सरकार ने 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने की अधिसूचना जारी की है। इसके क्या मायने और राजनैतिक निहितार्थ हैं?
वर्तमान शासक, प्रधानमंत्री और उनके आसपास के लोग कई कारणों के चलते वर्तमान में नहीं जीना चाहते। वे भूतकाल या भविष्य में जीना चाहते हैं। इसीलिए इमरजेंसी और संविधान की हत्या का हौवा खड़ा कर रहे हैं। किसी ने पूछा, कि संविधान की हत्या हो गई तो क्या मरे हुए संविधान को लेकर हम लोग चल रहे हैं? दरअसल उस समय (1975 में) संविधान में आंतरिक इमरजेंसी का प्रावधान था। उस प्रावधान के तहत जो व्यवस्था थी, उसके तहत संवैधानिक ढंग से इमरजेंसी लागू की गई। वह ठीक था या गलत था वह दूसरा सवाल है, लेकिन इमरजेंसी लागू करने का अधिकार था और सरकार ने उस अधिकार का प्रयोग किया। अब वह अधिकार नहीं है। 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई, तो संविधान के 44वें संशोधन के जरिये उस प्रावधान को ही खत्म कर दिया गया। इसीलिए हम सब लोग महसूस कर रहे हैं कि अघोषित इमरजेंसी चल रही है। इसका मतलब कि इमरजेंसी की घोषणा तो की नहीं जा सकती, लेकिन बहुत तरह के उपाय किए जा सकते हैं जिससे संविधान का हनन होता है। यही चल रहा है आज के दिन। इसी को छुपाने के लिए अतीत की घटनाओं को बेढंगे ढंग से पेश करने की कोशिश है। इतिहास उघाड़ने लगेंगे, तो बहुत घातक होगा वर्तमान शासकों के लिए। वजह यह कि इनका जो अतीत है उस पर कोई भी गर्व नहीं कर सकता।
अघोषित इमरजेंसी के क्या-क्या लक्षण आपको दिखाई देते हैं?
सबसे बड़ा लक्षण है लोगों के मन में भय पैदा करना। जब 1975 में इमरजेंसी लगी थी तो उसका सबसे बड़ा मकसद लोगों में भय पैदा करना था। मैं तो सरकारी नौकरी में था, लेकिन वे दिन मुझे याद हैं कि कैसे लोग भयभीत थे। मुझे याद है कि पटना में मैं कहीं जा रहा था, पांच-सात लोग सड़क के किनारे खड़े कुछ बात कर रहे थे, तभी पुलिस की गाड़ी का साइरन सुनाई दिया तो सब लोग फौरन तितर-बितर हो गए। तो, भय था। लोगों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया, जबरन नसबंदी हो रही थी, उसके चलते भय था। यानी एक अनिश्चितता के वातारण में लोगों को धकेल दिया गया था। यही इमरजेंसी की सबसे बड़ी खासियत थी।
आज जो अघोषित इमरजेंसी है, उसके तहत प्रजातंत्र की जितनी संस्थाएं हैं, सरकार ने उनको दबाकर उन पर कब्जा कर लिया है। उनके माध्यम से लोगों के मन में डर पैदा कर रही है कि हमारी बात नहीं मानेंगे तो जेल जाएंगे। जैसे इमरजेंसी में राजनैतिक नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था, उसी तरह आज भी राजनैतिक नेताओं को किसी न किसी बहाने जेल में डाल दिया जा रहा है। जो विरोध करेगा, वह जेल जाएगा। कितने ही लोग जेल में सड़ रहे हैं। कितने ही मानवाधिकार कार्यकर्ता और सरकार से असहमत विचार रखने वाले लोग जेल में वर्षों से बिना अभियोग-पत्र दाखिल हुए जेल में हैं। एक तो यह बात है।
