हिंदुस्तान में उर्दू जबान के हुस्न का जादू कामना प्रसाद के भी सिर चढ़कर बोला। उन्होंने अपना सारा जीवन उर्दू जबान की खिदमत में खर्च किया। अपनी लेखनी, मुशायरों के आयोजन से कामना प्रसाद उर्दू जबान और उर्दू शायरी को देश, दुनिया में लेकर गईं। उन्होंने उर्दू की खिदमत में ‘जश्न-ए-बहार’ की स्थापना की। वे जदीद उर्दू शायरी और मुशायरों के कल्चर में आए परिवर्तन की साक्षी रही हैं। अपनी यात्रा और वर्तमान समय में उर्दू भाषा की स्थिति पर कामना प्रसाद ने आउटलुक के मनीष पांडेय से बातचीत की। मुख्य अंश:
आज के इस दौर में आप उर्दू भाषा और शायरी को कहां खड़ा पाती हैं?
उर्दू सिर्फ जबान नहीं, एक मुकम्मल तहजीब है, जिसके हम सब वारिस और अमीन हैं। यह जबान हिंदुस्तान में पैदा हुई और यहीं परवान चढ़ी। हर जमाने में उर्दू ने बड़े खुलूस और एहतराम से अपनी जिम्मेदारी निभाई है। यह समाज और माहौल के तमाम तकाजों पर खरा उतरी है। जिंदगी के हर पहलू पर उर्दू शायरों ने अपने खयालों की रौशनी डाली है। जब उर्दू ने इश्क-ए-मजाजी की बात की तो कहा:
ये इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे/ इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
- जिगर मुरादाबादी
उर्दू जब इश्क-ए-हकीकी में डूबी और खुदा की तलाश में निकली तो कहा:
आशिकी से मिलेगा ऐ जाहिद/
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता
- दाग़
उर्दू ने जब बागी तेवर इख्तियार किया और आजादी के मतवालों के साथ सिर पर कफन बांध कर निकली तो इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया। बिस्मिल अजीमाबादी की कलम ने लिखा:
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/ देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है
उर्दू जब भक्ति और सूफियाना रंग में रंगी तो कबीर की जबान ने पुकारा:
हमन है इश्क मस्ताना
हमन को होशियारी क्या
तरक्कीपसंद तहरीक तक आते-आते हकीकतनिगारी इस जबान की शोभा बनी और साहिर ने लिखा:
टैंक आगे बढ़ें कि पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फतह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
उर्दू शायरी ने काबा-ओ-कलीसा की दूरी कम करने और गंगा-जमुना के किनारों को जोड़ने का काम किया है। मुख्तसर सी बात यह है कि उर्दू वो जबान है जिसने हमें हर हाल में जिंदगी को रोमानी अंदाज में जीने का हौसला दिया है।
युवाओं में उर्दू शायरी को लेकर जो उत्साह देखने को मिला है, उसमें सोशल मीडिया की भूमिका को आप किस तरह देखती हैं?
शोरिशों के इस दौर में भी उर्दू के हवाले से इंटरनेट एक सेहतमंद पेशरफ्त साबित हुई है। सोशल मीडिया ने एक नई तरह की बज्म सजा रखी है। उर्दू के लिए कंप्यूटर पर सर्च का बटन दबाएं और महज आधे सेकेंड में आपकी स्क्रीन पर लाखों नतीजे आ जाएंगे। फिर चाहे शायरी का मजा लीजिए, चाहे ब्लॉग पढि़ए या फिर रिसाले। कंप्यूटर, इंटरनेट, सोशल मीडिया, सैटेलाइट से आरास्ता आज की इन महफिलों में उर्दू शादाब नजर आती है। आप भी हमसे इत्तफाक करेंगे कि सिर्फ इक्कीसवीं सदी की नस्ल-ए-नौ ही इस दौर का पार पा सकती है, इसके हमकदम रह सकती है। उर्दू शायरी सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं, दुनिया के गोशे-गोशे में अपने चाहने वालों तक मिनटों में पहुंच रही है। हमारे दौर में तो हिज्र-ओ-विसाल इंतजार इजहार इसरार के लिए बहुत वक्त होता था, आज तो इश्क भी जल्दी में है और हुस्न के पास भी वक्त नहीं। ग्लोबल दौर में जिंदगी बेहद तेजी से भाग रही है। बहरहाल, संजीदा बात यह है कि उर्दू के फरोग में सोशल मीडिया का रोल अहम है।
उर्दू के संरक्षण और संवर्धन की आपकी यात्रा कितनी चुनौतीपूर्ण रही?
