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“मैं पैसे के लिए कभी नफरत नहीं बेचूंगा”

निर्माता-निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने पहली बार कश्मीर की पृष्ठभूमि पर थ्रिलर फिल्म खामोश (1985) बनाई थी।
विधु विनोद चोपड़ा

निर्माता-निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने पहली बार कश्मीर की पृष्ठभूमि पर थ्रिलर फिल्म खामोश (1985) बनाई थी। वही कश्मीर, जहां उनका बचपन बीता था। इसके बाद निजी जीवन में वे और गहरे उतरे और 2020 में शिकारा फिल्म लेकर आए। यह कश्मीरी पंडितों पर बॉलीवुड में बनी शायद पहली फीचर फिल्म है जिसने उनकी भावनाओं को व्यक्त किया, हालांकि कुछ ने इसका विरोध भी किया। लक्ष्मी देबरॉय के साथ बातचीत में चोपड़ा ने कश्मीर, अपनी यादों और फिल्म से जुड़े विवाद के बारे में बताया। मुख्य अंशः

 

आपकी यादों में जो कश्मीर बसा है, उसके बारे में बताइए।

कश्मीरी हमेशा कश्मीरी ही रहता है। वहां की खूबसूरती, लोगों की गर्मजोशी, खान-पान, विरासत, संस्कृति सब मेरी यादों में गहरे बसे हुए हैं। उन्हें कोई भी मुझसे अलग नहीं कर सकता। कश्मीर में बड़ा होना, मेरे साथ हुई सबसे अच्छी बातों में से एक है। मेरा पहला क्रश, पहला प्यार, पहला चुंबन, सब कश्मीर में ही हुआ। मैं अपने बच्चों से कहता हूं- मुझे अफसोस है कि तुम्हें कश्मीर में बचपन बिताने के मौका नहीं दे पाया।

कल्पना कीजिए, वहां साल के सभी चार मौसम हैं। पहले वसंत है, फिर गर्मी। फिर सेब पकते हैं और फिर चेरी। इसके बाद बर्फ गिरती है और मौसम बेहद ठंडा हो जाता है। रजाई में दुबके हुए गरमा-गरम खाने का लुत्फ लेना। स्कूल से लौटते ही बुखारी के पास बैठकर ट्रांजिस्टर पर बिनाका गीतमाला सुनना। मैं यह सब याद करता हूं। अगर मुझे दोबारा जीवन जीने का मौका मिले, तो मैं भगवान से कहूंगा कि वह मुझे कश्मीर में फिर जन्म दे। आज की तमाम समस्याओं के बाद भी यह खूबसूरत है।

1970 के दशक में परिवार के साथ हाउसबोट में सफर करना मेरी सबसे खूबसूरत यादों में एक है। करीब हफ्ते भर के सफर के बाद हम खीर भवानी मंदिर पहुंचते थे। रास्ते में ही खाना बनाते थे। बीच में हजरतबल दरगाह पर रुकते थे। हम हर साल वहां जाते थे। दोनों पूजास्थलों को लेकर हमारे मन में कोई भेद नहीं था।

मेरी मां की भी अनेक यादें हैं, किसी एक को बताना मुश्किल है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण था प्रेम और स्नेह का संस्कार, नफरत से नफरत करने का संस्कार। उनसे ये संस्कार हमारे भीतर समा गए। अनेक तकलीफों से गुजरने के बावजूद वे सकारात्मक बनी रहीं। वे अच्छी तरह जानती थीं कि उनके व्यवहार का उनके बच्चों और नाती-पोतों पर क्या असर होगा, इसलिए वे हर जख्म को प्यार से भरती रहीं। मुझे लगता है कि यह मेरे डीएनए में है। मैं उनकी सीख ताउम्र याद रखूंगा। शिकारा की कहानी के जरिए मैंने बताने की कोशिश की है कि प्रेम कैसे जख्म भरता है।

फिल्म बनाने में 11 साल कैसे लग गए?

