जब तक लोगों को खबर होती है, तब तक अकेलेपन का अभिशाप झेल रहे व्यक्ति का सब कुछ खत्म हो चुका होता है। पिछले दिनों दो नामी पत्रकारों की मौत ऐसी सूची में दो नामों का इजाफा भर कर गई। मधुश्री चटर्जी और विष्णु मखीजनी अकेले जीवन जीते रहे और मौत के वक्त भी अकेले ही रहे। मधुश्री चटर्जी (62 वर्ष) की मृत्यु पिछले महीने हुई जबकि विष्णु मखीजनी (72 वर्ष) एक हफ्ते पहले अपने फ्लैट में अकेले दुनिया छोड़ गए। सुबह उनकी नौकरानी ने दरवाजा न खुलने पर शिकायत की तब पता चला कि वे दुनिया से रुखसत हो गए हैं। सोसायटी के अध्यक्ष ने दरवाजा खुलवाया तब उनका आधा शरीर जमीन पर और आधा पलंग पर था। लेकिन मधुश्री के मुकाबले मखीजनी बस इतने किस्मत वाले रहे कि बरसों पहले परिवार से जो डोर टूटी थी, वह उनकी मृत्यु के वक्त जुड़ गई और उनका बेटा उन्हें अंतिम विदा देने पहुंच गया।
मधुश्री का नसीब परिवार के मामले में भले ही उतना तेज नहीं निकला, लेकिन उनके आसपास रहने वाले, काम कर चुके लोगों ने उन्हें जीवन की अंतिम यात्रा पर अकेला नहीं छोड़ा और जितना बन सका, उससे कहीं ज्यादा किया।
नोएडा के एक छोटे से मकान में पेइंग गेस्ट के रूप में रहने वाली मधुश्री स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम करती थीं। वे आइएएनएस (इंडो एशियन न्यूज सर्विस) में लंबे समय से कला-संस्कृति पर लिख रही थीं, लेकिन उनकी आजीविका का एकमात्र जरिया कोविड के बाद गड़बड़ा गया। “वे बहुत मेहनती थीं” उनके साथ काम करने वाले उन्हें इसी रूप में याद करते हैं। पत्रकार कविता बजेली कहती हैं, “वे ब्रिलियंट राइटर थीं। इवेंट भले ही देर से खत्म हो, वे दफ्तर आकर कॉपी लिखती और तय वक्त से पहले ही अपनी कॉपी दे देती थीं। मैंने लंबे समय उनके साथ काम किया लेकिन कभी याद ही नहीं कि उन्होंने परिवार का जिक्र किया हो। बस कभी-कभार उनकी बातों में उनके पिता का जिक्र आता था जिनसे वह अगाध स्नेह करती थीं।”
तबीयत बिगड़ने पर उनके पड़ोसी उन्हें पास के अस्पताल ले गए। निजी अस्पताल का बिल कौन देता, सो पुलिस उन्हें सफदरजंग अस्पताल भर्ती करा आई। मधुश्री को सफदरजंग अस्पताल लाया गया, तो उनका ब्लड शुगर लेवल 500 छू रहा था। कुछ रिपोर्ट में कहा गया कि उनकी स्थिति देखकर चिकित्सकों का कहना था कि वे लंबे समय से भूखी थीं।
उनके सहकर्मी तो बहुत थे, लेकिन शायद दोस्त नहीं। किसी ने उन्हें पहचाना और उसी व्यक्ति ने फेसबुक पर मधुश्री के बारे में लिखा। इसके बाद इंडियन विमन प्रेस कॉर्प की कुछ सदस्य आगे आईं, जिनमें क्लब की अध्यक्ष शोभना जैन, कविता बजेली, ऐश्लिन मैथ्यू ने मदद के लिए पूरा जोर लगा दिया। कविता को जैसे ही उनके बारे में पता चला उन्होंने सबसे पहले आइडब्लूपीसी के वॉट्सऐप समूह में उनके बारे में जानकारी दी। शोभना जैन के साथ कुछ महिला पत्रकार और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष उमाकांत लखेड़ा वहां गए और पूरा मामला जाना। अस्पताल का कहना था कि उनकी हालत इतनी खराब है कि उन्हें एक अटेंडेंट की तत्काल जरूरत है। इतनी जल्दी अटेंडेंट की व्यवस्था न हो पाने पर तय किया गया कि कुछ महिला पत्रकार ही बारी-बारी से जाकर उनकी तीमारदारी करेंगी, लेकिन अगले दिन वे चल बसीं।
