बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद भी चार बार सांसद रहे शत्रुघ्न सिन्हा ने इन दिनों अपने स्वभाव के विपरीत लो प्रोफाइल अपना रखा है। इससे यह कयास भी लगाए जाने लगे हैं कि वे भारतीय जनता पार्टी में वापसी कर सकते हैं। 2019 के आम चुनाव से पहले वे भाजपा छोड़कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए थे। गिरिधर झा के साथ बातचीत में बॉलीवुड के इस वरिष्ठ कलाकार ने इन कयासों पर विराम लगाते हुए कहा कि वे चुनाव में पूरे दमखम के साथ उतरने के लिए तैयार हैं। बातचीत के मुख्य अंशः
कई हफ्तों की अनिश्चितता के बाद आखिरकार बिहार में चुनाव होने जा रहे हैं। हालांकि कोविड-19 महामारी का साया अभी बना हुआ है और वर्चुअल रैलियां आम हो गई हैं। इस चुनाव को लेकर आपका क्या अनुमान है?
पहली बात तो यह कि अभी चुनाव होना ही नहीं चाहिए था। सबसे बड़ा सवाल अब भी बना हुआ है कि मौजूदा हालात में कितने लोग वोट देने आएंगे। राजद नेता तेजस्वी प्रसाद यादव ने आशंका जताई थी कि अगर महामारी के समय चुनाव कराए गए, तो मतदाताओं को मतदान केंद्र से सीधे अस्पताल जाना पड़ सकता है। इसके बावजूद चुनाव की घोषणा कर दी गई, तो अब हम सबने इसे स्वीकार कर लिया है। हम पूरे दमखम और तैयारी के साथ इसमें उतरने जा रहे हैं। यह किसी एक पार्टी की बात नहीं, बल्कि सभी पार्टियों की बात है, सिवाय उनके जिनके पास सभी संसाधन और धनबल है।
आपकी राय में इस बार बिहार की चुनावी लड़ाई क्या आकार ले रही है?
यह चुनाव काफी अस्त-व्यस्त लग रहा है। अनेक लोग और अनेक पार्टियां अपने-अपने कारणों से मैदान में उतर आई हैं। कुछ लोग दूसरों से बदला लेने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं, तो कुछ सत्ता हासिल करने के लिए। कुछ तो सिर्फ अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए मैदान में हैं। फिर भी कुछ लोग हैं जो वास्तव में बिहार के विकास के लिए लड़ रहे हैं। इस चुनाव में निवेश की कमी और किसानों की हालत जैसे मुद्दे भी हैं, लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजगारी की ऊंची दर है। सत्ता में हिस्सेदारी पाने के लिए अनेक लोगों की मौजूदगी से यह चुनाव उलझा हुआ लग सकता है, फिर भी इसके काफी रोचक होने की उम्मीद है। अंत में कुछ नई बातें देखने को मिल सकती हैं।
इस चुनाव में कांग्रेस के लिए क्या उम्मीदें हैं?
हम युवाओं के साथ जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं। युवा महागठबंधन, खासकर कांग्रेस की तरफ बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं। राहुल गांधी ने महत्वपूर्ण मुद्दों को जिस तरह से उठाया है, उससे लोगों पर काफी असर हुआ है। चाहे वह कोविड-19 का मुद्दा हो, चीन की घुसपैठ हो, आर्थिक संकट हो या राष्ट्रीय महत्व का कोई अन्य मुद्दा, राहुल हमेशा आगे रहे हैं। लोगों को समस्याओं के बारे में चेताने वाले वे पहले नेता हैं।
क्या महागठबंधन नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए को कड़ी टक्कर दे रहा है?
