साढ़े चार दशकों में यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव चुनावी समर से बाहर हैं और यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि उनकी गैर-मौजूदगी में इस बार का चुनाव प्रचार कुछ नीरस-सा लग रहा है। लालू चुनाव सभाओं में अपने ठेठ गंवई अंदाज और हास्य-व्यंग्य से सराबोर भाषणों के लिए मशहूर रहे हैं और इसीलिए शायद इस बार सात चरणों वाले लोकसभा चुनाव में लोगों को उनकी कमी खल रही है।
पहले चरण के मतदान के ठीक एक दिन पहले 10 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी जमानत अर्जी रद्द करके यह तय कर दिया कि महागठबंधन के, विशेषरूप से राजद के, सबसे कद्दावर नेता की भूमिका इस चुनाव में गौण रहेगी। हालांकि शारीरिक अनुपस्थिति के बावजूद वे इस बार भी बिहार के चुनावी रण के केंद्र में हैं। चारा घोटाला में सजायाफ्ता लालू फिलहाल रांची स्थित राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान में इलाजरत हैं लेकिन बिहार में महागठबंधन उन्हीं के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने के सपने संजोए हुए है। राजद के चुनाव अभियान की बागडोर भले कनिष्ठ पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव के हाथों में हो, पार्टी की सारी रणनीति अभी भी उनके ही इर्द-गिर्द घूम रही है।
लालू को जमानत न मिलने को भी राजद एनडीए के खिलाफ एक अवसर के रूप में बदलने की योजना बनाता दिख रहा है। पार्टी ने हमेशा भाजपा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर षड्यंत्र रचकर लालू को झूठे केसों में फंसाने का आरोप लगाया है। पार्टी के रणनीतिकार समझते हैं कि लालू को लंबे समय तक जेल में रहने और चुनाव प्रचार के लिए जमानत न मिलने से जनता में सहानुभूति उमड़ी है, जिसका सीधा फायदा महागठबंधन के उम्मीदवारों को होगा।
राजद समर्थकों को हालांकि अंतिम समय तक उम्मीद थी कि बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के चलते लालू को जमानत मिल जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कोर्ट में सुनवाई के दौरान उनकी जमानत की अर्जी का विरोध करते हुए सीबीआइ ने उन पर अस्पताल में रहते हुए राजनैतिक गतिविधियों में शामिल होने की दलील पेश की। इससे पहले नीतीश उन पर जेल में रहते हुए टेलीफोन से सियासत करने का आरोप लगा चुके थे।
लालू को जमानत न मिलना राजद के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन पार्टी ने संभवतः इस परिस्थिति के लिए अपने को तैयार कर रखा था। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय आने के महज चंद घंटों के अंदर राजद ने लालू द्वारा लिखित बिहार की जनता को संबोधित दो पन्नों का पत्र जारी किया, जिसमें उन्होंने चुनाव को आरक्षण जैसे संविधान में दिए गए हक की हिफाजत के लिए की जा रही लड़ाई की संज्ञा दी। अपने ट्विटर हैंडल (जिसे उनकी अनुपस्थिति में उनकी पार्टी के लोग उनके परिवार की सलाह से चलाते हैं) के माध्यम से उन्होंने कहा कि पिछले 44 वर्षों में यह पहला चुनाव है जिसमें वे उनके बीच नहीं हैं। उन्होंने लिखा, “चुनावी उत्सव में आप सबों के दर्शन नहीं होने का अफसोस है। जेल से ही आप सबों को पत्र लिखा है। आशा है, आप इसे पढ़िएगा और लोकतंत्र तथा संविधान को बचाइएगा। जय हिंद, जय भारत।’’ इस लंबे पत्र में लालू ने कहा कि सीट बंटवारे को लेकर उपजे विवाद को भूलकर सब मिल-जुलकर दलित-बहुजन समाज के आरक्षण को बचाने की मुहिम में जुड़े रहें। उन्होंने यह भी कहा कि उनके पास कहने को बहुत कुछ है लेकिन वे बाद में फिर लिखेंगे। जाहिर है, राजद लालू की बिहार की जनता के नाम अन्य चिट्ठियां भी जारी कर उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ने का प्रयास कर सकता है।
अपने चुनाव अभियान के केंद्र में लालू को रखना राजद की सोची-समझी रणनीति है। चिट्टी के अलावा उनके ट्विटर हैंडल पर ‘डबस्मैश’ ऐप के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में किए गए चुनावी वादों का उपहास उड़ाते हुए उनका एक पुराना वीडियो भी जारी किया गया है। लालू द्वारा गरीबों के लिए किए संघर्ष को रेखांकित करते हुए एक भावुक गीत भी जारी किया गया है, नैना थोड़े हैं नम, दिल में जरा सा है गम, पर हिम्मत न टूटे।
