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कला/इंटरव्यू/शोभना नारायणः ‘जब तक रहूं, नृत्य के साथ रहूं’

करीब छह दशकों से नृत्य कर रहीं शोभना नारायण अभी थकी नहीं हैं। 75 वर्ष की उम्र में भी उनमें उत्साह और जोश-खरोश भरपूर है।
ख्यात नृत्यांगना शोभना नारायण

करीब छह दशकों से नृत्य कर रहीं शोभना नारायण अभी थकी नहीं हैं। 75 वर्ष की उम्र में भी उनमें उत्साह और जोश-खरोश भरपूर है। बिरजू महाराज की शिष्या शोभना नृत्यांगना ही नहीं, वरिष्ठ नौकरशाह और लेखिका भी हैं। बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में जन्‍मी शोभना को संस्कृति और कला से लगाव तथा राष्ट्रीय जीवन-मूल्य  विरासत में मिले हैं। वे ऐसे परिवार से हैं जहां दिनकर, धर्मवीर भारती, रमानाथ अवस्थी जैसे साहित्‍यकारों की मंडली घर पर जमती थी। मां ललिता नारायण लोकसभा का चुनाव पटना से लड़ी थीं। उनका जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से निजी परिचय था। शोभना नारायण के 75वें जन्‍मदिन पर पिछले दिनों उनके शिष्यों ने नृत्य-समारोह का आयोजन किया। इस मौके पर उनसे विमल कुमार ने खास बातचीत की। संपादित अंश:

पूत के पांवः अपनी ट्रॉफी के साथ नन्ही शोभना

पूत के पांवः अपनी ट्रॉफी के साथ नन्ही शोभना

आप 75 वर्ष की उम्र में भी नृत्‍में सक्रिय हैं। आप बड़ी अफसर भी रही हैं। कैसे आपने तालमेल बिठाया?

नृत्य मेरी रूह में बसा है। वह मेरी सांस है। शायद यही कारण है कि नौकरी की तमाम व्यस्तताओं के बीच मैं लगातार नृत्य करती रही। देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम किए। लोगों को पसंद आया। नृत्य आपको मुक्त करता है, आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है। आप नृत्य में विलीन होकर अंतर्ध्यान हो जाते हैं। आपको लगता है कि यह जीवन कुछ सार्थक है। आनंद की परम अनुभूति होती है। नर्तक और दर्शक दोनों उसमें डूब जाते हैं, रस में एकाकार हो जाते हैं। अब इसी परंपरा को बचाए रखने की जरूरत है। नई शिष्‍याओं को नृत्य सिखाती हूं। इस उम्र में भी कार्यक्रम करती रहती हूं। जब तक जिंदा हूं, नृत्य के साथ जीवित रहूंगी। ईश्वर से मेरी यही अंतिम प्रार्थना है, जब तक रहूं, नृत्य के साथ रहूं।

आप स्‍वतंत्रता सेनानियों के परिवार से हैं, उस बारे में कुछ बताइए?

मेरे नाना श्यामा चरण आजादी की लड़ाई में 1919 में जेल जाने वाले बिहार के पहले व्यक्ति थे। वे फिर 1921 में भी जेल गए और 1923 में सेंट्रल असेम्बली के सदस्य भी रहे। वे मोतीलाल नेहरू तथा श्याम लाल नेहरू के सहयोगी थे। 1930 में ही उनका निधन हो गया था। मेरे पिता के.डी. नारायण फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के जोनल डायरेक्टर पद से रिटायर हुए थे, जिनका निधन 1977 में रेवाड़ी के पास एक रेल दुर्घटना में हो गया था। उनका तबादला होता रहता था इसलिए मेरा बचपन कलकत्ता, बंबई और दिल्ली में बीता।

माता-पिता के साथ बच्ची शोभना

माता-पिता के साथ बच्ची शोभना

आपके नाना की बहन भी स्वाधीनता सेनानी थीं?

हां, उनका नाम शारदा देवी था। उन्होंने रामेश्वरी नेहरू के स्‍त्री दर्पण की तर्ज पर 1916 से लेकर 1930 तक महिला दर्पण नामक पत्रिका निकाली थी। शारदा देवी 1935 में  बिहार लेजिस्लेटिव काउंसिल की सदस्य थीं। यानी वे बिहार की पहली महिला विधायक थीं। वे आजादी की लड़ाई में जेल भी गई थीं।

आपको साहित्य-कला से लगाव कैसे हुआ?

मैंने कलकत्ता में साधना बोस से नृत्य सीखा था, जो अपने जमाने की प्रसिद्ध कलाकार थीं और केशवचंद्र की पोती और नैना देवी की बहन थीं। दिनकर जी मेरे घर आते थे। उन्होंने मुझे एक बार  अपनी किताबें देते हुए कहा था- जब बड़ी हो जाओगी तो इन पर नृत्य करना। मैंने रश्मिरथी पर नृत्य का कार्यक्रम पेश किया था।

आपकी पढ़ाई-लिखाई कहां-कहां हुई?

मेरी स्कूली शिक्षा कलकत्ता के लोरेटो हाउस, मुंबई के जीसस मेरी कान्वेंट, पटना के सेंट जोसफ और दिल्ली के मेटर डे कान्वेंट में हुई। दिल्‍ली के मिरांडा हाउस से भौतिकी में बीएससी की। फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से ही एमएससी किया। पीएचडी के लिए सीएसआइआर की जूनियर स्कॉलरशिप भी मिली पर पूरी नहीं कर सकी। बाद में पंजाब यूनिवर्सिटी से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में एमफिल किया। फिर मद्रास से 1976 में इंडियन ऑडिट ऐंड एकाउंट सर्विस में आ गई।

पहला नृत्‍कार्यक्रम कहां और कब हुआ?