हमें मोहब्बत है उर्दू से और हमें फख्र है कि अपनी जबान और तहजीब की खिदमत का मौका मिला। हमें इस सफर में कोई दुश्वारी पेश नहीं आई। ‘जश्न-ए-बहार’ के शुरुआती दौर से ही लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। दोस्तों ने हौसला बढ़ाया और दामे, दिरमे, सुखन ने हमारी मदद की। हमें खुशी है कि जश्न-ए-बहार को उर्दू के चाहने वालों की बेलौस मुहब्बत हासिल रही है। फिर, हिंदुस्तानी अदब की जदीदियत को मंजर-ए-आम पर लाने की गरज से अपनी मुश्तरिक तहजीब की हिफाजत की गरज से, ‘जश्न-ए-बहार ट्रस्ट’ ने ‘जश्न-ए-नौबहार’ का इनअकाद किया। यकीनन आजकल के युवा शायर प्रांत, भाषा, धर्म से बाहर निकल कर नया हिंदुस्तान तख्लीक कर रहे हैं।
आज हमें कई प्रतिभावान शायर नजर आते हैं लेकिन वह कुछ ही समय में गायब हो जाते हैं। क्या कारण हैं कि आज गालिब, मीर, जौन एलिया जैसे शायर नहीं दिखाई दे रहे?
मीर और गालिब जैसे शायर सदियों में पैदा होते हैं। ‘दाग़’ भी उसी सिलसिले के एक कड़ी थे। मीर जहां खुदा-ए-सुखन थे, गालिब की शायरी दुनिया तक शेर-ओ-अदब पर गालिब रहेगी। जौन एलिया अपनी गैर-रिवायती शायरी के लिए मशहूर हैं। बशीर बद्र, निदा फाजली या और कितने ही हरदिल अजीज शोअरा ने उर्दू के चाहने वालों को अपनी शायरी से मुतास्सिर किया है। दरअसल हर दौर की शायरी अपने जमाने की अक्कासी करती है। जिस तरह मीर-ओ-गालिब के वक्त को हम उनकी शायरी से जानते और समझते हैं, उसी तरह अगली नस्लें दौर-ए-हाजिर को आज के शोअरा की तहरीर से जानेंगी। शायरी तारीख का हिस्सा भी होती है। हमारे अहद के तकाजे मीर ओ गालिब के वक्त से मुख़्तलिफ़ हैं, जिसका असर आज की शायरी पर होना लाजमी भी है और मुनासिब भी। इसलिए हमें तो उर्दू का मुस्तकबिल रौशन नजर आता है। आजकल नौजवान शायर पाये की शायरी कर रहे हैं।उनके फिक्र की पुख्तगी और इजहार की बेबाकी और जिंदगी के हर पहलू पर लिखने की दिलेरी ने हमे खुशगवार हैरत में डाला है। हां, जिंदगी तेजतर होती जा रही है तो शायर भी जरा जल्दी में है।
आपकी नजर में वह क्या कदम उठाए जाने चाहिए जिससे उर्दू शायरी का भविष्य सुरक्षित रहे?
