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बॉलीवुड/इंटरव्यू/हंसल मेहता: ‘मैंने कभी न रोना रोया, न हार मानी’

। मेरी टीम इतनी शानदार है कि उनके होते हुए मुझे किसी भी काम में कोई दुश्वारी महसूस नहीं होती
हंसल मेहता

हिंदी सिनेमा जगत में कुछ ऐसे फिल्म निर्देशक रहे हैं जिन्होंने भीड़ से अलग हटकर कुछ रचा है। उनका काम ही उनकी पहचान है। हंसल मेहता ऐसे ही निर्देशक हैं। शाहिद, अलीगढ़, सिटी लाइट्स, स्कैम 1992 और स्कूप जैसी फिल्मों से हंसल मेहता ने साबित किया है कि प्रबल इच्छाशक्ति हो, तो अपनी बात कहने में कोई रुकावट आड़े नहीं आती। हाल ही में हंसल मेहता द्वारा सह-निर्देशित वेब शो स्कैम 2003: द तेलगी स्टोरी सोनी लिव ऐप पर रिलीज हुई है। हंसल मेहता से उनके रचनात्मक सफर और जीवन के बारे में आउटलुक के मनीष पाण्डेय ने बातचीत की। मुख्य अंश:

आपके पिछले शो स्कूप को दर्शकों का प्यार मिला। हाल ही में रिलीज हुए स्कैम 2003: तेलगी स्टोरी को भी दर्शक पसंद कर रहे हैं। आपके काम को स्वीकार्यता मिलती है तो कैसा लगता है?

मेरा मानना है कि कुछ दिल से बनाया जाए तो वह दिल तक जरूर पहुंचता है। मैं शुक्रगुजार हूं लोगों का कि उन्होंने मेरी मेहनत को स्वीकृति दी है। हर कहानी को कहने में चुनौतियां रहती हैं। चुनौतियां न हों तो कहानी कहने में मजा भी नहीं आता है, लेकिन जब दर्शक प्यार देते हैं तो सब तकलीफें गायब हो जाती हैं। सिनेमा का सारा जादू ही वातावरण पर निर्भर करता है। जो निर्देशक ऐसा माहौल तैयार कर देता है कि दर्शक को सब कुछ जीवंत महसूस होने लगे, वही निर्देशक कामयाब होता है। मेरी टीम इतनी शानदार है कि उनके होते हुए मुझे किसी भी काम में कोई दुश्वारी महसूस नहीं होती। दर्शकों का प्यार मिलता रहे तो फिल्मकार को खूब हिम्मत मिलती है।

एक दौर था जब एक तरफ आपकी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल रहा था और दूसरी तरफ आपकी माली हालत ठीक नहीं थी। कितना कठिन था वह समय और कितना मुश्किल था उस दौर से बाहर निकलना?

मेरा मानना है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, इंसान को काम करना नहीं छोड़ना चाहिए। हर सुबह एक नई उम्मीद लेकर आती है। इसलिए इंसान को बीते दिन की सफलता और असफलता को पीछे छोड़ते हुए यह देखना चाहिए कि नई सुबह कौन-सी ताजगी लेकर आई है। मेरे लिए वह समय कठिन था। मेरी फिल्म को सम्मान मिल रहा था मगर मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसके बावजूद मैंने परिस्थितियों का रोना नहीं रोया। मैं हारकर नहीं बैठ गया। मैंने संघर्षों में भी प्रयास किया और रास्ता बनने तक लगा रहा। इसी धैर्य और निरंतर प्रयास का नतीजा है कि आज मैं अपने पसंद का काम कर रहा हूं।

स्कैम 2003ः द तेलगी स्टोरी

आपने शुरुआत से ही वह रास्ता चुना, जहां मुश्किलें ज्यादा थीं और समर्थन कम। इस राह पर चलने का साहस कहां से मिला?

