एक बात भारत के बारे में वर्षों से कही जाती रही है कि यहां दो देश बसते हैं। एक संपन्न वर्ग का और दूसरा वंचित वर्ग का। लेकिन बीते दो वर्षों में यह खाई चौड़ी हुई है। मुंबई स्थित थिंकटैंक प्राइस (पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी) की रिपोर्ट हो या विश्व असमानता रिपोर्ट, सबमें गैर-बराबरी में इजाफे पर ही मुहर लगती है। 2022-23 के बजट में जो कदम उठाए गए हैं, उनसे यह गैर-बराबरी और बढ़ेगी। जिस पूंजीगत खर्च में 35 फीसदी वृद्धि का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, एक तो उसका असर तत्काल नहीं दिखेगा। दूसरे, वह पूंजी बहुल क्षेत्र है, श्रम बहुल नहीं। जबकि इस समय जरूरत असंगठित क्षेत्र, किसान और युवा को तत्काल राहत की थी। कोविड-19 महामारी ने बीते दो वर्षों में इनकी स्थिति बहुत खराब की है। प्राइस की सर्वे रिपोर्ट बताती है कि 2015-16 से 2020-21 तक पांच वर्षों में सबसे गरीब वर्ग की आमदनी 52.6 फीसदी, निम्न मध्य वर्ग की 32.4 फीसदी घट गई और मध्य वर्ग की 8.9 फीसदी घट गई। उच्च मध्य वर्ग की कमाई सात फीसदी बढ़ी लेकिन जीडीपी में गिरावट के बावजूद सबसे अमीर वर्ग की आमदनी 20 फीसदी बढ़ी है। आखिर एक ही संकट का समाज के दो वर्गों पर विपरीत असर क्यों पड़ा है? जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और इस समय यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ, यूके में सेंटर फॉर डेवलपमेंट के विजिटिंग प्रोफेसर और आइजेडए इंस्टीट्यूट ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स, बॉन में रिसर्च फेलो प्रो. संतोष मेहरोत्रा ने आउटलुक के हरिमोहन मिश्र और एस.के. सिंह के साथ बातचीत में इसकी वजहें और इससे निकलने के उपाय बताए। मुख्य अंशः
आर्थिक सुधारों के बाद पहली बार गरीब, निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग की आमदनी घटी है। हर संकट के बाद अमीर ज्यादा अमीर और गरीब, ज्यादा गरीब क्यों हो जाते हैं?
ऐसा हमेशा नहीं होता। हां, यह सच है कि 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद गैर-बराबरी बढ़ी है। 2004 तक कुल आबादी में गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का अनुपात घट रहा था। लेकिन 30 वर्षों तक गरीबों की कुल संख्या लगातार 32 करोड़ के आसपास बनी रही। 1994 से 2004 के बीच विकास दर बढ़ी तो गरीबों की संख्या 1.8 करोड़ कम हुई, हालांकि यह आंकड़ा नहीं के बराबर है। इसकी तुलना में 2004-05 से 2011-12 के बीच 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए। यह बिल्कुल अप्रत्याशित सफलता थी। देश की आबादी में गरीबों का अनुपात भी घटकर 22 फीसदी रह गया था। इसके तीन बड़े कारण थे। एक, 2004 से 2014 के बीच विकास दर आठ फीसदी के आसपास बनी रही। दूसरे, इससे उद्योग और सेवा क्षेत्र में नौकरियों में अच्छी वृद्धि हुई। हर साल 75 लाख नई नौकरियां दी गईं। तीसरे, इस दौरान मजदूरी की दर महंगाई की तुलना में ज्यादा बढ़ी।
गैर-बराबरी धीमे-धीमे बढ़ना और बात है। गरीबी घट रही है तो गैर-बराबरी बढ़ने का उतना असर नहीं होता है। लेकिन पिछले डेढ़-दो साल से सभी आंकड़े बता रहे हैं कि गैर-बराबरी तो बढ़ी पर गरीबी नहीं घटी। 2012 के बाद 2019-20 तक कोविड-19 की शुरुआत से पहले तक गरीबों की संख्या डेढ़ करोड़ बढ़ गई। इसका सबसे बड़ा कारण गलत आर्थिक नीतियां रहीं। सबसे बड़ी गलती तो नोटबंदी थी। जीएसटी गलत तरीके से लागू करने का भी असर हुआ। कॉरपोरेट टैक्स की दरों में अचानक कटौती कर दी गई और वोट के लिए व्यक्तिगत इनकम टैक्स छूट की सीमा बढ़ा दी गई। इससे सरकार के राजस्व पर बहुत असर पड़ा।
एक ही संकट (कोविड) का अलग-अलग वर्ग पर विपरीत असर क्यों हुआ?
