शनिवार 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने अयोध्या में विवादित 2.77 एकड़ भूमि का मालिकाना हक रामलला विराजमान को दे दिया और अब वहां राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ हो गया। देश के इतिहास में सबसे अधिक विभाजनकारी इस विवाद से कुछ राजनीतिक दलों को अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिला, जबकि दंगों में हजारों परिवारों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का सर्वसम्मति से आया फैसला देश के लिए नया रास्ता खोलने वाला है। इस फैसले के बाद देश भर में अमन-चैन बरकरार रहना यह दिखाता है कि धार्मिक उन्माद और विभाजनकारी ताकतों के लिए बहुत कम जगह बची है और 1992 तथा 1993 के भयावह दंगों के दौर से देश कहीं आगे निकल गया है। लोगों की प्राथमिकताएं बदल रही हैं। इस फैसले के बारे में भी न किसी की जीत और न किसी की हार की जो धारणा बनी है, वह भविष्य के लिए सकारात्मक संकेत है। संबंधित पक्षों ने फैसले के पहले ही कहा था कि न्यायालय जो भी फैसला करेगा, वह उन्हें मंजूर होगा। उसी परिपक्वता का परिचय उन्होंने फैसले के बाद दिया। हिंदुत्व हितों की बात करने वाली केंद्र में सत्ताधारी भाजपा ने फैसले को लेकर सहजता बरती, जबकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इसे विवाद को समाप्त करने वाला फैसला करार दिया। सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील माने जाने वाले उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों ने भी सधी, सकारात्मक प्रतिक्रिया दी।
असल में अयोध्या की विवादित 2.77 एकड़ भूमि के मालिकाना हक पर फैसला करना सुप्रीम कोर्ट के लिए भी बड़ी चुनौती थी। इसमें जहां कानून, संविधान और तथ्यों पर विचार करना था, वहीं आस्था भी एक बड़ा मुद्दा था। ऐसे में न्यायालय ने ऐतिहासिक तथ्यों और आस्था के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की। यही वजह है कि फैसला सर्वसम्मति से आया और फैसले पर किसी जज के हस्ताक्षर नहीं हैं। यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या यह फैसला बहुसंख्यक लोगों की आस्था को सर्वोपरि मानते हुए किया गया। लेकिन इसके लिए तमाम साक्ष्यों, तथ्यों, धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक घटनाक्रम को देखना-समझना होगा। सोलहवीं शताब्दी की मस्जिद को लेकर उन्नीसवीं शताब्दी से चल रहे विवाद के केंद्र में यह धार्मिक भावना रही कि हिंदू उसे राम का जन्मस्थान मानते हैं। इसके पुख्ता सबूत तो नहीं हो सकते क्योंकि यह आस्था का प्रश्न है।
लेकिन यहां सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ अहम पहलुओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। मसलन, 22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात में मस्जिद के केंद्रीय गुबंद में रामलला की मूर्ति रखने और मुसलमानों को मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ने से रोकने को सुप्रीम कोर्ट ने गैर-कानूनी करार दिया है। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सुप्रीम कोर्ट ने गैर-कानूनी करार दिया है। जो लोग मस्जिद ढहाने को महिमामंडित करते रहे हैं, उनके लिए यह झटका है।
ऐसे में अगर कानून के तहत राजनैतिक लोगों की इसमें भागीदारी साबित हो जाती है, तो उनको जेल जाना पड़ सकता है। इसमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से लेकर कई नेताओं के नाम शुमार हो सकते हैं। इसके साथ ही राम जन्मभूमि को छोड़कर बाकी धार्मिक स्थलों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1991 के कानून को बरकरार रखने की बात कही है। मतलब यह है कि 1947 की धार्मिक स्थलों की यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी। फैसले को संतुलित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकार से अयोध्या में ही मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन देने का आदेश दिया है। यह देश के सेक्युलर ताने-बाने को मजबूत करने वाला कदम है। इसलिए बहुसंख्यक पक्ष को फैसले को अपनी जीत और मुस्लिम पक्ष की हार के रूप में नहीं देखना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला दे दिया है और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी साफ हो गया। अब केंद्र सरकार को तीन माह के अंदर ट्रस्ट बनाने और उसके नियम तय करने की प्रक्रिया पूरी करनी है। इसी के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खाते में देश के सबसे बड़े विवादों में से एक के सुलझने का श्रेय भी जुड़ गया है, लेकिन न्यायालय के रास्ते फैसला आने और उसका विरोध नहीं होने से किसी एक दल को इसका बहुत अधिक राजनैतिक श्रेय मिलेगा, इसकी संभावना कम है। अब सवाल यह उठता है कि क्या हम एक परिपक्व राष्ट्र का परिचय देते हुए वाकई नए देश और नए समाज के रूप में आगे बढ़ेंगे, जहां खुशहाली और बेहतर जीवन के मुद्दों की नीतियां केंद्र में होंगी? या फिर राजनैतिक फायदे के लिए नए भावनात्मक और धार्मिक मुद्दों की तलाश शुरू हो जाएगी? क्या वाकई हाल के बयानों की तरह भाजपा, आरएसएस और विहिप जैसे उसके अनुषांगिक संगठन अब मथुरा और काशी को अगला एजेंडा नहीं बनाएंगे? बेहतर तो यही होगा कि अब तमाम विवादों को विराम देकर हम आर्थिक खुशहाली और धार्मिक सहिष्णुता की राह में आगे बढ़कर एक मजबूत राष्ट्र का सपना साकार करें और राजनैतिक अवसरवादिता को पीछे छोड़ दें।