मेरे शो स्कैम 1992 की एक मशहूर लाइन है कि ‘रिस्क है तो इश्क है।’ यही मेरे जीवन का भी आधार रहा है। मैंने अपने जीवन में बहुत बारीकी से अनुभव किया है कि जहां संघर्ष है, वहीं सुख और आनंद है। सुकून है। इसलिए मुझे कभी आसान रास्तों ने आकर्षित नहीं किया। मैं पथरीली जमीन पर चलते हुए जानता था कि मंजिल बेहद खूबसूरत होने वाली है। जिस दौरान मैं अपने मन का काम कर रहा था, उस समय कम लोगों को मुझ पर यकीन नहीं था। कम लोग मेरे समर्थन में थे मगर मुझे खुद पर विश्वास था और भीतर आत्मसंतुष्टि थी। यह मेरे लिए सबसे बढ़कर है। इसी आत्मसंतुष्टि से साहस मिलता है। मैं नहीं चाहता कि आसान रास्तों पर चलते हुए मेरी मुलाकात अफसोस, ग्लानि से हो। इसलिए मैं पूरी ऊर्जा और उत्साह के साथ उस सफर को तय करता हूं जो चुनौतीपूर्ण होता है।

बीते दिनों बॉयकॉट बॉलीवुड मुहिम छिड़ी तो एक बात सामने आई कि हिंदी सिनेमा के दर्शक अब अच्छा कंटेंट देखना चाहते हैं। पठान, तू झूठी मैं मक्कार जैसी फिल्मों के कामयाब होने और अफवाह, भीड़ जैसी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित होने के बाद हिंदी सिनेमा के दर्शकों की पसंद अबूझ पहेली बनी हुई है। आप कैसे देखते हैं?

मैं कोई ट्रेड विशेषज्ञ नहीं हूं इसलिए अमुक फिल्म बॉक्स ऑफिस पर किस तरह कामयाब हुई और अमुक फिल्म क्यों बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही, इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता। जहां तक बात रही अच्छे और बुरे कंटेंट की तो यह उतना सीधा मामला नहीं है। क्यों अफवाह, भीड़ जैसी फिल्में नकार दी जाती हैं, उसके कई पहलू हैं। इसे लेकर मेरे भीतर गुस्सा, दुख, असंतोष है मगर अभी मैं उसे जाहिर करना नहीं चाहता। मैं यही कहूंगा कि इन बातों का सतही मूल्यांकन और विश्लेषण कभी भी नहीं होना चाहिए।

कई लोगों का कहना है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के कारण लोग अब फिल्म देखने थियेटर नहीं जाते, जिस कारण सार्थक फिल्मों के कारोबार पर असर पड़ा है। आप ओटीटी प्लेटफॉर्म के प्रभाव को किस तरह देखते हैं?

एक फिल्मकार के रूप में मेरी यही अभिलाषा रहती है कि मेरी फिल्म को अधिक से अधिक लोग देखें। ओटीटी प्लेटफॉर्म ने मेरे कंटेंट को बड़ी आबादी तक पहुंचाने का काम किया है। स्कैम 1992 और स्कूप ने मुझे नई ऊर्जा दी है और यह ओटीटी प्लेटफॉर्म से ही संभव हुआ है। मैं तो यही चाहता हूं कि लोग मेरी फिल्म, मेरा शो देखें। अब वह टीवी पर देखते हैं या ओटीटी पर या थियेटर में, यह दर्शकों का चुनाव है। जहां तक सार्थक फिल्मों के कारोबार की बात है तो जब ओटीटी प्लेटफॉर्म नहीं था, तब भी गिनी चुनी जनता इन फिल्मों को देखने थियेटर पहुंचती थी। इसलिए यह कहना असत्य होगा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म ने सार्थक फिल्मों के कारोबार को प्रभावित किया है। काम में दम होगा तो लोग लाइन में लगकर टिकट खरीदेंगे और फिल्म देखेंगे।

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