इसके कई आयाम हैं। जब देश में सिर्फ 600 कोविड-19 के मामले थे तब यहां दो महीने तक दुनिया का सबसे सख्त लेकिन अनियोजित लॉकडाउन लागू किया गया। कोविड के कारण दुनिया की विकास दर तो शून्य से तीन फीसदी नीचे आई, लेकिन भारत में 2020-21 में विकास दर -7.3 फीसदी (संशोधित 6.6 फीसदी) पर पहुंच गई।
आत्मनिर्भर भारत पैकेज में भी खामियां थीं। पैकेज का बड़ा हिस्सा क्रेडिट के रूप में था। राहत पैकेज दो तरह के होते हैं, बजट में खर्च बढ़ा कर और टैक्स घटा कर राहत दी जाती है। 2008 में यही किया गया था। तब राहत पैकेज का आकार जीडीपी का 3.5 फीसदी था। उस संकट का भारत पर असर कोविड से ज्यादा था। मौजूदा सरकार ने आत्मनिर्भर पैकेज में 2020-21 में जीडीपी के 2.2 फीसदी के बराबर राहत दी। 2021-22 में करीब दो फीसदी और राहत दी है। यानी दो साल में जीडीपी के चार फीसदी के बराबर राहत दी गई है। दूसरे विकासशील देशों ने पहले साल ही 4.7 फीसदी का राहत पैकेज दिया था।
सरकार के सामने खर्च बढ़ाने में क्या दिक्कत है?
वह पहले ही (मार्च 2020) कंगाली के कगार पर खड़ी थी। लगातार नौ तिमाही से विकास दर गिर रही थी और टैक्स रेवेन्यू घट रहा था। उसी समय सरकार ने वोट की खातिर व्यक्तिगत आयकर में छूट की सीमा बढ़ा दी और कॉरपोरेट इनकम टैक्स की दर घटा दी। सरकार ने 2015 के बजट में ऐलान किया था कि हर साल एक फीसदी कटौती करके कॉरपोरेट टैक्स दर को पांच साल में 30 फीसदी से 25 फीसदी पर लाया जाएगा। पहले चार वर्षों तक तो सरकार ने घटाया नहीं, लेकिन जब अर्थव्यवस्था सबसे कमजोर स्थिति में थी तब एक बार में पांच फीसदी घटा दिया। इससे सरकार की आय एकदम 1.5 लाख करोड़ रुपये घट गई। सरकार ने इस उम्मीद में कॉरपोरेट टैक्स घटाया कि निवेश दर बढ़ेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि लगातार घटती विकास दर के कारण मांग कम हो रही थी और कंपनियां क्षमता से बहुत कम उत्पादन कर रही थीं।
बेरोजगारी दर जो पहले ही 2019 में 48 साल के उच्चतम स्तर पर थी, महामारी के दौरान और खराब हुई। महामारी की दूसरी लहर आई तो सरकार को फिर राहत पैकेज देना चाहिए था, लेकिन नहीं दिया गया। इससे आमदनी और घटी, मजदूरों ने पलायन किया। एमएसएमई इकाइयां जो पहले लड़खड़ा रही थीं, दूसरी लहर के दौरान बैठ गईं। दूसरी तरफ, इस संकट में लिस्टेड कंपनियों को फायदा हुआ। उनका मुनाफा सात वर्षों में जितना बढ़ा उतना पहले कभी नहीं बढ़ा था। इसके बावजूद उन्होंने निवेश नहीं बढ़ाया है। मुनाफे का इस्तेमाल उन्होंने अपना एक-तिहाई कर्ज लौटाने में किया। इस दौरान उच्च मध्य वर्ग और अमीर वर्ग के खर्चे कम हो गए थे। लोग कहीं निकल नहीं रहे थे। तब अनेक युवाओं ने शेयर बाजार में निवेश करना शुरू किया। 2020-21 में हर महीने लगभग 10 लाख नए खुदरा निवेशक जुड़ रहे थे। उनकी आमदनी शेयर बाजार के साथ बढ़ी।
निचले वर्ग पर महामारी का असर तो ज्यादा था ही, बेरोजगारी भी बढ़ती गई। 2012 से 2019 के दौरान गैर-कृषि क्षेत्र में सालाना नौकरियों की संख्या 75 लाख से घटकर 29 लाख पर आ गई थी। यानी महामारी से पहले ही बेरोजगारी और विषमता बढ़ रही थी। महामारी में असंगठित क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हुआ। इससे बेरोजगारी बढ़ी और कमाई घटने लगी।
विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार निचले 50 फीसदी लोगों की औसत आय पिछले साल घटी। लेकिन इसमें से भारत का आंकड़ा निकाल दें तो औसत आय बढ़ी है। यानी भारत की स्थिति ज्यादा खराब हुई है। तो, क्या भारत दुनिया को भी पीछे खींच रहा है?