दूसरी बात मैं कह रहा था संस्थाओं की। प्रजातंत्र को जिंदा रखने के लिए प्रजातंत्र की संस्थाओं को जिंदा रखना जरूरी है। अगर संस्थाएं मर गईं या उनमें ताकत ही नहीं बची, तो प्रजातंत्र मरेगा भले नहीं, मगर कमजोर हो जाएगा। दरअसल प्रजातंत्र की जितनी संस्थाएं हैं, वे 2024 के आम चुनाव के पहले मृतप्राय थीं। अभी थोड़ी-बहुत जान उनमें आ रही है। जैसे, शासक दल में आंतरिक लोकतंत्र है क्या? नहीं है। बाहरी लोकतंत्र के मामले में इसके पहले पार्लियामेंट दबी-कुचली थी। कई कानून बिना बहस के पास कर दिए गए थे। करीब 150 विपक्षी सांसदों को निष्काषित कर दिया गया। अब उसमें थोड़ी जान दिख रही है क्योंकि शासक दल की संख्या घटकर 240 पर आ गई है। तो, पार्लियामेंट मृतप्राय हो गई थी, न्यायपालिका पर दबाव बना रहता था। कई तरह की कहानियां सार्वजनिक डोमेन में हैं। कार्यपालिका तो बिलकुल ही अधीन थी। पार्लियामेंट निष्क्रिय हो गई थी। मीडिया का जो हाल था और चुनावी नतीजों के बावजूद आज भी है, वह सबके सामने है। मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है, वह खंभा ही कोलैप्स कर गया। इसी तरह चुनाव आयोग की स्वतंत्रता नहीं बची। इन चुनावों में भी उसके रवैये पर कई सवाल उठे। तो, सब मिलाकर प्रजातंत्र की संस्थाएं ही मृतप्राय हो गईं। उनमें जान बची ही नहीं। इस तरह अघोषित इमरजेंसी लागू हो गई देश में।
मौजूदा जनादेश से क्या फर्क देखते हैं?
फर्क तो पड़ा है, मगर दिखाने की कोशिश है कि कुछ हुआ ही नहीं। प्रधानमंत्री मोदी का स्वभाव ही प्रजातांत्रिक नहीं है। इसी पार्टी के अटल जी का स्वभाव काफी प्रजातांत्रिक था। मैं तो उनकी सरकार में चार साल वित्त मंत्री था। अटल जी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और पार्लियामेंट में विश्वास करते थे। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र में विश्वास करते थे। यह सब मोदी में नहीं है। उनका स्वभाव ही नहीं है। उनका स्वभाव अधिनायकवादी है।
सरकार के रंग-ढंग में कोई फर्क आता आपको नहीं दिख रहा?
सरकार के रंग-ढंग में तब तक कोई फर्क नहीं आएगा जब तक भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं होती है। इसकी संभावना अभी तो नहीं दिख रही है, लेकिन वह दिन भी दूर नहीं जब यह दिखने लगेगा क्योंकि लोकसभा चुनाव के नतीजों से धक्का लगा है। अभी जो उपचुनाव हुए कई राज्यों में उसमें धक्का लगा (कुल 13 उपचुनावों में भाजपा सिर्फ दो जीत पाई। उत्तराखंड की बद्रीनाथ की सीट भी गंवा बैठी)। इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों (महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड) में भी धक्का लगना तय है। इसलिए धीरे-धीरे यह सरकार कमजोर होती जाएगी और मेरा मानना है कि कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी। या तो गिर जाएगी या मोदी खुद कहेंगे कि अब चुनाव में चलो।
बजट आ रहा है तो उससे जुड़े कुछ सवाल हैं। अभी हाल में 2015 के बाद पहली दफा असंगठित क्षेत्र के आए आंकड़ों में करीब 1.6 करोड़ रोजगार खत्म हो जाने की बात है।
जिसे हम असंगठित या एमएसएमई सेक्टर कहते हैं वह सेक्टर किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होता है क्योंकि यह विकेंद्रित है, पूरे देश में फैला है, सबसे ज्यादा रोजगार इसी में पैदा होता है। फिर, औद्योगिक उत्पादन में इस सेक्टर का महत्वपूर्ण यानी 40 फीसदी से ज्यादा योगदान है। दरअसल असंगठित क्षेत्र के लिए कोई आंकड़े नहीं हैं, इसलिए औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने-घटने के आधार पर उसमें भी उसी अनुपात में बढ़ोतरी या गिरावट आंक ली जाती है। यह सामान्य परिस्थिति की बात है। लेकिन देश