शिकारा मेरी मां को श्रद्धांजलि है। परिंदा के प्रीमियर के लिए वे 1989 में मुंबई आई थीं, लेकिन वापस कश्मीर नहीं जा सकीं। शिकारा उनके घर, मेरे घर और उस घर को खो देने की कहानी है। यह काफी हद तक व्यक्तिगत है। 2007 में मां के गुजर जाने के बाद मैंने शिकारा पर काम शुरू किया। कश्मीरी पंडितों के पलायन के बारे में सबको पता है, लेकिन इस पलायन के पीछे की घटनाओं और जटिलताओं के बारे में किसी को नहीं मालूम।

इस फिल्म के लिए काफी शोध की जरूरत थी ताकि हम तथ्यों पर आधारित, दिलचस्प तरीके से कहानी कह सकें। मैंने कई वर्षों तक इस पर काम किया। शायद यह मेरा सबसे चुनौतीपूर्ण काम था, क्योंकि एक तरफ तो सच्चाई दिखाने के लिए फिल्मकार के रूप में मुझे निष्पक्ष रहना था, दूसरी ओर यह भी दिखाना था कि सिर्फ प्रेम से ही नफरत को खत्म किया जा सकता है। यही मेरी फिल्म का केंद्र बिंदु है। नायक शिव कुमार धर और शांति धर (शांति मेरी मां का भी नाम है) के बीच का प्रेम हमें नफरत से परे सोचने पर मजबूर करता है।

फिल्म की ज्यादातर शूटिंग कश्मीर में हुई। हम कड़ी सुरक्षा के बीच काम करते थे, इसलिए हमारे पास सीमित समय था। फिल्म लिखने में भी बहुत समय लगा क्योंकि परदे पर वास्तविकता को दर्शाने के लिए मुझे अनेक दस्तावेज खंगालने पड़े और वीडियो फुटेज देखने पड़े। इस सब के बीच समय निकलता चला गया।

कश्मीरी पंडितों की कहानी महत्वपूर्ण क्यों है?

तीस साल पहले चार लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडित कश्मीर में अपना घर छोड़ने पर मजबूर हो गए और अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। अभी तक वे घाटी में अपने घर नहीं लौट पाए हैं। उन्होंने अपना घर, विरासत और आत्मसम्मान सब कुछ खो दिया। फिर भी आजादी के बाद के इस सबसे बड़े शरणार्थी संकट को देश की जन चेतना में कभी जगह नहीं मिली। मुझे इस बात से बड़ी कोफ्त होती है कि सरकारों, मीडिया, सिविल सोसायटी और बुद्धिजीवियों ने पंडितों के मुद्दे पर आंखें मूंद लीं। हम सब कुछ न कुछ कश्मीरी पंडितों को जानते हैं, लेकिन कोई यह नहीं जानता कि उन्होंने कितना कुछ खोया है।

हमने कभी नहीं सोचा था कि यह सिलसिला लंबा खिंचेगा। आतंकवाद और कश्मीर के भीतर आंतरिक संघर्ष को संभालने में हमारी अक्षमता ने कश्मीर को एक अशांत राज्य बनाए रखा। इस कारण पंडितों की वापसी का सवाल कहीं खो गया। अगर पंडित लौटते, तो यह इलाका ज्यादा अच्छा, शांतिपूर्ण और आर्थिक रूप से समृद्ध होता। स्थानीय लोग चाहते हैं कि सभी समुदाय एक साथ आएं। शिकारा मुख्यधारा की पहली फीचर फिल्म है, जिसने 30 साल पहले जो हुआ उस पर दोबारा चर्चा शुरू की।

यह विडंबना थी कि पंडितों ने फिल्म को ट्रोल किया। क्या यह विवाद जानबूझ कर पैदा किया गया था? यह बात राजनीति के बारे में आज क्या बताती है?