समस्या यह है कि सरकार इन तथ्यों को हमेशा नकारती रही है। चाहे मुद्रा योजना में रोजगार का दावा हो या उत्तर प्रदेश में चार लाख सरकारी नौकरियां देने का, सारे आंकड़े गलत हैं। सरकार अपने आंकड़े तो जारी करती नहीं, सीएमआइई के आंकड़े को यह कहकर नकार देती है कि वह प्राइवेट है।
असमानता कोई नई बात नहीं। उसे बदलने की कोशिश क्यों नहीं होती?
इसके लिए सरकार को पहले स्वीकार करना पड़ेगा कि बेरोजगारी और गैर-बराबरी है। सरकार ने 2017-18 के अपने ही आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए क्योंकि उन आंकड़ों के मुताबिक गरीबी बढ़ी थी। जब सरकार कमजोरी को स्वीकार नहीं करेगी तो वह काम क्यों करेगी। सत्तारूढ़ भाजपा के नेता दलील देते हैं कि लोग खुश हैं तभी तो उसे वोट दे रहे हैं। यही कारण है कि उपचुनावों में हार मिली तो उसे लगा कि कृषि कानून वापस लेने चाहिए।
इस स्थिति से निकलने का रास्ता क्या है?
जीएसटी संग्रह भले बढ़ रहा हो, लेकिन सच तो यह है कि अगर 2021-22 में विकास दर 9.5 फीसदी रही तब भी जीडीपी का आकार 2019-20 के स्तर पर होगा। प्रति व्यक्ति आय तो 2018-19 से भी नीचे होगी, जिसके कारण खपत घट रही है। राजस्व के लिए सरकार को अमीरों के इनकम टैक्स पर सरचार्ज बढ़ाना चाहिए। 2015 में वेल्थ टैक्स खत्म करके एक करोड़ रुपये से अधिक सालाना आमदनी वालों पर दो फीसदी अतिरिक्त सरचार्ज लगाया था। इसे चार फीसदी किया जाना चाहिए। कॉरपोरेट टैक्स पर भी नया सरचार्ज लगाना चाहिए, भले ही वह दो साल के लिए हो। एमएसएमई के रिवाइवल के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए। इससे नौकरियां भी बढ़ेंगी। सरकार ने 2020 में जो राहत पैकेज गिनाए थे, उसमें एमएसएमई की बकाया राशि और आम लोगों के टैक्स रिफंड को भी जोड़ लिया था।
अगर ये कदम नहीं उठाए गए तो हालात और बदतर होंगे। मध्यम अवधि में औसतन सात फीसदी विकास की उम्मीद थी, वह घटकर पांच फीसदी रह जाएगी। सरकार 2025 तक जीडीपी के पांच लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचने की बात कह रही थी। 2020 में जीडीपी 2.66 लाख करोड़ डॉलर की थी। वहां से दस साल में पांच लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचने के लिए सालाना सात फीसदी विकास चाहिए। यानी 2031 से पहले वहां तक पहुंचना वैसे भी मुमकिन नहीं लगता।
आगे चुनाव हैं और सरकार को पैसे की जरूरत होगी। इसलिए शीर्ष कॉरपोरेट घरानों तक केंद्रित नीतियों के बदलने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन पानी युवाओं के सिर के ऊपर पहुंच गया है। युवा अब इन नीतियों को बर्दाश्त नहीं करेगा। उस दबाव में सरकार नीति बदल दे तो बात और है।