नई नस्ल उर्दू और हिंदी दोनों के अल्फाज का इस्तेमाल एक साथ सहजता से करती है। उर्दू की मकबूलियत इसलिए भी बढ़ रही है के नस्ल-ए-नौ शायरी पढ़ने लिखने के लिए हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी स्क्रिप्ट का इस्तेमाल कर रहे हैं। आजकल तो उर्दू शायरी की किताबें भी तीनों स्क्रिप्ट में शाया हो रही हैं। नौजवान एक दूजे को शेर वाट्सएप करने के लिए ज्यादातर अंग्रेजी स्क्रिप्ट को ही तरजीह दे रहे हैं। उर्दू अपने इस जदीद मॉडर्न अवतार में भी बेहद मकबूल हो रही है। मॉडर्न अवतार इसलिए कि जिस तरह शेक्सपियर की अंग्रेजी अब नहीं बोली जाती, उसी तरह गालिब की उर्दू भी नहीं बोली जा सकती। जबानों का बदलते रहना ही उसके जिंदा रहने की दलील है। जब तक मोहब्बत है और उसके इजहार की तमन्ना दिलों में मचलती रहेगी, उर्दू शायरी भी कायम और दायम रहेगी। एक जरूरी बात यह भी है कि अगर हम अपने बच्चों को मोहज़्ज़ब बनाना चाहते हैं तो उन्हें उर्दू जरूर सिखानी चाहिए। तालीम के साथ तहजीब सिखाना हमारी जिम्मेदारी है। एक बेहद आसान मंत्र तो ये है कि अगर उर्दू सीखनी है तो इश्क कीजिए और इश्क करना है तो उर्दू सीखिए। उर्दू की कशिश से मुतास्सिर हो कर विदेशी शायर, जिनकी मादरी जबान उर्दू नहीं है वो भी इस जबान में बेहतरीन शायरी तखलीक कर रहे हैं। हमने ‘जश्न-ए-बहार’ में शिरकत फरमाने के लिए जापानी, चीनी, अमेरिकी शोअरा को बुलाया और उनके कलाम को सामईन से भरपूर दाद मिली।
अब तो सारे जहां में धूम हमारी जबां की है। हालांकि कुछ लोग उर्दू का मर्सिया पढ़ने से बाज नहीं आते। पर मायूसी कुफ्र है सो हम मायूस नहीं। उर्दू शेर-ओ-सुखन का माज़ी शानदार था, मुस्तक़बिल रौशन है।
समाज में हमेशा से एक छवि है कि शायर, कवि दुनिया और जिम्मेदारी से कटे रहते हैं। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि कवियों और शायरों को भुखमरी का सामना करना पड़ता है। इस हवाले से आपकी क्या राय है ?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ शायर ही दुनिया और जिम्मेदारियों से कटे रहते हैं। और भी लोग हैं, जो दुनिया से कटे या जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं। यह इंसान की फितरत पर निर्भर है। शायर भी इसी समाज का हिस्सा हैं। हां, यह और बात कि अपने ग़ौर-ओ-फ़िक्र में कई दफा कोई इतना डूब जाता है या मसरूफ हो जाता है कि उसे दूसरी चीजें याद न रहें। आज शायर मुआशरे का एक जिम्मेदार फर्द है। दूसरे पेशों से वाबस्ता होने के साथ-साथ अपनी शायराना जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा रहा है। और जो पेशेवर शायर हैं, वो भी अपनी शायराना सलाहियतों के साथ काफी सरगर्म हैं।
वो जमाना और था जब गालिब ने कहा कि -
फि़क्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं
मैं कहां और ये बवाल कहां
गोया गालिब भी दुनिया की फिक्र में सर खपाते थे हालांकि उन्होंने ये जरूर कहा कि शायर के साथ दुनिया की फिक्रें नहीं होनी चाहिए- मैं कहां और ये बवाल कहां। बहरहाल, वजह चाहे जो हो गरीबी और मुफलिसी की चपेट में सिर्फ शायर ही नहीं कोई भी कभी भी आ सकता है।
वैसे किसी शायर ने ये भी कहा है -
वो शायरी जो मीर को रोटी न दे सकी
दौलत कमा रहे हैं उसी शायरी से हम