जीवन खत्म होने के बाद भी कभी-कभार सब खत्म नहीं होता। परिवारविहीन लोगों के साथ तो जीवन के बाद भी जंग जारी रहती है। कुछ पुलिस की तो कुछ कानून की अपनी मजबूरियां होती हैं। अब तक जो भी मदद हो रही थी वह दोस्तों की तरफ से हो रही थी। चाहे वह सफदरजंग में वॉर्ड दिलाने की हो, चिकित्सकों से बात करने की हो, लेकिन उनके जाने के बाद पुलिस ने उनका शव शवगृह में रखवा दिया।
कविता की बात से ही पता चलता है कि असली जद्दोजहद तो अभी बाकी थी। वे कहती हैं, “उनके लिए जो हुआ वह सामूहिक प्रयास से हुआ। सबने अपनी तरफ अच्छे से अच्छा किया। उनका परिवार खोजना सबसे बड़ी मुश्किल थी। बड़ी मुश्किल से उनके बेटे को खोजा गया। इस काम में पीटीआइ की मेरी एक मित्र ने बहुत मदद की।”
उनका बेटा मिल तो गया, लेकिन उसने आने से साफ इनकार कर दिया। पुलिस और मित्रों ने यहां तक कहा कि अगर उनके पास आने के लिए टिकट के पैसे न हों तो उनका टिकट भी करा दिया जाएगा। बहुत समझाइश के बाद भी जब वह नहीं माना और लगातार इनकार करता रहा, तब कविता आगे आईं और उनकी बॉडी क्लेम की। सारे कागजात पर दस्तखत किए और आइडब्लूपीसी की अध्यक्ष शोभना जैन सहित कई पत्रकारों ने पुलिस की मदद से उनका अंतिम संस्कार किया। उनकी अंतिम विदाई के लिए पंडित का इंतजाम किया गया। इतना ही नहीं, क्लब के दफ्तर में अकाउंट सेक्शन में काम करने वाले रोहित को क्लब के सदस्यों ने अस्थि विसर्जन के लिए भी भेजा।
कविता कहती हैं, “बस यही संतोष है कि अंतिम वक्त में वे लावारिस की तरह नहीं रहीं। जो किया हम सब ने मिल कर किया और हर व्यक्ति का योगदान रहा। काश हमें पहले पता लग जाता तो कम से कम उनका इलाज कराते।”
वे कहती हैं, “कोविड ने हालात बहुत खराब कर दिए हैं। जब कंपनियां अपने कर्मचारियों को पैसे नहीं दे पा रही थीं, तो फिर फ्रीलांसरों का क्या कहें। जब मैंने आखिरी बार उनका चेहरा देखा तो मन भर आया। उनका पूरा शरीर सिकुड़ गया था। पता नहीं वो क्या खाती होंगी। खा भी पाती थीं या नहीं। हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं, जो पत्रकारों को आर्थिक मजबूती दे सके। पत्रकार की जैसे ही नौकरी जाती है, उसका सामाजिक नेटवर्क खत्म सा हो जाता है।”
ऐसे मामले देखकर लगता है कि हम सब एक-दूसरे से इतने कटे हुए हैं कि मृत्यु की आहट और गंध महसूस होने के बाद भी व्यक्ति असहाय होता है, निपट अकेला।