पहाड़, पेड़, जल, जंगल, जलवायु बचाने के लिए जहां से अस्सी के दशक में चिपको जैसा बेमिसाल आंदोलन शुरू हुआ था, आज वही कस्बा जोशीमठ उन्हीं वजहों से अंतिम सांस ले रहा है जिनके खिलाफ कुछ दूरंदेश संवेदनशील लोगों ने अनोखे असहयोग की नींव रखी थी। दरक रहे पहाड़ मानो कह रहे हैं, अब और खड़ा नहीं हुआ जाता! पहाड़ के बैठने या जमीन धंसने का सिलसिला इधर कुछ समय से इस कदर तेज हुआ है, मानो कह रहा हो कि इंतिहा हो गई। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरसी) की शुरुआती रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ कस्बे के इलाके अप्रैल 2022 से सात महीनों में 9 सेंटीमीटर और 27 दिसंबर से सिर्फ 12 दिनों में 5 सेंटीमीटर धंस चुके हैं। सरकार की आपत्ति के बाद फौरन इस रिपोर्ट को वेबसाइट से हटा लिया गया और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने सभी सरकारी संगठनों पर ऐसी कोई रिपोर्ट सार्वजनिक करने और मीडिया से बात करने पर पाबंदी जड़ दी। दलील यह है कि लोगों में दहशत न फैले और शायद मंशा आपदा की वजहों पर परदा डालना हो, लेकिन हकीकत भयावह है। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ने सूत्रों के हवाले से बताया कि हालिया विशेषज्ञों के मौका मुआयना और जांच रिपोर्ट के मुताबिक जोशीमठ के कुछ इलाके 2.2 फुट (70 सेंटीमीटर) तक धंस चुके हैं। शहर के लगभग 700 भवनों में दरारें पड़ चुकी हैं और इन भवनों को रहने हेतु अयोग्य घोषित किया जा चुका है। भवनों में दरार पड़ने का सिलसिला थमा नहीं है बल्कि लगातार बढ़ता जा रहा है। कस्बे की सड़कों में दरारें पड़ चुकी हैं। कई जगहों पर पड़ी दरारों से पानी की मोटी धार निकल रही है।
जोशीमठ के लोग विस्थापन की मांग कर रहे हैं। फिलहाल सरकार की ओर से प्रति प्रभावित परिवार डेढ़ लाख रुपये की अहेतुक धनराशि देने का प्रावधान किया गया है। इसमें से पचास हजार रुपये प्रभावित परिवार के सुरक्षित ठिकानों तक सामान परिवहन आदि के लिए व एक लाख रुपये उनके आवास जमीन आदि के अग्रिम मुआवजे के रूप में दिये जाने का निर्णय लिया गया है।
ऐसा नहीं है कि जोशीमठ पर भू-धंसाव या दरकने का सिलसिला अचानक हुआ हो। पिछले 14 महीनों से मकानों में दरारें देख जोशीमठ के लोग किसी अनहोनी की आशंका व्यक्त कर रहे थे, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अब जोशीमठ के अधिकतर भवनों में दरारें तेजी से चौड़ी होने लगीं तो लोग सड़कों पर उतर आए, तब सरकार हरकत में आई। जोशीमठ के लोगों का मानना है कि पनबिजली परियोजनाओं की मनमानी और अंधाधुंध निर्माण और जमीन के अंदर बनाई जा रही सुरंगों के लिए किए जा रहे विस्फोटों की परिणति ही है कि कस्बे की धरती इस कदर खिसकने और दरकने लगी है। सरकार ने भू-गर्भीय सर्वेक्षण भी कराया है, लेकिन पनबिजली परियोजनाओं का निर्माण बदस्तूर चलता रहा।
