिनय की तारीफ होती है, तो उसके पीछे वही संघर्ष और मेहनत है।
बीते कुछ वर्षों में ऐसा देखा गया है कि हिंदी सिनेमा में स्टार कल्चर कम हो रहा है। इस बारे में आपके क्या अनुभव हैं?
जब मैं छोटा था और दिल्ली की रेलवे कॉलोनी में रहता था। फिल्म द बर्निंग ट्रेन की शूटिंग को देखकर मैं आश्चर्य से भर उठा था। शूटिंग देखने के लिए उमड़ी भारी भीड़ और फिल्मी सितारों के प्रति पागलपन जैसी दीवानगी मेरे लिए नई बात थी। आज स्थिति वैसी नहीं है। अब लोग फिल्मी कलाकारों को लेकर सहज हो गए हैं। स्टारडम का अब हौवा नहीं दिखता। कुछ एक कलाकारों को छोड़ दें तो दर्शक फिल्मी हस्तियों को देखकर अब नस काटने वाली दीवानगी नहीं दिखाते। इसके पीछे मुझे जो कारण नजर आता है, वह यह है कि आज से पच्चीस साल पहले सेलेब्रिटी और दर्शक के बीच एक दूरी थी। दर्शक अपने चहेते कलाकार को कभी-कभी ही देख पाते थे। इसलिए एक जादू, एक तिलिस्म रहता था। आज दर्शक अपने पसंदीदा कलाकारों को सोशल मीडिया पर देखते, सुनते हैं। फिल्म प्रमोशन के सिलसिले में दर्शकों और फिल्मी सितारों का आमना सामना होता रहता है। इस कारण अब दर्शक अपने पसंदीदा कलाकार से उतने अपरिचित नहीं रहे हैं।
ओटीटी प्लेटफॉर्म आने से क्या काबिल अभिनेताओं के लिए बेहतर मौके बने हैं?
ओटीटी प्लेटफॉर्म आने से सार्थक फिल्मों का बनना और रिलीज होना आसान हुआ है। पहले फिल्मकार इसलिए सार्थक फिल्मों के निर्माण से परहेज करते थे क्योंकि फिल्म को रिलीज करने में दिक्कत आती थी। आज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर हर तरह का कंटेंट देखा जा रहा है। दर्शक एक ही तरह का कंटेंट देखकर ऊब गया है। निर्माता, निर्देशक एक जैसा कंटेंट बना रहे हैं तो दर्शक उसे नकारने में देरी नहीं कर रहे हैं। इस स्थिति में विभिन्न विषयों पर सिनेमा बनने के मार्ग खुल रहे हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अब सिनेमा निर्माण की प्रक्रिया छोटे शहरों तक पहुंच गई है। अब सिनेमा बनाने के लिए यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति मुंबई में डेरा डाले। इसका फायदा यह हुआ है कि छोटे शहरों की कहानियों को सिनेमा में जगह मिल रही है। अक्सर स्टार इस तरह के प्रोजेक्ट करने से कतराते हैं और फिल्म का बजट भी उन्हें शामिल करने की इजाजत नहीं देता। ऐसे में काबिल अभिनेताओं के लिए मौका बनता है।
इसका तीसरा पक्ष यह है कि आज का दर्शक परिपक्व हो गया है। वह दुनिया भर का सिनेमा देख रहा है। अब उसे वह फिल्में, वह किरदार ज्यादा पसंद आते हैं, जो यथार्थ के निकट हों। इस कारण भी स्टार केंद्रित फिल्म इंडस्ट्री में इधर बीच गुणी और हुनरमंद कलाकारों को अलग से महत्व मिलने लगा है।
सबकी निगाह शोहरत, लोकप्रियता पर रहती है। आपकी नजरों में कलाकारों पर कैसा दबाव रहता है?
फिल्मी दुनिया चकाचौंध से भरी हुई दुनिया है। यह एक बाजार है। यहां विकल्प की कोई कमी नहीं है। आप अपडेट नहीं हैं, तो कब आप खो जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा। प्रतिस्पर्धा के दौर में हर आदमी असुरक्षित महसूस करता है। यही असुरक्षा अनावश्यक दबाव पैदा करती है। फिल्मी दुनिया में लोग ढोंग करते हैं। उन्हें ढोंग करना पड़ता है। वे एक तरह की लाइफस्टाइल नहीं रखेंगे तो उन्हें मीडिया में कवरेज नहीं मिलेगी। इसके साथ ही उनके साथ तमाम तरह की गॉसिप जुड़ जाएंगी। यही कारण है कि कई कलाकारों को न चाहते हुए भी तमाम तरह के दिखावे करने पड़ते हैं। फिल्मी दुनिया में भयंकर भागदौड़ है। फिल्मी दुनिया में कोई किसी का दोस्त नहीं है। काम से मिलते हैं और फिर अपने अपने रास्ते हो लेते हैं। इस अकेलेपन में जब कोई मुसीबत आती है तो इंसान टूट जाता है। यही कारण है कि इन दिनों फिल्म एवं टेलीविजन जगत में आत्महत्याओं के मामले बढ़ गए हैं। हमें केवल अपने प्रयास पर ध्यान देना चाहिए। अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, लता मंगेशकर, शाहरुख खान सफलता के शीर्ष पर पहुंचे हैं तो अपनी काबिलियत से। किसी प्रकार के दिखावे, मार्केटिंग से नहीं। यह बात इस पीढ़ी को जितनी जल्दी समझ आएगी, दबाव और नुकसान उतना कम होगा।