भारत में क्रिकेटर बनना आसान नहीं है। यहां लाखों लोग यह खेल खेलते हैं और हजारों विभिन्न राष्ट्रीय टीमों में मेरिट के आधार पर जगह बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। इन टीमों में किसी भी समय खिलाड़ियों की संख्या 20 से कम (आमतौर पर 16) ही होती है। हां, यह जरूर है कि अगर हालात अलग तरह के हों, जैसा कोविड-19 महामारी के दौरान हुआ, तो टीम में ज्यादा खिलाड़ी रखे जा सकते हैं। बेशक इसके लिए सर्वशक्तिमान भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) का आशीर्वाद जरूरी है। हालांकि तब भी टीम में शामिल हर खिलाड़ी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने का मौका नहीं मिलता है। किसी भी क्रिकेटर के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करना ही सबसे बड़ा सपना होता है। वास्तविकता यह है कि किसी भी राष्ट्रीय टीम में शामिल होना, चाहे वह जूनियर टीम हो या सीनियर, बहुत ही कठिन है। इसके लिए प्रतिभा के साथ भाग्यशाली होना भी जरूरी है। और फिर गंभीरता भी होनी चाहिए, जिसका अभाव ज्यादातर प्रतिभाशाली खिलाड़ियों में दिखता है।
सौभाग्यवश भारत के बच्चों के लिए क्रिकेट किसी संस्थान से बढ़कर है। इस खेल को अक्सर पूरे देश के लिए मनोरंजन का जरिया भी कहा जाता है। इसमें करियर की उम्मीदें भी अन्य किसी भी खेल की तुलना में ज्यादा हैं। लेकिन बात वही है कि हर प्रतिभा को सपने पूरे करने का मौका नहीं मिलता। ज्यादातर तो हाशिए पर ही चले जाते हैं।
उन्मुक्त चंद ठाकुर का उदाहरण लीजिए। दिल्ली के 19 साल के लड़के ने 2012 में तीसरी बार युवा विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया था। वह राष्ट्रीय टीम में भी शामिल होने के प्रति आश्वस्त था। लेकिन आज 28 साल की उम्र में वह अपनी वफादारी बदलने के लिए बाध्य है।
अंडर-19 विश्व कप 2022 जीतने के बाद भारतीय टीम
बीसीसीआइ और भारतीय क्रिकेट को अलविदा कहते हुए दाएं हाथ के इस बल्लेबाज ने अगस्त 2021 में एक भावनात्मक टिप्पणी लिखी कि ‘मैं दुनिया में बेहतर मौके तलाश रहा हूं’। यहां ‘मौका’ शब्द गौर करने लायक है। उन्मुक्त जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के लिए भी यह कहना मुश्किल है कि भारतीय टीम में उसे जगह मिलेगी। आखिरकार वह अमेरिका चला गया।
भारत ने पहला अंडर-19 विश्व कप वर्ष 2000 में मोहम्मद कैफ की कप्तानी में जीता था। उस टीम में से सिर्फ कैफ और युवराज सिंह भारतीय टीम में नियमित जगह बना सके। उनके साथी खिलाड़ी वेणुगोपाल राव, अजय रात्रा और रीतिंदर सोढ़ी यदा-कदा ही अंतरराष्ट्रीय मैचों में दिखे।
यही स्थिति 2008, 2012 और 2018 की टीम के खिलाड़ियों की है। 2008 की टीम के कप्तान विराट कोहली के साथ रविंद्र जडेजा ही भारत के ड्रेसिंग रूम में नियमित जगह पा सके। उन्मुक्त की 2012 की अंडर-19 वर्ल्ड कप विजेता टीम का कोई भी खिलाड़ी सीनियर टीम में अपनी पहचान नहीं बना सका। सिवाय हनुमा विहारी के जिन्हें कभी टेस्ट टीम में रखा जाता है तो कभी बाहर कर दिया जाता है।
2018 की टीम के पृथ्वी शॉ और उनके साथी खिलाड़ियों के लिए भी इन दिनों परीक्षा की घड़ी है। शॉ को आखिरी 11 खिलाड़ियों में जगह बनाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ी। वही हाल उनके उपकप्तान शुभमन गिल का है। और अब हमारे सामने 2022 की विजेता टीम आ गई है। भारत ने पांचवीं बार अंडर-19 विश्व कप जीता है।