मेरा पहला विधिवत डांस मुजफ्फरपुर में हुआ था। तब पिता जी की पोस्टिंग कलकत्ता में थी। बंबई में जब चार साल की थी तब पहली बार डांस किया था। बड़े होने पर यह बात मेरी मां ने बताई थी।

साधना बोस के बाद किससे नृत्‍सीखा?

साधना बोस 1953 से 1954 तक मेरी गुरु रहीं। 1955 से 1961 तक कुंदनलाल सिसोदिया मेरे गुरु रहे। 1962 के दिसंबर में मैं दिल्‍ली आ गई। 1964 से बिरजू महाराज से सीखा। वे घर पर आकर मुझे सिखाते थे। फिर तो नृत्य का सिलसिला शुरू हो गया और अपने समय के मशहूर तबलावादक गोदई महाराज, किशन महाराज वगैरह की संगत में नृत्य किया।

आपकी प्रेरणाशक्ति मां थीं या पिता?

मेरी मां ललिता नारायण समाजसेविका और राजनीतिक थीं। उन्‍होंने बनारस हिंदू विश्विद्यालय से 1943-44 में हिंदी में एमए किया था और गोल्ड मेडलिस्ट थीं। वे साहित्यालंकार थीं। उनकी रचनाएं विशाल भारत और धर्मयुग आदि में छपी थीं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की 1966 में मनोनीत सदस्य थीं। आल इंडिया विमेंस फोरम की अध्यक्ष थीं। बिहार महिला समिति भी उन्होंने बनाई थी। उन्होंने कुमारप्पा की दो किताबों का अनुवाद अंग्रेजी से हिंदी में किया था।

पंडित नेहरू के साथ ललिता नारायण

पंडित नेहरू के साथ ललिता नारायण

वे बीएचयू हॉस्टल में रामदुलारी सिन्हा उनकी रूममेट थीं, जो देश की श्रम मंत्री बनीं। मेरी मां बिहार की बड़ी श्रमिक नेता भी थीं। नेहरू जी, इंदिरा जी, राजीव जी, सब उनको निजी तौर पर जानते थे। साठ के दशक में दिल्ली महिला कांग्रेस की उपाध्यक्ष भी रहीं। पटना से 1980 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रामावतार शास्‍त्री से कुछ वोटों से हार गई थीं। मेरा ननिहाल मुजफ्फरपुर था और ददिहाल आरा। मेरे पूर्वज राजस्थान से बिहार में बसे थे और ननिहाल के लोग कश्मीर से।

उस जमाने में पटना के सांस्‍कृतिक माहौल के बारे में बताइए?

सत्तर के दशक में पटना में दशहरा पूजा के समय सांस्कृतिक समारोह हुआ करते थे। उसमें मैं भी एक युवा नृत्यांगना के रूप में भाग लेती थी। वह जमाना  सितारा देवी, रोशन कुमारी का था। बड़े-बड़े कलाकार आते थे। बिस्मिल्ला खान, गोदई महाराज, किशन महाराज, वीवी जोग आदि-आदि। न जाने कितने कलाकार आते थे। सात दिनों तक कार्यक्रम चलते थे। कभी इस मोहल्ले में तो कभी उस मोहल्ले में। हजारों की संख्या में लोग आते थे। शाम सात बजे से लेकर सुबह सात बजे तक कार्यक्रम होते रहते थे। वह अद्भुत दृश्य और अनुभव था। पहले जूनियर लोगों का कार्यक्रम होता था, बाद में सीनियर लोगों का।

वह दौर कब और कैसे बदला?

1992 के बाद से समाज बदला। भूमंडलीकरण और बाजार का असर हुआ। मीडिया पर भी असर हुआ। राजनीति बदली, उसका भी असर हुआ। साहित्य और संस्कृति से प्रेम करने वाले राजनीतिक कम हो गए। मध्यवर्गीय परिवारों में नृत्य और संगीत सीखने की परंपरा अभी समाप्त तो नहीं हुई, अब भी लोग सीख रहे हैं लेकिन पहले हम साधारण लोगों के घरों में भी जिस तरह से नृत्य-संगीत सीखते थे, आज वह माहौल नहीं है। इसलिए दर्शक भी बदल गए। बॉलीवुड हावी हो गया। टीवी कल्चर आ गया। सीरियल, नेटफ्लिक्स का जमाना आ गया।

अब क्‍या फर्क देखती हैं?

मुझे याद है जब पटना में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे तब अखबार वाले फ्रंट पेज पर छापते थे लेकिन अब तो कोई नहीं छापता। बहुत बड़ा कलाकार हो तो उसके मरने की खबर फ्रंट पेज पर छोटी-सी छप जाती है कभी-कभी। लेकिन बीते जमाने के दिग्गज कलाकारों की जन्मशती गुजर जाती है, मीडिया में नहीं छपता। सितारा देवी, गोदई महाराज की जन्मशती बीत गई, किसी को पता नहीं चला। अंग्रेजी के अखबारों में भी कम छपता है। अब तो लिखने वाले भी कम हैं। लीला वेंकटरमण भी वृद्ध हो गईं। मंजरी सिन्हा भी अब अमेरिका में हैं। संगीत पर लिखने वाले कुलदीप कुमार और रवींद्र मिश्र जैसे लोग बचे हैं। मुकेश गर्ग भी नहीं रहे। नई पीढ़ी को यह पता नहीं कि नैना देवी गायिका हैं या नृत्यांगना।

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