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इंटरव्यू/एस.वाइ. कुरेशी: “तीन गुना ईवीएम बनाने में ही दो-चार साल लग जाएंगे”

कहा जाता है कि चुनाव के दौरान सरकारी काम ठप हो जाते हैं। यह अतिरंजना है
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाइ कुरेशी

संसद के विशेष सत्र और ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की बहस पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाइ कुरेशी से हरिमोहन मिश्र ने बातचीत की। मुख्य अंशः

 

लोकसभा चुनाव से पहले छेड़ी गई ‘एक देश एक चुनाव’ की मुहिम को कैसे देखते हैं?

ये नई बात नहीं है। दस साल से यह बहस चल रही थी, अब बस इसकी पिच बढ़ा दी गई है। कमेटी बनी है (पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुआई में आठ सदस्यीय कमेटी का ऐलान हुआ मगर लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीररंजन चौधरी ने शामिल होने से इनकार कर दिया), उसका मैनडेट बड़ा है, इसलिए कमेटी भी साल-छह महीने लेगी रिपोर्ट बनाने में। उसके बाद परीक्षण होगा। इसलिए मैं नहीं जानता कि इस कमेटी से जल्दबाजी में क्या हासिल होगा। अंदाजा लगाना मुश्किल है, लेकिन इतनी सशक्त कमेटी है, अप्रत्याशित रूप से उच्चाधिकार प्राप्त, तो देखेते हैं, कौन-सा फॉर्मूला निकल कर आता है।

जल्दबाजी इतनी कि कानून मंत्रालय के सचिव फौरन कोविंद साहब को ब्रीफ कर आए?

वे ब्रीफ भले ही कर आए हों, लेकिन सारे पहलू देखने होंगे। तीन कमेटियां पहले बैठ चुकी हैं। अब तक के क्या सुझाव हैं, क्या लाभ-हानि है, उन्हें  देखना होगा। हो सकता है सेक्रेटरी साहब ने उन बैठकों के मिनट्स और रिजॉल्यूशन का कोई ड्राफ्ट बनाकर रखा हो। ब्रीफ तो उन्हें करना ही था। कमेटी जब बैठेगी तो बातचीत में कुछ वक्त लगेगा ही, बटन दबाकर तो रिपोर्ट आ नहीं जाएगी।

दो विधि आयोगों की रिपोर्टें हैं। जितनी कानूनी पेचीदगियां हैं वे पहले ही बताई जा चुकी हैं। फिर हरीश साल्वे और सुभाष कश्यप से क्या सलाह चाहती होगी सरकार?

अव्वल तो लॉ कमीशन की रिपोर्ट का वे परीक्षण करें। इसमें तो हरीश साल्वे के अलावा कोई वकील भी नहीं है। कौन ऐसा विषय का जानकार है जो नई रोशनी डाल सकेगा? सुभाष कश्यप तो बीमार हैं, 95 साल के हैं। फिर इस कमेटी में बचा कौन- पूर्व राष्ट्रपति और उनका पूर्व सचिव। यह भी अजीब बात है कि दोनों इस कमेटी में हैं। पूर्व राष्ट्रपति का कमेटी में होना ही अप्रत्याशित है। कोई भी कमेटी होती है, उसकी रिपोर्ट पर कोई असिस्टेंट नोटिंग करेगा, एसओ लिखेगा, अंडर सेक्रेटरी लिखेगा। य‌ह तो पूर्व राष्ट्रपति के कद के उपयुक्त नहीं। हमें तो यही समझ नहीं आया। गृह मंत्री इसमें सदस्य हैं लेकिन वे तो सबसे ज्यादा व्यस्त होते हैं। वैसे भी कमेटियां पहले से बदनाम हैं कि वे बैठकें कर केवल बहस करती हैं और अगली बैठक की तारीख तय कर लेती हैं।

इसमें क्या-क्या संशोधन लाने की जरूरत पड़ सकती है और कोई शॉर्टकट भी है क्या?

मुझे तो नहीं दिखता। अब यह कमेटी क्या‍ संशोधन लाती है, देखना होगा। 2018 में जस्टिस बी.एस. चौहान की लॉ कमीशन ने पहले ही लाभ-हानि का परीक्षण करके बताया था कि संविधान के पांच अनुच्छेद और दस अनुसूचियों में बदलाव करना पड़ेगा। इसके अलावा जन प्रतिनिधित्व कानून में भी परिवर्तन करना होगा। संसदीय प्रक्रिया भी बदलनी पड़ेगी। अनुच्छेद 73, 75, 180, 184 और 356, पांच अनुच्छेद में संशोधन करना होगा। संवैधानिक संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत चाहिए होगा। राज्यों की सहमति भी जरूरी होगी। कभी आता है कि आधे राज्य चाहिए, कभी दो-तिहाई बताए जाते हैं। चाहे जो हो, काम बड़ा है और इसमें समय लगना है। अभी तो बस मीडिया में बहस हो गई और पूरा देश इस बहस में फंस गया।

क्या संयुक्त सत्र लाकर भी इसे पास कराया जा सकता है?

