राजनीति जिस मोड़ से गुजरी है, खासकर उत्तर प्रदेश में, उसके बाद कई प्रश्न विचार के इंतजार में पंक्ति बनाकर खड़े हो गए हैं। इनमें से कई महामारी के शून्य में डूब गए थे। इतना गहरे कि फिर सतह पर नहीं आ सके। ऐसा ही एक प्रश्न था हिंदी में जगह पहले भी कम थी, इधर के राजनैतिक दौर में और घट गई। बहस का चलन एकाएक कमजोर पड़ गया। जरूर इसमें टेक्नोलॉजी का भी योगदान है। इंटरनेट से मिली सुविधाओं ने एक नए समाज को जन्म दिया, जो खुद को सोशल मीडिया कहता है और विचार-विमर्श का प्रतिनिधि माध्यम मानता है। अगर आप उसके प्रतिभागी नहीं हैं, तो वह आपको हाशियावासी मानने में संकोच नहीं करता। इस तर्क से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हाशिये पर हिंदी समाज के लाखों, करोड़ों लोग रहते हैं, जो कभी अखबारों और पत्रिकाओं की बहस के करीब आने लगे थे, अब दूर छिटक गए हैं।
एक जूम इंटरव्यू में मुझे सुनने को मिला, 'आपको हिंदी में पढ़े हुए लंबा समय बीत गया।' एक अखबार में लिखना शुरू करते ही संपादक का संदेश मिला था कि अपनी बात पांच सौ शब्दों में रखूं। टीवी और जूम पर समय की चेतावनी और अखबार में जगह की कमी किसी बहस को बढ़ने नहीं देती। राजनैतिक माहौल कुछ ऐसा बना कि बहस का अर्थ चीखना और रट लगाए रखना हो गया। इस चित्र में एक बड़ा प्रश्न छिपा है, कि जगह का अकाल विचारों को हिंदी में ही क्यों झेलना पड़ा। अंग्रेजी अखबार भी व्यावसायिक हैं, पर संपादकीय पृष्ठों के लेखों की लंबाई घटी नहीं है। असमानता पहले भी थी, पर अब यह मान लिया गया है कि अंग्रेजी विचार की और हिंदी गर्व की भाषा है। हिंदी के कई अखबार बदस्तूर निकल रहे हैं, पर उनमें समाचार व अर्थ छिपाने का इंतजाम पुख्ता हो गया है। यह इंतजाम संभवतः सत्ता के दबाव और विज्ञापन की जरूरत के चलते शुरू हुआ था, बाद में स्थायी हो गया। पाठकों में से अनेक समझ गए थे कि उनसे कई बातें और सवाल छिपाये जा रहे हैं, पर वे लाचार थे।
पत्रकारिता में हिंदी के इस हाल के समानांतर शिक्षा में 'हिंदी माध्यम' संस्थाओं और छात्रों की विवशताएं अब काफी उजागर हो चुकी हैं। उन्हें मेडिकल, कानून और इंजीनियरी की किताबें और हिंदी में पढ़ाई करवाने के सरकारी दावे छिपा नहीं सकते। स्कूल के स्तर पर अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का बोलबाला है। ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में पढ़ाने वाली संस्थाएं अपनी समानांतर दुनिया किसी अलग उत्साह और सलीके से चला रही हों। केवल एक दिशा है, जिसमें हिंदी की दुनिया पर लाचारी की छाया नहीं है। वह है गानों, व्यंग्य और थोड़ी-बहुत बहस की गुंजाइश यू-ट्यूब जगत में। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में इस जगत का जोर खासकर उत्तर प्रदेश में दिखाई दिया। कुछ कामयाबी भी मिली, पर इस बात की कल्पना करना कठिन है कि यह आंशिक कामयाबी शिक्षा के संसार पर असर डाल पाएगी। शिक्षा का संसार मूलतः कागज और किताबों का है। उसे टेक्नोलॉजी के पाले में धकेलने की पुरजोर कोशिश हो रही है। उसे देखकर कबड्डी में सांस रोककर गाई जाने वाली पंक्ति याद आती है, 'मेरे को तुमने क्यों मारा?'
अंततः बात विचार के लिए जरूरी परिस्थितियों पर आती है। चारपाई और चौपाल के रूपक अब पुराने पड़ चुके हैं। कॉफी हाऊस और गुमटियां कहीं-कहीं जिंदा बताई जाती हैं। ऐसी बातों से सांत्वना भर मिल सकती है, हिंदी राज्यों के वैचारिक उजाड़ में अंकुर ढूंढने की प्रेरणा नहीं। मातृभाषा और राष्ट्रीयता की रट के महारथियों को मानना होगा कि उत्तर भारत में सामाजिक जलवायु विचार-विरोधी बन गई है। उसमें विचार की भूख जगाना मुफ्त राशन बांटने से संभव नहीं है। उपाय शिक्षा और पत्रकारिता को मिलकर ढूंढना होगा।
(लेखक प्रतिष्ठित शिक्षाविद हैं)