गढ़वाल के मंडल आयुक्त रहे महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में 1976 में गठित एक समिति की रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया था कि जोशीमठ कस्बा भूगर्भीय दृष्टि से बड़े निर्माण के लिए सही नहीं है। तब तो परियोजनाएं रोक दी गईं लेकिन बाद की सरकारों ने बड़ी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं की संस्तुति दी। मौजूदा सरकारों के दौरान इसमें काफी तेजी आ गई। इसके बाद वाडिया इंस्टीट्यूट की प्रोफेसर स्नपनमिता का एक शोध भी सामने आया। इसमें कहा गया था कि अलखनंदा नदी से हो रहा कटान जोशीमठ के लिए घातक है। यहां निर्माण कार्यों से जमीन में धंसाव हो रहा है। इसके बाद 2014 में सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ समिति ने भी जोशीमठ के बारे में एक रिपोर्ट दी। उसमें कहा गया था कि यह शहर मेन सेंट्रल थ्रस्ट के ऊपर बसा है। इसे बांध परियोजनाओं से मुक्त रखा जाना चाहिए। वनों के कटान, सुरंगों के निर्माण की वजह से इस क्षेत्र का हाइड्रो जिआलॉजिकल प्रभाव का अध्ययन करने की जरूरत है।
पिछले साल जुलाई में एसपी सती, डॉ. नवीन जुयाल, प्रो. वाइपी सुंदरियाल और डॉ. शुभ्रा का एक शोध पत्र भी सामने आया था जिसमें कहा गया था कि जोशीमठ से एक किलोमीटर नीचे विष्णुगढ़ परियोजना की टनल मुश्किलें खड़ी कर सकती है। वैज्ञानिक एमपीएस बिष्ट और आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के डॉ. पीयूष रौतेला ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जलविद्युत परियोजना की टनल में फंसी बोरिंग मशीन की वजह से पानी का रिसाव बढ़ रहा है। अगस्त 2022 में पीयूष रौतेला ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अलखनंदा कटान कर रही है। जोशीमठ शहर में सीवेज और ड्रेनेज सिस्टम नहीं होने की वजह से पानी जमीन में जा रहा है और इसी वजह से जमीन धंस रही है। इन तमाम रिपोर्ट्स और शोध पत्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
जोशीमठ ग्लेशियर द्वारा लाई गई मिट्टी पर बसा शहर है और भूगर्भीय रूप से अतिसंवेदनशील जोन-5 के अंतर्गत आता है। शहर के नीचे से एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगढ़ परियोजना की सुरंग निर्माणाधीन है। पहाड़ों में लगातार घूम कर उसकी प्रकृति को नजदीक से देखने वाले चिंतक रतन सिंह असवाल कहते हैं कि 1996 में जोशीमठ क्षेत्र में भ्रमण के दौरान उन्होंने पाया कि हेलंग से लेकर मारवाड़ी तक के क्षेत्र में जमीन में दरारें पड़ी हुई थीं। जोशीमठ कस्बा प्राचीन भूवैज्ञानिक काल खंड में भूस्खलन से आई मिट्टी पर बसा है। इस क्षेत्र में लाइम स्टोन, डोलोमाइट और सोपस्टोन जैसे खनिज की चट्टानें पाई जाती हैं। सोपस्टोन घुलनशील व क्ले पार्टिकल से बना होता है वहीं लाइमस्टोन व डोलोमाइट कैल्शियम प्रधान चट्टानें हैं जो घुलनशील मानी जा सकती हैं। पानी के संपर्क में आने पर ये क्ले पार्टिकल व कैल्शियम घुल कर अपना स्थान छोड़कर पानी के साथ बह जाते हैं उनके स्थान को भरने के लिए दूसरे कण शिफ्ट होते हैं। यही दरारों के पड़ने की प्रक्रिया है। इसके अलावा अनियंत्रित एवं अवैज्ञानिक निर्माण कार्यों की बाढ़ के कारण निर्मित कंक्रीट के जंगल एक कारक हैं। एक बिंदु और है कि वृहद निर्माण परियोजनाएं, निर्माण के दौरान प्रयोग की जा रही भारी मशीनें, विस्फोटक तथा उत्खनन भी इसके लिए अवश्य ही जिम्मेदार हैं। इन कारणों से आज जोशीमठ शहर की यह स्थिति हो गई है कि सनातन धर्म के एक प्रमुख मठ का परिचालक, एक सभ्यता, एक संस्कृति आज समाप्ति के कगार पर है।