मुझे संसदीय प्रक्रियाओं का सटीक अंदाजा नहीं लेकिन हो सकता है, ला सकते हैं।

इसकी हिमायत में दो दलील दी जाती है- गवर्नेंस में सुधार होगा और चुनाव खर्च में कमी आएगी। ये दलीलें कितनी दमदार हैं?

कुछ हद तक तो दम है। एक चुनाव में जितना खर्च होता है, दो में दोगुना और तीन में तिगुना हो जाता है, लेकिन कुल चार हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं चुनाव के प्रबंधन में। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चार हजार करोड़ रु. बचाने की बात! इतना तो रोज के प्रचार और विज्ञापन पर ही खर्च होता है, उस पर राष्ट्रीय बहस चल रही है। दूसरा, जो साठ हजार करोड़ रुपये राजनीतिक दलों ने चुनाव पर 2019 में खर्च किया, जैसा सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट में आया था, इसमें दो बातें हैं। कुछ लोग कहते हैं यह बुरी चीज है। कुछ का कहना है यह अच्छा है क्योंकि नेताओं का पैसा आम लोगों और गरीब आदमी के पास पहुंच जाता है। उस लिहाज से रोजगार सृजन होता है, यह अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर है। उस लिहाज से इसे घटाना गरीब के साथ ज्यादती होगी। पूणे में एमआइटी में एक यूथ पार्लियामेंट में छत्तीसगढ़ की एक लड़की ने बड़ा अच्छा स्लोगन दिया, जिसे मैं आज तक याद करता हूं, “जब-जब चुनाव आता है, गरीब के पेट में पुलाव आता है।” अब आप गरीब की पेट पर लात मारने की बात कर रहे हैं। अब उसे पांच साल में एक बार ही पुलाव मिलेगा। ओडिशा के बीजद के नेता महताब भर्तृहरि दूसरी बात कहते हैं। वे कहते हैं कि जनता से पूछो, वह क्या चाहती है। उन्होंने कहा कि जनता बार-बार होने वाले चुनाव से खुश हैं क्योंकि उसके पास तो एक वोट की ही ताकत है, कम से कम बार-बार चुनाव होंगे तो नेता बार-बार उसके पास जाएगा, वरना पांच साल शक्ल नहीं दिखाएगा। बार-बार नेता के जाने से जवाबदेही बढ़ती है।

तीसरी चीज, यह कहा जाता है कि चुनाव के दौरान सरकारी काम ठप हो जाते हैं। यह अतिरंजना है। आप अगर चुनाव आचार संहिता पढ़ें, उसमें केवल इस पर जोर है कि सब कुछ करिए, बस नई योजनाओं की घोषणा मत करिए। चार साल ग्यारह महीने सत्ता में रहने पर तो नई स्कीमें आतीं नहीं, चुनाव से पहले ही चमकदार नुस्खे जाने कैसे सूझ जाते हैं। ये जरूर है कि कई चरणों में होने के कारण ढाई-तीन महीने तक चुनाव चलते हैं, पर इसका भी इलाज है। आप जो अर्धसैन्य बलों की 800 कंपनी देते हैं उसके बजाय 4000 कंपनी एक साथ दे दीजिए, एक महीने के भीतर चुनाव हो जाएंगे। फिर, कई चरणों वाले चुनावों में जातिवाद, सांप्रदायिकता का जहर ज्यादा फैलता है। लंबा जहर फैलाने के बजाय तीस दिन के अंदर जहर फैला लो, फिर पांच साल देश को सुकून में रहने दो। अगर खर्चा घटाना भी है, तो विकल्प यह है कि अभी राजनीतिक दलों के ऊपर खर्च की कोई पाबंदी नहीं है। लोकसभा का उम्मीदवार 80 लाख रु. के ऊपर खर्च नहीं कर सकता, लेकिन पार्टी आठ करोड़ या अस्सी करोड़ तक खर्च कर देती है। सीलिंग का तर्क यह था कि गरीब आदमी भी चुनाव लड़ सके। आप चुनावी खर्च पर रोक लगा दीजिए कि उम्मीदवार 80 लाख रु. और पार्टी भी उतना ही खर्च कर सकती है। फिर चुनाव खर्च 60,000 करोड़ रु. से घटकर 6000 करोड़ रु. पर आ जाएगा। यह काम सरकार आधे मिनट में कर सकती है। किसी कमेटी या बहस की जरूरत नहीं है। मैं यह कितनी बार लिख चुका हूं।

चुनाव आयोग को इसके लिए तैयारी में कितना समय लग सकता है?

