मटन और शाकाहारी! सुनकर ही आप हैरत में पड़ सकते हैं। मगर झारखंड के रुगड़ा की पहचान इसी रूप में है। इसे पुटु भी कहते हैं। यह छोटे आकार के आलू की तरह का होता है। रांची के कुछ खास सब्जी बाजारों में बरसात के समय चंद लोग टोकरियों में रखकर इसे बेचते हुए आपको दिख जाएंगे। यह मशरूम की प्रजाति का है मगर इसकी खेती नहीं होती। यहां के जंगलों में साल या कहें सखुआ के वृक्ष बहुतायत मात्रा में पाए जाते हैं, वहीं जमीन के भीतर से यह निकलता है। जंगल के मिजाज से वाकिफ ग्रामीणों, आदिवासियों को बारिश के मौसम में साल के पेड़ के नीचे दरार देखकर भान हो जाता है कि यहां रुगड़ा है। जमीन से चंद इंच नीचे से इसे खोदकर निकाला जाता है। मटन या चिकन की तरह इसे बनाया जाता है। सावन के महीने में जब लोग मांसाहार त्यागते हैं, उस वक्त का यह पसंदीदा व्यंजन है। जून से सितंबर के प्रारंभ तक यह उपलब्ध होता है। शुरू में इसकी कीमत करीब आठ सौ रुपये किलो होती है, बाद में गिरकर ढाई-तीन सौ रुपये रह जाती है। इसमें प्रोटीन और फाइबर अधिक होता है लेकिन फैट और कैलोरी कम होती है। दो-तीन दिनों में ही यह खराब होने लगता है। इसी कारण बड़े शहरों की थाली तक इसकी पहुंच नहीं हो सकी है। झारखंड से बाहर बड़े शहरों में रहने वाले ज्यादातर लोग इसे जानते भी नहीं हैं, न ही इसके जायके और गुणों से वाकिफ हैं। इसे बड़े शहरों तक पहुंचाने की कवायद चल रही है। अभी तक इसके पोषक तत्व के संबंध में कायदे से शोध परिणाम सामने नहीं आ सका है। हालांकि दूसरे मशरूम के बारे में काफी शोध हुए हैं। साल में तीन महीने उपलब्ध रहने वाला रुगड़ा जमाने से आदिवासियों का पसंदीदा खाद्य पदार्थ रहा है।
बीआइटी मेसरा, रांची के बॉयो-इंजीनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. रमेश चंद्रा के नेतृत्व में तीन साल से इसे सुरक्षित रखने पर शोध चल रहा है और इसमें सफलता भी मिली है। डॉ. चंद्रा ने बताया कि पिछले साल निकला रुगड़ा अभी सुरक्षित है, मगर इसमें ताजा रुगड़ा की तुलना में पोषक तत्व कितना शेष रह गया है, इसका अध्ययन जारी है।
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के मुख्य वैज्ञानिक तथा मशरूम शोध एवं प्रशिक्षण इकाई के प्रभारी डॉ. नरेंद्र कुदादा कहते हैं कि इसके पोषक तत्व के बारे में विश्लेषण नहीं किया गया है। वे खुद झारखंड के पश्चिम सिंहभूम के जनजातीय समाज से आते हैं। उन्होंने बचपन से ही रुगड़ा को करीब से देखा है और इसे खाते रहे हैं। वे पुरखों से प्राप्त परंपरागत ज्ञान का हवाला देते हुए कहते है कि इसमें अच्छी मात्रा में मिनरल्स, विटामिन, प्रोटीन पाया जाता है। दिल के मरीज, बीपी और शुगर के मरीज भी इसे खा सकते हैं। शुगर के मरीजों के लिए यह फायदेमंद है। इसकी कहीं खेती नहीं होती। कुदादा के अनुसार रुगड़ा झारखंड के रांची, खूंटी, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा, सिंहभूम, चतरा आदि जिलों के साल के जंगलों में होता है। ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में भी रुगड़ा निकलता है, मगर झारखंड में यह ज्यादा मिलता है। इसका इस्तेमाल कब से हो रहा है इसका कोई लिखित ऐतिहासिक संदर्भ नहीं मिलता, मगर यह जमाने से आदिवासियों के भोजन में शामिल है।