जोशीमठ संघर्ष समिति की अगुआई कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती कहते हैं कि कहानी तो तभी शुरू हो गई थी जब परियोजना और बेतरतीब निर्माण का मॉडल खड़ा किया गया था, "हम बोलते रहे, लिखते रहे, पर सरकारों ने ध्यान नहीं दिया।"
हलद्वानीः फिलवक्त टला बेघर होने का खतरा
हलद्वानी में रेलवे की जमीन पर कथित रूप से बसा बनभूलपुरा क्षेत्र लगातार सुर्खियों में है। हाईकोर्ट ने यहां बने 4365 मकानों में बसे लोगों को हटाने के आदेश दिए थे। प्रशासन ने वहां लोगों को बलपूर्वक हटाने की पूरी तैयारियां भी कर ली थीं, लेकिन इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश स्थगित कर दिया। फिलवक्त तो इन लोगों के सिर से छत हटने का खतरा टल गया है। अब सर्वोच्च अदालत में फरवरी में सुनवाई होगी।
रेलवे ने अपनी लाइन से पंद्रह मीटर तक सीमांकन करते हुए करीब दो किलोमीटर तक अपने खंबे लगाए जिसके बाद से बनभूलपुरा क्षेत्र में बवाल उठना शुरू हो गया। लोग सड़कों पर आ गए। रेलवे ने इन लोगों को हटाने के लिए जिला प्रशासन को 23 करोड़ रुपये भी दे दिए। जिला प्रशासन ने 10 जनवरी को उन्हें बलपूर्वक हटाने का फरमान जारी कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी नेताओं और अन्य लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में पीआइएल दाखिल की थी।
फटती धरतीः काफी पहले चेतावनी दी गई थी कि जोशीमठ मेन सेंट्रल थ्रस्ट के ऊपर बसा है
गौरतलब है कि हलद्वानी स्टेशन की दूसरी तरफ रेलवे पटरी के उस पार गौला नदी बहती है। इसमें से रेता, बजरी, पत्थर का चुगान होता है। अंग्रेजी शासनकाल से लेकर सत्तर के दशक तक रेलवे अपनी नई-पुरानी परियोजनाओं के लिए पत्थर तुड़वा कर गिट्टी को इस नदी से लेता रहा था। पत्थर तोड़ने का ठेका लेने वाले ठेकेदार पड़ोसी जनपद रामपुर और मुरादाबाद से सैकड़ों की संख्या में मुस्लिम मजदूर लेकर आए। ये मजदूर यहीं रेल पटरी किनारे झोपड़ी डाल कर बस गए। अब जाकर रेलवे को होश आया कि ये तो उसकी जमीन पर बसे हुए अतिक्रमणकारी हैं।
उत्तराखंड सरकार ने अपनी कागजी कार्रवाई भी शुरू कर दी है। जिला प्रशासन ने यहां वर्षों से काबिज उन लोगों को अपनी जमीन के कागजात की छायाप्रति हलद्वानी के एसडीएम कार्यालय में देने को कहा है, जो ये दावा करते हैं कि उनके पास लीज के दस्तावेज हैं या फिर उनका मालिकाना हक है। दरअसल, रेलवे का दावा सबसे पहले करीब 29 एकड़ में बसे 4365 परिवारों को लेकर है। स्टेशन से और उससे आगे करीब दो किलोमीटर मंडी तक जो लोग काबिज हैं, वे यह दावा करते हैं कि यह जमीन उनकी है और उनके पास कागज या पट्टा है। रेलवे कुल 78 एकड़ जमीन पर अपनी हद बता रहा है।