अंडर-19 विश्व कप में भारत जैसा प्रदर्शन किसी और टीम का नहीं रहा है। अब तक खेले गए 14 टूर्नामेंटों में भारत ने आठ बार फाइनल खेला है। दो बार भारत की टीम तीसरे स्थान पर रही। बीते दो दशकों में विश्व विजेता अंडर-19 टीम ने अनेक खिलाड़ी दिए हैं। लेकिन उनमें से चुनिंदा ही भारतीय टीम में नियमित रूप से जगह बना सके। हर विराट कोहली के पीछे एक उन्मुक्त चंद है, हर युवराज सिंह के पीछे एक विद्युत शिवरामकृष्णन है। यह एक ऐसा विरोधाभास है जिसकी परिणति अनेक खिलाड़ियों की बदकिस्मती होती है।
राज बावा
उन्मुक्त पहले भारतीय पुरुष खिलाड़ी हैं जिन्हें बिग बैश लीग में खेलने का मौका मिला। हालांकि यह मौका भी बीसीसीआइ से अलग होने के बाद ही मिला। फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि अंडर-19 के ज्यादातर खिलाड़ियों को अपने सपने साकार करने का मौका नहीं मिलेगा।
इंग्लैंड को हराकर भारत को पांचवां अंडर-19 विश्व कप दिलाने वाली यश ढल्ल की टीम में कई प्रतिभाशाली खिलाड़ी हैं। जैसे शाइक रशीद, रवि कुमार, राज बावा, निशांत सिंधु, विकी ओसवाल। कैरिबियाई देशों में उनके प्रदर्शन के चलते ये नाम घर-घर में मशहूर हो गए हैं। ये लोग एशियाई चैंपियन भी हैं।
पिछले एक दशक में भारतीय टीम ने अंडर-19 विश्व कप के 36 मैचों में से 32 मैच जीते हैं। यानी इनकी जीत का प्रतिशत 88.89 है। यह किसी भी खेल में किसी भी टूर्नामेंट में सबसे अच्छा प्रदर्शन कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में भारतीय क्रिकेट में अब इस स्तर के क्वालिटी खिलाड़ी हैं और हर जीतने वाली टीम के खिलाड़ी भारत की सीनियर टीम में जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
उनके लिए उम्र के हिसाब से सीनियर घरेलू टीम और फिर अंतरराष्ट्रीय टीम में जगह बना पाना आसान नहीं होगा। जैसा हम पहले देख चुके हैं, चुनिंदा खिलाड़ी ही ऐसा कर पाने में सफल होते हैं। उनमें वीरेंद्र सहवाग, हरभजन सिंह, पार्थिव पटेल, सुरेश रैना, शिखर धवन, चेतेश्वर पुजारा, रोहित शर्मा, मयंक अग्रवाल, केएल राहुल जैसे खिलाड़ियों को भाग्यशाली कहा जा सकता है।
लेकिन दूसरी तरफ से ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो लगातार संघर्ष के बावजूद भारतीय टीम में जगह बना पाने में नाकाम रहे। ऐसे खिलाड़ियों की सूची ज्यादा लंबी है। इनमें विजय जोल, बाबा अपराजित, स्मित पटेल, विजय कुमार योमहेश, श्रीवत्स गोस्वामी, तन्मय श्रीवास्तव, रवनीत रिकी, प्रदीप सांगवान, अशोक मेनारिया, रीतिंदर सिंह सोढ़ी जैसे नाम शामिल हैं।
यश ढल्ल
खिलाड़ियों के सामने विकल्प तो है, जैसा उन्मुक्त ने किया, लेकिन वह रास्ता कांटों भरा है। यह भी कहा जा सकता है कि अब इंडियन प्रीमियर लीग जैसा टी-20 टूर्नामेंट हैं जहां खिलाड़ी अच्छी कमाई कर सकते हैं। लेकिन फ्रेंचाइजी क्रिकेट फ्रीलांस की तरह होता है। टी-20 लीग में नाम कमाने और देश का प्रतिनिधित्व करने में बहुत फर्क होता है।
दो साल बाद हमारे सामने अंडर-19 की एक और टीम होगी। हालांकि तब भी मौजूदा टीम के अनेक खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे। इनके अलावा वे खिलाड़ी भी हैं जो आइपीएल समेत दूसरे घरेलू टूर्नामेंट में उभरते रहते हैं।
इस बीच, चर्चा है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड नेशनल क्रिकेट अकादमी के साथ एक ऐसा ढांचा बना रहा है कि जिसमें अंडर-19 के आयु वर्ग से ऊपर आने वाले खिलाड़ी सिस्टम का हिस्सा बने रहें और उनके आगे बढ़ने की मॉनिटरिंग होती रहे। दरअसल, भारतीय प्रतिभाओं को ऐसी ही योजना की जरूरत है।