रांची में एक्सआइएसएस से रूरल डेवलपमेंट मैनेजमेंट की पढ़ाई करने और जनजातियों के बीच काम करने वाली अरुणा तिर्की, गुम होते आदिवासी व्यंजन और उनके औषधीय महत्व को जिंदा रखने और उन्हें आम लोगों के बीच पहुंचाने के अभियान में जुटी हुई हैं। वह ‘अजम एंबा’ नाम से रेस्तरां भी चलाती हैं। अजम एंबा जनजातीय भाषा कुड़ुख का शब्द है, जिसका मतलब होता है, अति स्वादिष्ट भोजन। यहां आदिवासी परंपरा का भोजन मिलता है। उनके अनुसार, रुगड़ा मूलतः आदिवासियों की भोजन सामग्री है। हाल के वर्षों में गैर-जनजातीय लोगों में इसका प्रचलन बढ़ा, तो इसकी कीमत भी बढ़ गई। इसे लोग वेज मटन कहने लगे। आदिवासी समाज इसे चिकन के साथ मिलाकर भी बनाता है।
रुगड़ा दो तरह का होता है, चंदना रुगड़ा जो काला होता है, दूसरा सफेद। चंदना रुगड़ा शुरू में एक माह तक ही आता है जबकि सफेद तीन माह यानी जून से सितंबर के पहले सप्ताह तक मिलता है। चंदना रुगड़ा का जायका बेहतर होता है। दो टुकड़े में काटकर इसे चिकन या मटन की तरह बनाया जाता है। अरुणा के पुरखे कहते थे कि इस मौसम में रुगड़ा जरूर खाना चाहिए, क्योंकि यह कैंसर, हृदय रोग, शुगर आदि से बचाता है। रुगड़ा में मशरूम से ज्यादा प्रोटीन होता है। यह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
अरुणा कहती हैं, कोविड-19 के दौर में रुगड़ा सहित कुछ और जनजातीय खाद्य पदार्थ हैं जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं, उनका सेवन करना चाहिए। गांव में जैसे लोग सब्जी का सुखौता बनाते हैं इसका भी सुखौता बनाया जाता है। गुमला में उन्हें साल भर पहले का रुगड़ा के सुखौते की सब्जी दी गई थी। गांव में लकड़ी के चूल्हे के किनारे रखकर संरक्षित रखने का उनका अपना तरीका है। रुगड़ा बारिश के मौसम में मिलता तो है, मगर रांची में भी हर सब्जी बाजार में आम रूप से उपलब्ध नहीं होता। यह कचहरी, हरमू, नागाबाबा खटाल जैसे चंद स्थानों पर ही मिलता है। ग्रामीण, जंगल में परिवार सहित रुगड़ा चुनने जाते हैं, फिर शहर में सब्जी बाजार में बेच देते हैं। रांची के कचहरी चौक पर रुगड़ा बेचने वाली देवकी बताती हैं कि वह दिन भर में करीब 20 किलो तक रुगड़ा बेच लेती हैं। वे एक टोकरी में धुला और दूसरे में मिट्टी लगा रुगड़ा रखती हैं। मिट्टी युक्त रुगड़े की कीमत 400 रुपये किलो तो साफ किए हुए की 600 रुपये किलो तक है। देवकी कहती हैं मिट्टी लगा रुगड़ा कई दिनों तक सुरक्षित रहता है। जबकि धुलने के बाद एक दिन में ही यह खराब होने लगता है। इसलिए इसकी कीमत अधिक है। मिट्टी साफ करने में बहुत मेहनत लगती है इसलिए लोग साफ किया हुआ लेना पसंद करते हैं। उन्होंने कहा कि रुगड़ा को साल भर रखा जा सकता है। इसके लिए बिना नमक सिर्फ हल्दी रुगड़े में लपेट देते हैं, थोड़ा फ्राई करने के बाद धूप में सुखा देते हैं। कोरोना काल में लोगों की सेहत के साथ इसके धंधे से जुड़े लोगों की सेहत के लिए भी यह बेहतर है। सवाल यह है कि यह जायका महानगरों की थाली तक कब और कैसे पहुंचे।
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बरसों से झारखंड का जनजातीय समाज रुगड़ा खाता रहा है। उनका मानना है कि यह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ कैंसर, हृदय रोग से भी बचाता है