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6 मार्च 2023 · MAR 06 , 2023

विमर्श: धर्म का वास्तविक स्वरूप

‘महाभारत’ के अनुसार “राजा कालस्य कारणम्” अर्थात् शासक ही काल यानी परिस्थितियों का निर्माण करता है
भारतीय राजनीति पर धर्म का प्रभाव बढ़ गया है

पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति पर धर्म और उस पर आधारित राजनीति छायी हुई है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि पंथ को धर्म नहीं कहा जाना चाहिए लेकिन यह तर्क देने वाले कभी हिंदू धर्म को हिंदू पंथ नहीं कहते। हां, हिंदू धर्म और संस्कृति को ही वास्तविक अर्थों में ‘भारतीय’ अवश्य मानते हैं। लेकिन इस पूरे विमर्श में वे कभी भारतीय वाङ्ग्मय के अनमोल रत्न ‘महाभारत’ का जिक्र नहीं करते। माना जाता है कि मानववाद का उदय यूरोप में हुआ लेकिन हमारे महाकाव्यों को ध्यान से पढ़ा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि वे मानवीय मूल्यों का उदात्त उद्घोष करते हैं और इस दृष्टि से आज पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। उनमें, विशेष रूप से ‘महाभारत’ में, जिस मानवकेंद्रित दृष्टि पर बल दिया गया है, उसका वैशिष्ट्य आज भी रेखांकित किए जाने योग्य है। व्यास ने कहा है: “गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, न हि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्” (मैं तुमसे यह रहस्य बतलाता हूं कि इस लोक में मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।) यही दृष्टि सहस्राब्दियों के बाद बांग्ला के भक्त कवि चण्डीदास के इन शब्दों में व्यक्त होती है: “शाबार ऊपोर मानुष शोत्य, ताहार ऊपोर नाहीं” (सबसे ऊपर मानुष सत्य है, उससे ऊपर कुछ नहीं।) महात्मा गांधी ने भी मनुष्य को ही सर्वोपरि बताया था (मैन इज द सुप्रीम कंसिडरेशन।)

लेकिन धर्म के बारे में जानना एक बात है और उस पर आचरण करना दूसरी बात। दुर्योधन ने बहुत ईमानदारी से इस हकीकत को बयान किया है: “जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति, जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति” (मैं धर्म को जानता हूं लेकिन उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। मैं अधर्म को भी जानता हूं लेकिन उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती।) महाभारत युद्ध के अंत में व्यास ने कहा: “ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे, धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते” (मैं दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर पुकार-पुकार कर कह रहा हूं किन्तु मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो मिलता ही है, अर्थ और काम भी धर्म से ही सिद्ध होते हैं, फिर भी लोग उसका पालन नहीं करते)।

उस युग के शासक वर्ग के बारे में आदर्श कल्पना का संबंध भी इस मानवकेंद्रित धर्म से ही है। मनुष्य का अस्तित्व भोजन पर निर्भर है और भोजन के लिए खेती की जरूरत है, इसलिए जमीन को जोतने और उस पर खेती करने वाला किसान प्रणम्य है। ‘महाभारत’ के ‘उद्योग पर्व’ में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है: “न न: स समितिं गच्छेत् यश्च नो निर्वयेत् कृषिम्” (हममें से जो किसानी न करता हो, वह हमारी समिति यानी संसद में बैठने का अधिकारी नहीं होगा।) कृषि प्रधान देश की जनता की समस्याओं को वही समझ सकता है और सुलझा सकता है, जो स्वयं खेती-किसानी करना जानता हो। भारतीय मानव जीवन की इस सच्चाई को महाभारतकार ने हजारों वर्ष पहले जान लिया था। कितना विडंबनापूर्ण है कि इस सच्चाई को वर्तमान शासक नहीं जानते।

भारतीय साहित्य, संस्कृति और इतिहास के अप्रतिम अध्येता वासुदेवशरण अग्रवाल का कहना है कि “भारतीय शब्दावली में धर्म एक ऐसा शब्द है जिससे हमको पग-पग पर काम पड़ता है। ‘ऋग्वेद’ से लेकर आज तक इस शब्द की 4000 वर्ष लंबी आयु है। इतने दीर्घकाल में इस शब्द के पेटे में इतना गहरा और विस्तृत अर्थ भर गया है कि आज यदि धर्म शब्द के सब अर्थों को इकट्ठा किया जाए तो एक बुझौव्वल-सी जान पड़ती है। इस शब्द में अमृत भी है जिससे आदमी जी उठता है, और इसमें ऐसा विष भी है कि यदि इसका पलड़ा भारी पड़ जाए तो समाज के शरीर को मूर्च्छित भी कर सकता है।” उनका यह मत भी है कि यद्यपि ‘धर्म’ शब्द सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है और इसका अर्थ सामान्यतः प्रकृति के या ईश्वर के नियम से लगाया जाता था, लेकिन ‘ऋग्वेद’ के ‘पृथिवी सूक्त’ में ही इसका वह अर्थ भी प्रकट होने लगा था जो आज है। इस सूक्त में कहा गया है कि पृथ्वी पर रहने वाले भांति-भांति के लोग नाना धर्मों के मानने वाले हैं। इससे पता चलता है कि हमारे भारत देश की यह एक बेहद प्राचीन सच्चाई है कि वह धर्मबहुल रहा है और आज भी है।

‘महाभारत’ में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “राजा कालस्य कारणम्” अर्थात् शासक ही काल यानी परिस्थितियों का निर्माण करता है। इसका सीधा अर्थ यही है कि राज्य की उन्नति या अवनति के लिए शासक ही पूरी तरह से जिम्मेदार होता है। वह अपनी जिम्मेदारी किसी और पर नहीं डाल सकता। अंग्रेजी में जिसे “द बक स्टॉप्स हियर” कहते हैं, उसी को महाभारतकार ने बहुत सूत्रात्मक ढंग से कह दिया है।

दक्षिण भारत के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन उत्तर भारत में ‘महाभारत’ के विषय में एक अंधविश्वास प्रचलित है, और वह यह कि जिस घर में इसकी प्रति होगी और उसे पढ़ा जाएगा, उस घर में भी महाभारत के जैसा आंतरिक कलह और झगड़ा-टंटा खड़ा हो जाएगा। इसलिए ‘महाभारत’ की घर में प्रति भी न आने दो। दूसरे शब्दों में कहें तो इस अंधविश्वास के जरिए लोगों को ‘महाभारत’ पढ़ने से विमुख किया गया है। इसीलिए अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों को भी केवल कौरवों-पांडवों की कहानी और युद्ध होने की सामान्य-सी जानकारी ही होती है क्योंकि ‘महाभारत’ पढ़ने से उन्हें दूर रखा जाता है। क्या यह इसलिए तो नहीं क्योंकि ‘महाभारत’ के मानवीय जीवन मूल्य समाज के शोषण पर आधारित ढांचे और मूल्यों से मेल नहीं खाते?

(लेखक हिंदी के वरिष्ठ कवि और द्विभाषी पत्रकार हैं। हिंदी और अंग्रेजी में राजनीति और संस्कृति पर लिखते हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)

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