छह दिसंबर 1992 की घटना मेरी जिंदगी के सबसे अहम दिनों में एक था। उस दिन कारसेवकों ने अयोध्या में कारसेवा का ऐलान कर दिया था। शहर के बाहर कारसेवकों का जत्था पहुंचने लगा था। भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद के बड़े नेताओं की तरफ से हमें यह आश्वासन दिया गया था कि कारसेवक कुछ नहीं करेंगे। कारसेवक बहुत अलग तरह के लोग होते हैं। उनसे जो कहा जाएगा, उसे वे मान लेंगे। तर्क था कि 1990 में भी ऐसा ही हुआ था। उस समय लोगों ने कोई हिंसा नहीं की थी। ऐसा ही इस बार भी होगा। शुरू में ऐसा ही लग रहा था कि सब कुछ शांति से निपट जाएगा। सुबह शांति थी, 11 बजे तक ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था कि कोई अनहोनी होने वाली है। लेकिन सवा ग्यारह बजते-बजते पूरी तस्वीर ही बदल गई। पल भर में अयोध्या की गलियों में तकरीबन छह-सात लाख कारसेवक इकट्ठा हो गए। इसके बाद अगले आधे घंटे में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया था।
मैंने इसकी सूचना जब मुख्यमंत्री कार्यालय को दी तो उस समय स्पष्ट आदेश मिला कि किसी भी हालत में कारसेवकों पर गोली नहीं चलाई जाएगी। छह से सात लाख की संख्या में उन्मादी भीड़ के बीच मेरे पास सिर्फ चार हजार पुलिस जवान थे। ऐसे में हम क्या करते? केंद्र सरकार की तरफ से मदद के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल भी अयोध्या भेजे गए थे। अगर उन्हें हमारी मदद के लिए अयोध्या में प्रवेश करने दिया गया होता, तो शायद स्थिति कुछ और होती और मस्जिद विध्वंस होने से बच जाती। लेकिन उस वक्त मुख्यमंत्री कल्याण सिंह इसलिए नाराज हो गए थे कि जब राज्य सरकार ने केंद्र से अतिरिक्त सुरक्षा बल मांगा ही नहीं तो उन्हें क्यों भेजा गया? इन परिस्थितियों में हमारे पास असहाय बनकर रहने के अलावा कोई चारा नहीं था।
भीड़ में उन्माद बढ़ता जा रहा था। हाल यह था कि गुंबद को तोड़ने के जोश में बहुत-से लोग नीचे गिर रहे थे। उनके हाथ-पैर टूट रहे थे। उन्हें चोट लग रही थी। लेकिन इसकी परवाह किए बिना वे मस्जिद पर फिर चढ़ जाते थे। उस वक्त उन्हें मौत का भी डर नहीं था। एक जगह भीड़ ने मुझ पर और मेरी टीम पर हमला कर दिया। वे चीखते हुए कह रहे थे कि डीएम आ गया, अब गोली चलाएगा। जैसे-तैसे हमने उनको समझाया कि ऐसा कुछ नहीं होगा। शाम पांच बजते-बजते पूरी बाबरी मस्जिद को तोड़ डाला गया। इस बीच, लालकृष्ण आडवाणी सहित कई बड़े नेताओं ने शुरू में तो कारसेवकों को रोकने की कोशिश की, लेकिन लोगों का मूड देखकर थोड़ी ही देर में वे वहां से हट गए। विवादित स्थल पर कुछ छुटभैये नेता ही बचे थे। भीड़ इस तरह पागल थी कि शाम सात बजे तक उस जगह पर पड़े मलबे को ऐसे साफ कर दिया गया, जैसे वहां कोई मस्जिद थी ही नहीं। लोग मस्जिद की ईंटें भी अपने साथ लेकर चले गए। पूरे मामले को संभालने के लिए दिल्ली से वरिष्ठ अधिकारियों का दल हमारे पास पहुंचा। उनकी योजना थी कि विवादित स्थल पर पहुंच कर कब्जा कर लिया जाए। इसके लिए शहर के बाहर रोके गए केंद्रीय सुरक्षा बलों का इस्तेमाल किया जाना था। लेकिन जब रात आठ बजे के करीब टीम के साथ हम विवादित स्थल के करीब पहुंचे तो वहां डेढ़ से दो लाख लोग मौजूद थे।
भीड़ ने हमको देखते ही नारे लगाना शुरू कर दिया। वह हम पर हमला करने के लिए पागल हो रही थी। ऐसी स्थिति में अगर हम जरा भी सख्ती करते तो भीड़ को संभालना मुश्किल हो जाता। ऐसे में दिल्ली से आई टीम ने भी वहां से लौटने का फैसला कर लिया। कारसेवकों को यह आभास हो गया था कि हम लोग आने वाले हैं, इसलिए हमें रोकने के लिए उन्होंने रास्ते में पेड़ काटकर गिरा दिए थे। जगह-जगह टायर जल रहे थे। विवादित क्षेत्र के आसपास कारसेवकों का पूरा कब्जा था। इस दौरान उन्होंने बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर का निर्माण भी शुरू कर दिया था। इसके लिए वे मस्जिद के मलबे का ही इस्तेमाल कर रहे थे। रात भर में उन्होंने मंदिर के चबूतरे का निर्माण कर दिया और उसके चारों तरफ दीवार भी बना दी। सुबह होते-होते वहां की पूरी तसवीर ही बदल गई। जहां बाबरी मस्जिद हुआ करती थी, वहां एक अस्थाई मंदिर बन गया था।
मंदिर में पूजा-अर्चना भी होने लगी। इसके बाद प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। मुझे भी निलंबित कर दिया गया। लेकिन वह दिन जैसा बीता, उसका हमें तनिक भी आभास नहीं था। किसी भी तरह की इंटेलिजेंस रिपोर्ट नहीं थी कि कारसेवक बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने वाले हैं। इसलिए हमारी तरफ से भी ऐसी कोई तैयारी नहीं की गई थी। हमें केवल यह कहा गया था कि कारसेवक आएंगे और पूजा-अर्चना करके चले जाएंगे। लेकिन जो घटा, वह कुछ अलग ही था। यह मेरे जीवन का अहम हिस्सा बन गया।
(लेखक बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय फैजाबाद के जिलाधिकारी थे, उनका यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)