जानलेवा कोरोना वायरस का संक्रमण सीमित करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की, तो कश्मीरी समझ गए कि वे दोबारा बंदी के पुराने दौर में पहुंच गए हैं। पिछले साल पांच अगस्त को कश्मीर से अनुच्छेद 370 के तहत मिला विशेष दर्जा हटाने और हजारों लोगों की गिरफ्तारी के पहले से ही लॉकडाउन और संचार माध्यमों पर प्रतिबंधों के लंबे दौर से वे अभी तक उबर भी नहीं पाए हैं। अन्य राज्यों के विपरीत, यहां पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को लॉकडाउन लागू करने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। प्रतिबंध लगाने के लिए समूचा सिस्टम पिछले तीस वर्षों से कायम है और पिछले पांच अगस्त 2019 से तो वह पूरी तरह तैयार है।
पिछले कुछ महीनों से सरकार ने अगस्त 2019 में लगाए प्रतिबंध धीरे-धीरे हटाए थे। शुरू में दूरसंचार सेवाएं कई टुकड़ों में दोबारा बहाल हुईं। सरकार ने पहले लैंडलाइन फोन चालू किए। उसके बाद पोस्टपेड मोबाइल और सीमित संख्या में वेबसाइटों पर जाने की अनुमति के साथ धीमी स्पीड की इंटरनेट सेवा शुरू की। उसके बाद सोशल मीडिया की अनुमति दी गई लेकिन इंटरनेट सेवा 2जी नेटवर्क पर ही उपलब्ध रही। देश भर के राजनैतिक वर्ग की अपील के बावजूद सरकार ने इंटरनेट सेवा पूरी तरह बहाल नहीं की। अभी भी इंटरनेट की स्पीड बेहद धीमी बनी हुई है। कश्मीरियों को इस बात पर गुस्सा आ रहा है कि कश्मीर में लगे प्रतिबंधों की तुलना अब पूरे देश में लॉकडाउन से की जा रही है। पिछले पांच अगस्त 2019 से लागू कश्मीर के प्रतिबंध पूरे सात महीने से प्रभावी हैं।
इस दौरान जम्मू-कश्मीर ने अप्रत्याशित घेरेबंदी देखी। तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों, कारोबारी नेताओं, वकीलों और हजारों लोगों को हिरासत में ले लिया गया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के बाद लोगों को यह पता लगाने में हफ्तों लग गए कि उनके रिश्तेदारों को हिरासत में कहां रखा गया है।
आतिका के बेटे फैसल अहमद को श्रीनगर के मैसुमा इलाके से पिछले पांच अगस्त को गिरफ्तार किया गया था। वे कहती हैं, “5 अगस्त को एसएचओ मेरे बेटे को अपने साथ ले गए। मैंने थाने में जाकर पूछा तो एसएचओ ने बताया कि उसे कुछ दिनों में छोड़ दिया जाएगा।” लेकिन आतिका अपने बेटे को आज तक नहीं देख पाई हैं। उसे आठ अगस्त को उत्तर प्रदेश के आंबेडकरनगर जेल में भेज दिया गया और तब से वह वहीं बंद है। अब देशव्यापी लॉकडाउन की वजह से आतिका का दुख दूर होने के कोई आसार नहीं हैं। वे पूछती हैं, “मैं नहीं जानती कि वहां उसकी सेहत कैसी है, वे उसे क्यों नहीं छोड़ रहे हैं?”
दक्षिण कश्मीर के सामाजिक कार्यकर्ता खालिद फैयाज बच्चों के लिए मासिक पत्रिका निकालते हैं। वे कहते हैं कि कश्मीर में कैद जैसे हालात से देशव्यापी लॉकडाउन की तुलना करने वालों को समझना चाहिए कि यह तुलना कैसे संभव है। वे कहते हैं, “इस वक्त भी मैं एकदम लाचार हूं। कल्पना कीजिए, आपको 2जी स्पीड पर मोबाइल पर अपनी वेबसाइट चलानी है क्योंकि इतनी कम स्पीड पर लैपटॉप कनेक्ट नहीं हो सकता है। आपको फोन पर कोई डॉक्यूमेंट डाउनलोड करना है और उसके बाद उसे एडिटिंग के लिए लैपटॉप पर ट्रांसफर करना है जो संभव नहीं है।”
पुराने श्रीनगर के एक छात्र ने बताया कि उसने अपने सामने एक बुजुर्ग को दम तोड़ते देखा क्योंकि सुरक्षा बलों ने उसे कर्फ्यू के दौरान अस्पताल नहीं जाने दिया। नबील नाम के इस छात्र ने ट्विटर पर लिखा, “लॉकडाउन के दौरान मैंने तीन रिश्तेदारों को खो दिया और उनके बारे में कई महीने बाद पता चला, जब टेलीफोन पर लगे प्रतिबंध हटे। अपने लॉकडाउन से हमारी अंतहीन समस्या की तुलना मत कीजिए।” कई लोगों की दलील है कि मौजूदा लॉकडाउन से कश्मीर की स्थिति की तुलना करना अनुचित है। ऐसी तुलना बेहद बेवकूफाना और शर्मसार करने वाली है।
जेएनयू की पूर्व छात्र नेता शेहला रशीद ने अपने ट्विटर पर लिखा, “कश्मीर तो छह महीने से यह झेल रहा है जबकि आपको सिर्फ तीन सप्ताह ही झेलना है।” उन्हें इस पर खासी नुक्ता-चीनी झेलनी पड़ी। एक छात्र ने जवाब में लिखा, “हर चीज की कश्मीर से तुलना नहीं की जानी चाहिए। कश्मीर में अंतहीन कर्फ्यू और सेना की घेराबंदी है क्योंकि बाकी भारत ने उसके दमन का फैसला किया है। ऐसा कहना बंद कीजिए कि कश्मीरियों ने महामारी से लड़ने का फैसला अपनी इच्छा से किया है।”