यह शायद पहली और आखिरी बार है, जब मैं विवाद के बारे में कुछ कह रहा हूं। फिल्म की रिलीज वाले दिन, दिल्ली में एक विशेष स्क्रीनिंग रखी गई थी, जहां मैंने कई कश्मीरी पंडितों को आमंत्रित किया था। उन्होंने खड़े होकर फिल्म की तारीफ की। तभी पीछे बैठी एक महिला ने चिल्लाना शुरू कर दिया और कहा कि मैंने फिल्म में ज्यादा हिंसा और नफरत नहीं दिखाई। उन्हें इस बात पर भी ऐतराज था कि फिल्म में मुस्लिम कलाकारों ने पंडितों की भूमिका क्यों निभाई।

मैं हतप्रभ रह गया। महिला के साथ मौजूद एक व्यक्ति घटना की रिकॉर्डिंग करने लगा। उसे सोशल मीडिया पर वायरल किया गया और कुछ ही मिनटों में फिल्म को गलत तरीके से पेश करते हुए ट्रोल किया जाने लगा। जांच करने पर हमें पता चला कि कुछ लोगों ने दिल्ली-एनसीआर की दो डिजिटल मार्केटिंग एजेंसियों को यह सब करने के लिए हायर किया था। फिल्म को कुछ नुकसान पहुंचाने के लिए उन्हें बड़ी रकम दी गई थी।

यह जबरन खड़ा किया गया विवाद था और फिल्म की रिलीज से कई दिन पहले इसकी योजना बनाई गई थी, क्योंकि चीखने-चिल्लाने वाली महिला दोपहर को कनॉटप्लेस के प्लाजा सिनेमा से सीधे नोएडा पहुंच गई और खबरिया चैनलों पर घंटो इंटरव्यू देती रही। जाहिर है, उन्हीं लोगों ने महिला को भेजा था। इसके बाद चंद घंटों में हमारी आइएमडीबी रेटिंग 8.1 से गिरकर 1.5 रह गई। इससे क्या पता चलता है? ये लोग कश्मीरी पंडितों पर ऐसी फिल्म चाहते थे जो नफरत और हिंसा को बढ़ावा दे। वे ऐसी फिल्म चाहते थे जो दो समुदायों के बीच की खाई और चौड़ी करे ताकि वे अपना राजनैतिक एजेंडा आगे बढ़ा सकें।

केंद्र सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों और अधिकारियों के लिए भी शिकारा की स्क्रीनिंग की गई थी, उनमें से कई ने मेरे काम की प्रशंसा की। लेकिन फिल्म को लेकर नकारात्मकता इतनी अधिक थी कि ज्यादातर लोग इसे देखने सिनेमाघर गए ही नहीं। जब टेलीविजन पर शिकारा दिखाई गई तो मेरे पास ऐसे मैसेज की बाढ़ आ गई कि फिल्म और इसमें दिया गया संदेश कितना अच्छा है। जाने-माने कश्मीरी कलाकार मसूद हुसैन ने टीवी पर फिल्म देखने के बाद मुझे फोन किया और कहा कि लोग नफरत से इस कदर अंधे हो गए हैं कि उन्हें शिकारा में दिया गया शांति और प्रेम का संदेश भी नहीं सूझा। लेकिन मेरा मानना है कि कभी देर नहीं होती।

क्या आपको ऐसा लगता है कि ज्यादा लोगों को पसंद आने वाली फिल्म बनानी चाहिए थी?

सिनेमा बेहद शक्तिशाली और प्रभावशाली माध्यम है और कलाकार के रूप में समझदारी से इसका इस्तेमाल करना मेरा दायित्व है। समाज में चल रही सांप्रदायिक कलह और घृणा को सिनेमा के माध्यम से बढ़ावा देना बहुत आसान है। मैं और अधिक हिंसक और शायद ज्यादा लाभ कमाने वाली फिल्म बना सकता था, लेकिन मैं पैसे के लिए कभी नफरत नहीं बेचूंगा क्योंकि नफरत सिर्फ नफरत को और हिंसा सिर्फ हिंसा को जन्म देती है। अपनी कहानी में मैंने अतिरेक की जगह संयम और नरसंहार की जगह मार्मिकता को चुना। घटनाओं को दिखाने की प्रतीकात्मक राह चुनी। ए.आर. रहमान ने जब यह फिल्म देखी तो उन्हें यह बात काफी पसंद आई कि हिंसा करने वालों की सिर्फ छाया दिखाई गई, क्योंकि हिंसा का कोई चेहरा नहीं होता। उन्होंने इस फिल्म पर महीनों मेहनत की, क्योंकि उनका मानना है कि अतीत के जख्मों को भरना ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। मैं खुद इस दर्शन में दृढ़ विश्वास करता हूं और बेहद आशावादी हूं।

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