एक बात साफ है कि हमारा गठबंधन कड़ी टक्कर देगा। हालांकि कुछ लोगों को आशंका है कि बिहार में खिचड़ी सरकार की स्थिति बन सकती है, जैसा फरवरी 2005 में हुआ था। लेकिन मुझे उम्मीद है और मैं ऐसी कामना भी करता हूं कि वैसी परिस्थिति फिर न पैदा हो।
लेकिन एनडीए का कहना है कि विपक्ष मुकाबले में कहीं भी नहीं है और महागठबंधन चुनाव से पहले ही बिखर गया है, खासकर जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी के निकलने के बाद।
विपक्षी दलों के बीच असंतोष की बातें हो रही हैं, लेकिन ऐसा हर चुनाव में होता है। नेता धन और सत्ता के लालच और यहां तक कि ब्लैकमेल के कारण पार्टियां बदलते हैं। ‘विपक्ष कहां है’ अब ऐसा कहना घिसा-पिटा हो गया है। सच्चाई तो यह है कि मीडिया में विपक्ष को उचित स्थान नहीं दिया जाता है। तथाकथित गोदी मीडिया में बमुश्किल 20 फीसदी स्थान विपक्ष को मिलता है। अगर कोई कनिष्ठ मंत्री या सत्ताधारी पार्टी का साधारण कार्यकर्ता भी कोई बयान देता है तो वह इन चैनलों के लिए राष्ट्र के नाम संदेश हो जाता है। उसे दिखाना इन चैनलों का राष्ट्रीय कर्तव्य बन जाता है। इसलिए उन्हें ज्यादातर सरकारी विज्ञापन मिलते हैं। बिहार से केंद्र में जाने वाले ज्यादातर नेता अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। बिहार के लिए जो 1.5 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान किया गया था, वह कहां है? यह सिमटकर 16,000 करोड़ रुपये का रह गया है, वह भी कई वर्षों में मिलेगा।
आप बिहारी बाबू नाम से जाने जाते हैं। वर्षों से चुनाव के दौरान आपकी शख्सीयत भीड़ जुटाने वाली रही है। क्या आप इस बार चुनाव प्रचार में हिस्सा नहीं लेंगे?
जब तक मैं पार्टी में हूं, मैं पूरे दिल से इसकी सेवा करने के लिए तैयार हूं। हालांकि कोरोना वायरस के कारण लोगों को जुटाने में कई तरह की पाबंदियां हैं, फिर भी जहां जरूरत होगी मैं उपलब्ध रहूंगा। जैसा कि मैंने अपने नए लोकप्रिय वीडियो में कहा है- चल जरूरत में जरूरी हो जाते हैं...।
कांग्रेस में आपके अलावा मीरा कुमार, निखिल कुमार और तारिक अनवर जैसे बड़े नेता हैं जो बिहार से आते हैं। कुछ लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि पार्टी उनकी सेवाएं क्यों नहीं ले रही है ताकि राज्य में वह फिर कदम जमा सके?
आपने जिनके नाम लिए वे सब बड़े नेता हैं और मैं उन सबका सम्मान करता हूं। फिर भी इन सबके पीछे कुछ कारण तो होगा। कुछ लोगों को लगता है कि गठबंधन में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी को 70 से अधिक सीटें मिलनी चाहिए थी। वे इस बात से निराश होंगे कि राजद को कांग्रेस की तुलना में दोगुनी सीटें मिली हैं, वह भी तब जब लालू प्रसाद मैदान में नहीं हैं। उन लोगों को लगता है कि हमें सीट बंटवारे पर और मोलभाव करना चाहिए था।
राजनीति के अनेक जानकारों का कहना है कि अगर कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ती तो बेहतर होता।
हां, लोग ऐसा कह रहे हैं, लेकिन अब जब गठबंधन हो चुका है तब मेरे लिए इस विषय पर कुछ कहना उचित नहीं होगा। हम चुनाव के मध्य में हैं। हम बीच में कुछ नहीं कर सकते और न ही ऐसा करना चाहिए।
लोजपा नेता चिराग पासवान ने एनडीए से हटकर अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। इस पर आप क्या कहेंगे? क्या आप मानते हैं कि यह नीतीश कुमार को कमजोर करने की बड़ी योजना का हिस्सा है?
दिवंगत रामविलास पासवान देश के बड़े नेताओं में से एक और काफी मंझे हुए थे। लोग उन्हें मौसम वैज्ञानिक कहते थे लेकिन मैं इसे सकारात्मक अर्थों में लेता हूं। वे इतने अनुभवी थे कि चुनाव के ट्रेंड को पहले से ही भांप लेते थे। उनका न होना दुखद है। चिराग युवा हैं, स्मार्ट हैं, सक्षम हैं लेकिन इतनी जल्दी किस बात की? लोगों का कहना है कि उन्हें सहानुभूति का फायदा मिलेगा, लेकिन जिस तरह गठबंधन में नीतीश कुमार को अलग किया गया है उससे उन्हें भी तो सहानुभूति मिल सकती है। लालू प्रसाद को भी सहानुभूति मिल सकती है क्योंकि चुनाव से पहले उन्हें जमानत नहीं मिली। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली की शीला दीक्षित की तरह नीतीश की भी व्यक्तिगत छवि काफी अच्छी है। सिर्फ उनकी पार्टी के खिलाफ उम्मीदवार क्यों खड़े किए जा रहे हैं और चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री की तस्वीरें लगाने पर विवाद क्यों हो रहा है? काफी भ्रम की स्थिति है। समय ही बताएगा कि क्या होने वाला है। मेरी तरफ से सबको शुभकामनाएं।