एक अन्य व्यक्ति तौहा गौहर ने लिखा, “हजार दिनों तक देश में लॉकडाउन जारी रहे, तब भी कश्मीर के एक दिन के लॉकडाउन से भी उसकी तुलना नहीं की जा सकती है। हम यहां ऐसी यंत्रणा से गुजर रहे हैं।” घाटी में लोगों की दलील है कि कश्मीर में लोग खुद के बचाव के लिए लॉकडाउन में नहीं हैं। उन्हें किसी बीमारी से बचने के लिए घरों के अंदर रहने को नहीं कहा गया है।
सैयद हसन काजिम ने फेसबुक पर लिखा, “घाटी में लोग गायब हो जाते हैं और फिर कभी वापस नहीं आते। अनेक लोगों को उनके घरों से हजारों किलोमीटर दूर जेलों में बंद कर दिया गया है और कई तो इस तनाव में होश गंवा बैठते हैं। बाकी देश में लोग फास्ट इंटरनेट स्पीड पर आराम से घर पर बैठकर वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं। दूसरी ओर कश्मीर में इंटरनेट नहीं है। आपके बच्चे अपनी यूनीवर्सिटी और स्कूलों से ऑनलाइन क्लास ले रहे हैं, जबकि कश्मीर में छात्रों के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है। आप लॉकडाउन में ताली और थाली बजा सकते हैं और डांस कर सकते हैं जबकि कश्मीरियों को बोलने तक की इजाजत नहीं है। संक्षेप में कहें, तो कश्मीरियों को लॉकडाउन में अपमानित किया जा रहा है और डराया जा रहा है जबकि आपके साथ ऐसा नहीं है।”
इस बीच, पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर ये नुस्खे बताए कि कैसे आप लॉकडाउन और लंबी तन्हाई में जिंदगी संभाले रह सकते हैं। लंबे एकांतवास के लिए उमर की सलाह घाटी में जीवन की कड़वी सच्चाई को उजागर करती है, जहां पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व विदेश राज्यमंत्री को सात महीने की हिरासत बिना किसी गंभीर आरोप के झेलनी पड़ी।
उमर को 24 मार्च को रिहा किया गया। हिरासत से रिहा होने के कुछ घंटों के भीतर उमर वापस ट्विटर पर सक्रिय हो गए। उन्होंने अपने माता-पिता के साथ एक फोटो पोस्ट किया और समर्थन के लिए नेताओं और परिवार का आभार जताया। इन ट्वीट के अतिरिक्त उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में क्वारेंटाइन और लॉकडाउन में रहने के लिए टिप्स दे दिए। उन्होंने ट्वीट किया, अच्छी बात यह है कि अगर कोई क्वारेंटाइन और लॉकडाउन में खुद को दुरुस्त रखने के लिए टिप्स चाहता है तो मेरे पास कई महीनों का अनुभव है। शायद एक पूरा ब्लॉग बनाया जा सकता है। उमर जम्मू-कश्मीर के उन तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों में शामिल थे, जिन्हें पांच अगस्त को उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया था। उमर और उनके पिता फारूक अब्दुल्ला तो रिहा कर दिए गए हैं, मगर पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती अभी भी सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत नजरबंद हैं। उनकी बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने अपनी मां के ट्विटर हैंडल पर ट्वीट किया, “दुनिया कोरोना वायरस का सामना कर रही है लेकिन जम्मू-कश्मीर प्रशासन अभी भी नरम नहीं पड़ा है और 4जी इंटरनेट सेवाओं पर लगी अमानवीय रोक हटाने से इनकार कर रहा है। कोविड-19 महामारी के दौर में इंटरनेट और सूचनाओं तक पहुंच आवश्यकता है, न कि विशेषाधिकार। कोरोना वायरस जैसी आपदा के समय 90 लाख कश्मीरियों के स्वास्थ्य की चिंता करने के बजाय काल्पनिक सुरक्षा खतरों को प्राथमिकता देना युद्ध अपराध है। केंद्र सरकार को 4जी सेवाएं बहाल करने की सामूहिक अपीलें स्वीकार कर लेनी चाहिए।”
सरकार जम्मू-कश्मीर सहित पूरे देश में नए लॉकडाउन के बावजूद घाटी में इंटरनेट सेवा पूरी तरह बहाल करने को तैयार नहीं दिख रही है। एक डॉक्टर ने अपनी पहचान गुप्त रखते हुए कहा, “अगस्त 2019 में लॉकडाउन लागू करके कश्मीरियों का घर से बाहर निकलने का अधिकार छीन लिया गया था। यह उन्हें मानसिक और भौतिक पराजय का एहसास कराने के लिए किया गया। यह लॉकडाउन नई आफत है और इसका सामना सिर्फ कश्मीरी नहीं कर रहे हैं। मैं सोचता हूं कि सिर्फ यही संतोष की बात है।”
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कश्मीर के मुकाबले पूरे भारत का लॉकडाउन तो जल्दी खत्म हो जाएगा, लेकिन घाटी को पता नहीं इसके लिए कितना इंतजार करना पड़े