मई की 27 तारीख को जवाहरलाल नेहरू की 55वीं पुण्यतिथि थी, लेकिन बदले हुए राजनीतिक-वैचारिक माहौल में उसका पता नहीं चला। कांग्रेस और उसके जैसे कुछ संगठनों ने उनके स्मरण की रस्म-अदायगी की, लेकिन जनता के स्तर पर उसे मनाने के लिए कोई विशेष पहलकदमी नजर नहीं आई। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए चले राष्ट्रीय आंदोलन में उनके महान नेतृत्व और स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में उनके ऐतिहासिक योगदान को याद करने के साथ-साथ उनकी वैचारिक विरासत के पुनराविष्कार और पुनर्स्मरण के लिए उनकी पुण्यतिथि से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता था। लेकिन जब कांग्रेस ही अपने अध्यक्ष राहुल गांधी को “जनेऊधारी शिवभक्त” के रूप में प्रस्तुत करने और केरल के सबरीमला मंदिर में प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिलाने को राजनीतिक चतुराई मानती हो, तब और किसी से क्या गिला-शिकवा?
केरल में उसे इसका चुनावी लाभ मिला, लेकिन शेष देश में उसके हिंदूपन को भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व पर तरजीह नहीं दी गई। 1980 के दशक में पहले पंजाब में अकालियों को उन्हीं के खेल में मात देने और फिर अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ताले खुलवा कर और राम मंदिर का शिलान्यास कराकर हिंदुओं की सहानुभूति अर्जित करने के असफल प्रयास के बाद भी अभी तक कांग्रेस ने अपनी चाल नहीं बदली है। उसे यह एहसास नहीं हो सका है कि भाजपा की वैचारिक चुनौती का जवाब वह हिंदुत्व बरक्स हिंदूपन से नहीं, केवल धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों से दे सकती है और इसमें जवाहरलाल नेहरू की वैचारिक विरासत उसकी सबसे अधिक मदद कर सकती है। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ही नहीं, नेहरू के खानदानी वारिस के रूप में भी राहुल गांधी का दायित्व बनता है कि वह इस विरासत को संभालें और राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को एक बार फिर मजबूती के साथ प्रतिष्ठित करें।
उन्हें याद रखना चाहिए कि 3 सितंबर, 1949 को इलाहाबाद के म्योर कॉलेज में छात्रों को संबोधित करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “इसमें संदेह नहीं कि भारत में हिंदुओं का बहुसंख्यक समुदाय है, लेकिन हम यह नहीं भूल सकते कि यहां दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय भी हैं, मसलन मुसलमान, ईसाई, पारसी और जैन। यदि भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ समझा जाएगा, तो इसका अर्थ यह होगा कि अल्पसंख्यक यहां के सौ फीसदी नागरिक नहीं हैं। हमने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश घोषित किया है और इस सीमा तक हमें इसके गैर-धार्मिक चरित्र को बनाए रखना होगा। जैसे अन्य स्वतंत्र देशों में होता है, भारत में हर नागरिक को पूर्ण आजादी हासिल होनी चाहिए।” यहां प्रश्न उठता है कि यदि भारत में राजनीति का चरित्र गैर-धार्मिक नहीं होगा, तो फिर राजनीतिक व्यवस्था और राष्ट्र-राज्य के चरित्र को गैर-धार्मिक कैसे बनाए रखा जा सकेगा? यहां इस बात की जरूरत है कि गैर-धार्मिक और धर्म-विरोधी चरित्र के अंतर को अच्छी तरह समझ लिया जाए। भारत जैसे धर्मप्राण देश में, जहां अनेक धर्मों के मानने वाले सदियों से रहते आ रहे हैं, कोई भी राज्य या सरकार धर्म-विरोधी नहीं हो सकती। गैर-धार्मिक का केवल यही अर्थ है कि उसका किसी एक या एकाधिक धर्म की ओर विशेष झुकाव या विरोध न हो। क्या आज की स्थिति इस आदर्श के ठीक विपरीत नहीं है?
प्रधानमंत्री नेहरू ने 20 सितंबर, 1953 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे एक पत्र में इस बात पर चिंता प्रकट की थी कि संविधान के प्रावधानों के बावजूद अल्पसंख्यक समुदायों का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व गिरता जा रहा। मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में आई सच्चर समिति की रिपोर्ट से पता चला था कि दशकों बाद भी यह स्थिति बदली नहीं है। इस समय स्थिति यह है कि धर्मनिरपेक्षता की नीति पर अवसरवादी ढंग से चलने के कारण अल्पसंख्यक कांग्रेस को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और हिंदू उसे हिंदू-विरोधी समझने लगे हैं। इसका जवाब इफ्तार पार्टियां देकर या दरगाहों और मंदिरों के चक्कर लगाकर नहीं दिया जा सकता। नेहरू को कभी यह सब करने की जरूरत नहीं पड़ी। उस समय भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके जैसे अन्य हिंदुत्ववादी संगठन नेहरू के खिलाफ वैसा ही विष-वमन करते थे, जैसा आज करते हैं, लेकिन उसका असर नहीं होता था। आज इसका असर इसलिए होता है क्योंकि कांग्रेस ने नेहरू का रास्ता छोड़ दिया है और वह आग को पानी से बुझाने के बजाय आग से ही बुझाने की कोशिशों में फंस कर रह गई है।
लोग भूले न होंगे कि हिंदूवादी शक्तियों को तुष्ट करने के लिए बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलटने के लिए मुस्लिम महिला विधेयक लाकर मुस्लिमवादी शक्तियों को तुष्ट करने का प्रयास कर चुके थे। नतीजा सबके सामने है। न मुस्लिम सांप्रदायिकता तुष्ट हुई, न हिंदू सांप्रदायिकता। हां, राजीव गांधी 1989 का चुनाव बुरी तरह हार गए और लोकसभा में दो सीट वाली भाजपा उसके बाद से लगातार अपने प्रभाव का विस्तार करते हुए आज की वर्चस्ववादी स्थिति में आ गई।
हालांकि, यह बात सभी पर लागू होती है, लेकिन चूंकि कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है इसलिए उस पर सबसे अधिक जिम्मेदारी है। सभी पार्टियों को संघ से सीख लेते हुए समाज के विभिन्न तबकों और देश के विभिन्न हिस्सों में अपने कार्यकर्ता भेजकर लगातार सामाजिक सुधार और शिक्षा के प्रसार आदि से जुड़े कार्यक्रमों में जाकर अपनी विचारधारा का प्रचार करना चाहिए। चुनाव के समय जनता के बीच जाने से कुछ नहीं होने वाला। कांग्रेस के लिए जरूरी है नेहरू की गरीब-समर्थक, धर्मनिरपेक्ष विरासत का रोजमर्रा की राजनीति में पुनर्स्थापन करना।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)