असामान्य परिस्थिति से गुजरा है और अब भी गुजर रहा है। उसकी वजहें तीन हैं। पहले नोटबंदी हुई, उससे असंगठित क्षेत्र की रीढ़ टूट गई। उसके बाद जीएसटी आया। जीएसटी जिस ढंग से लागू हुआ, उसमें भी सबसे ज्यादा नुकसान इसी क्षेत्र को हुआ। तीसरा, कोविड में लॉकडाउन का झटका आया। लाखों मजदूर औद्योगिक केंद्रों से पैदल या जैसे-तैसे गांव लौट गए। उसका आकलन कहीं नहीं हुआ। असंगठित क्षेत्र बर्बाद हो गया, लेकिन सरकार उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है कि संगठित क्षेत्र में अच्छा होगा तो असंगठित क्षेत्र भी बढ़ेगा। यह उलटबांसी जैसा है। असंगठित क्षेत्र की बर्बादी से ही विकास दर में भारी गिरावट आई जिससे रोजगार संकट भी पैदा हुआ। अब मोदी कह रहे हैं कि चार साल में आठ करोड़ रोजगार पैदा हुए। कहां कर दिया? मोदी विपक्ष में नहीं हैं, वे सरकार के मुखिया हैं। उनको आंकड़ों के साथ स्पष्टीकरण देना पड़ेगा कि कहां रोजगार पैदा हुआ, कैसे पैदा हुआ।
दूसरी स्थिति कृषि क्षेत्र की है। कृषि लाभदायक नहीं हो पा रही है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकार आंकड़े पेश करती है कि 25 करोड़ लोग गरीबी (मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी) से ऊपर उठ गए हैं और सिर्फ पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। लेकिन 82 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज तो बांट रहे हैं? क्यों? सच्चाई यह है कि बहुत सारे लोग ऊपर बताई तीन वजहों से गरीबी रेखा से नीचे चले गए। अभी वे उससे उबरे नहीं हैं।
इस बजट में बदलाव दिखेगा या नहीं?
लीपापोती होगी। तथाकथित उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाएगा। फिर सारे प्रचार-तंत्र से इतना प्रचारित किया जाएगा कि लोग समझें कि सच्चाई यही है। सरकार का मजबूत पक्ष यही है कि प्रचार तंत्र पर पूरा कंट्रोल पा लिया गया है। डंकापति बन जाना एक बात है, सचमुच की उपलब्धि दूसरी बात है। जब कोई चुनौती मानने को तैयार ही नहीं हैं तो बजट में क्या करेंगे? सबसे बड़ी दिक्कत यही है, कि सरकार नकारने की मुद्रा में है।
सहयोगी दलों में नीतीश बाबू और नायडु दोनों विशेष दर्जे या पैकेज की मांग कर रहे हैं। इसका बजट पर फर्क पड़ेगा?
चंद्रबाबू नायडु ने कह दिया है कि उनकी कई मांगों का बजट में जिक्र होना चाहिए। नीतीश बाबू भी अपनी मांगों के बजट में जिक्र की उम्मीद करेंगे। लेकिन हमारे यहां की व्यवस्था है कि एक राज्य को जो देंगे, वह सभी राज्यों को देना पड़ेगा। हम तो झेल चुके हैं नायडु को। हम जानते हैं कि वे किस तरह दबाव पैदा करते हैं। इसलिए नायडु और नीतीश की मांगों का बजट में उल्लेख होता है तो बाकी राज्य नाराज होंगे, दिक्कत पैदा हो जाएगी।
आखिरी बात यह है कि राजकोषीय घाटे को देखना होगा। उसी के आधार पर तय होता है कि सरकार बाजार से कितना कर्ज उठाएगी। बजट घाटे को काबू में रखने के लिए एफआरबीएम कानून बना है। ये लोग फाइनांस बिल में इसमें संशोधन कर दे रहे हैं, जिस पर ध्यान कम जाता है। मूल कानून में राजकोषीय घाटे को 2006-07 के तीन फीसद के आसपास लाने की बात थी। 2024 में घाटा 5.6 फीसद है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले दस साल में सरकार ने यूपीए के दस साल के मुकाबले दोगुना से ज्यादा कर्ज लिया है।