चुनाव आयोग को ज्यादा दिक्कत नहीं है। बस ईवीएम तीन गुना चाहिए (तीन स्तरीय चुनाव लोकसभा, विधानसभा और पंचायत के चुनाव एक साथ होंगे)। दो चीजें हैं- एक तो लॉजिस्टिक जरूरत का मसला है। हम मशीनों को हर चुनाव के बाद रीसाइकिल करते हैं। बीस लाख मशीनें अगर हैं, तो चालीस लाख और बनानी पड़ेंगी। ईवीएम और वीवीपैट दोनों। खर्च तो एक तरफ, लेकिन इतनी मशीनें बनाने में भी दो-चार साल लगेंगे।

कमेटी ने पहले ही निष्कर्ष तय कर दिया है, यह भी अजीब बात है...

हां, अधीररंजन चौधरी ने इस्तीफे में लिखा है कि आपने तो पहले ही कह दिया है कि ये करना है। करना चाहिए या नहीं, इसका विकल्प ही नहीं दिया है। दो-दो लॉ कमीशन बैठ चुके हैं, संसदीय कमेटी हो चुकी है, सबने कहा है कि इतना आसान नहीं है।

कुछ लोगों का कयास है कि यह संविधान की संघीय प्रणाली को बदलने की मंशा है?

विपक्षी दल भी कह रहे हैं, यह संघवाद पर हमला है। भारत प्रांतों का एक संघ है, जिसका मतलब है, सहभागी इकाइयां उसकी पहचान हैं। उन्हीं से मिलकर संघ बना है। इसलिए यह संघीय ढांचे पर हमला है ताकि दिल्ली से पूरे देश पर राज किया जा सके।

चौहान लॉ कमीशन ने 2018 में कहा था कि इसकी शुरुआत कुछ राज्यों के चुनाव एक साथ करवा कर की जा सकती है। क्या आगामी पांच राज्यों के चुनावों को लोकसभा के साथ करवाया जा सकता है या टाला भी जा सकता है?

टाला तो एक दिन भी नहीं जा सकता, लेकिन लोकसभा पहले भंग कर चुनाव करवाया जा सकता है। हां, लोकसभा के साथ पांच-छह राज्यों के चुनाव हो सकते हैं। फिर एक साथ दो किस्तों में चुनाव बगैर किसी संवैधानिक संशोधन के हो सकते हैं।   

क्षेत्रीय दलों के वजूद पर संकट हो सकता है?

बिलकुल, इसी वजह से तो वे शोर मचा रहे हैं। बाकी दलों का महत्व खत्म, फिर एक चेहरा होगा जो चुनाव पर छाएगा। तकनीकी दिक्कत भी है। यह न भूलिए कि त्रिस्तरीय चुनाव होते हैं और तीनों स्तरों के चुनाव की बात कमेटी में है। हालांकि पिछले कुछ बरस में बहसों में पंचायत चुनाव को भुला दिया गया था। तीस लाख सरपंचों की बात है, इन्हें छोड़कर आप सिर्फ 4120 विधायकों और 543 सांसदों की ही बात करें, तो प्रस्ताव का क्या महत्व रह गया? फिर एक चुनाव का मतलब ही क्या रह गया? बेहतर है कि लोकसभा के साथ कुछ राज्यों के चुनावों को जोड़ दें। बिना संवैधानिक संशोधन के ही ये काम हो जाएगा।

क्या यह आगे का एजेंडा तय करने की कोशिश है? जैसे, यूसीसी को छोड़ दिया गया है, तो शायद यह संकेत देने की मंशा हो कि अगली बार आएंगे तब ये सब करेंगे।

हो सकता है। हम नहीं जानते कि मकसद क्या है। संसदीय सत्र को लोग इसके साथ जो जोड़ रहे हैं, तो कमेटी के पास कोई जादू तो है नहीं कि तीन दिन में रिपेार्ट दे देगी और अगले हफ्ते संसद इसे पास कर देगी। हो सकता है दोनों का कोई ताल्लुक न हो। सुनने में आ रहा है कि सत्र में महिला आरक्षण बिल आ रहा है। मैं उसका स्वागत करता हूं। अब नए संसद भवन में सीटें भी बढ़ गई हैं। अगर वे करना चाहें तो हो सकता है क्योंकि एक पार्टी के अलावा बाकी दलों ने इसे मान लिया था। इसकी बहुत जरूरत भी है। दो सौ मुल्कों की ग्लोबल इंडेक्स में लोकतंत्र के मामले में भारत बहुत पीछे है। औरतों का आरक्षण हमारी रैंकिंग को अचानक बढ़ा देगा। रैंकिंग कम आती है तो मैसेंजर को ही शूट करना शुरू कर दिया जाता है, बजाय इसके कि अपने गिरेबान में झांकें कि दिक्कत क्या है। इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए।

चुनाव आयोग पर भी बहुत विवाद है...

आपने खुद ही जवाब दे दिया, क्या कहा जाए। जनता को सब दिखाई देता है। अच्छा करो चाहे बुरा करो, संस्थाओं की हमारे यहां क्या हालत है, यह तो सबको मालूम है।

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