राजद के वरीष्ठ नेता और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी का कहना है कि लालू को एक ही चारा घोटाले के विभिन्न केसों में अलग-अलग सजा देने के कारण बिहार की गरीब जनता में उनके लिए सहानुभूति और सत्ता वर्ग के खिलाफ आक्रोश है।
चुनाव प्रचार के दौरान राजद नेता यह कहने से परहेज नहीं करते हैं कि लालू के खिलाफ कथित साजिश के लिए मूल रूप से एनडीए सरकार ही जिम्मेदार है। तेजस्वी भी अक्सर यह कहते हैं कि उनके पिता अभी आराम की जिंदगी व्यतीत कर रहे होते अगर उन्होंने फिरकापरस्त शक्तियों के खिलाफ अपने सिद्धांतों से समझौता कर लिया होता।
पिछले कुछ दिनों में राजद ने नीतीश को भी यह कहकर घेरने की कोशिश की कि उन पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता। चुनाव प्रचार की शुरुआत में ही प्रकाशित पत्रकार नलिन वर्मा के साथ लिखी गोपालगंज से रायसीना नमक अपनी जीवनी में लालू ने दावा किया कि जुलाई 2017 में भाजपा से फिर हाथ मिलाने के छह माह के भीतर ही नीतीश ने महागठबंधन में वापस आने का प्रयास किया था। उन्होंने कहा कि नीतीश के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर इस संबंध में उनसे पांच बार मिले थे, लेकिन उन्होंने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। लालू के इस रहस्योद्घाटन से उठा विवाद अभी थमा भी न था कि तेजस्वी और राबड़ी देवी ने दावा किया कि नीतीश ने यह भी प्रस्ताव भिजवाया था कि उनकी पार्टी भाजपा से फिर अलग हो कर राजद में विलय कर लेगी, बशर्ते लालू उन्हें महागठबंधन के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर लें। उन्होंने तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश भी की थी। तेजस्वी ने यह भी दावा किया कि राजद से निराश होने के बाद नीतीश ने प्रशांत किशोर को कांग्रेस के पास भी अपनी पार्टी के विलय का प्रस्ताव लेकर भेजा था और अनुरोध किया था की वह लालू को इसके लिए मना ले।
राजद के इन सभी दावों को जद-यू और प्रशांत किशोर ने सिरे से खारिज कर दिया। प्रशांत ने लालू को इस विषय पर डिबेट करने की चुनौती भी दे डाली। भाजपा के वरिष्ठ नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने लालू की जीवनी को एक घटिया किताब की संज्ञा देते हुआ कहा कि इसके पहले चार अध्याय में कम से कम 100 तथ्यात्मक गलतियां हैं। इससे पूर्व, जद-यू के प्रवक्ता नीरज कुमार ने लालू के जनता के नाम लिखे पत्र के जवाब में लिखी चिट्ठी में कहा, लोग अब राजद के ‘लालटेन युग’ और ‘जंगलराज’ को भूलकर नए बिहार की स्क्रिप्ट लिख रहे हैं।”
इसमें दो मत नहीं है कि जेल में रहने के बावजूद लालू ही एनडीए के निशाने पर हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि लालू ही महागठबंधन के वोटबैंक के सबसे बड़े स्रोत हैं। इस चुनाव में इसके नेताओं को उम्मीद है कि लालू के कारण मुस्लिम और यादव के साझा 30 प्रतिशत मतों का उनके पक्ष में ध्रुवीकरण हो सकता है जो कई क्षेत्रों में निर्णायक हो सकता है।
लालू इस बार मोदी विरोधी शक्तियों को बिहार में एकजुट रखने में भी सफल रहे हैं। अगर बेगूसराय जैसे एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बिहार के अधिकतर लोकसभा क्षेत्रों में महागठबंधन और एनडीए के बीच सीधी टक्कर है। 2014 के संसदीय चुनाव के नतीजों का आकलन करने के बाद लालू ने यह निष्कर्ष निकाला था कि मोदी विरोधी मतों के विभाजन के बगैर एनडीए को राज्य में शिकस्त नहीं दी जा सकती है। एक वर्ष बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उनका गठबंधन उनकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थी।
2017 में नीतीश के एनडीए में वापसी के बाद से ही वे सभी विपक्षी दलों के एक मजबूत महागठबंधन को मूर्त रूप देने में जुट गए। जेल जाने के बाद भी वे विभिन्न दलों के नेताओं से लगातार मिलते रहे और, सूत्रों के अनुसार, उन्हें एकजुट होकर चुनाव लड़ने की सलाह देते रहे। इस एकता के लिए लालू ने कुर्बानियां भी दीं और घटक दलों के लिए जरूरत से ज्यादा सीटें छोड़ दीं। यह सब लालू की एनडीए को शिकस्त देने के लिए सोची-समझी योजना का हिस्सा है। यह तो आगामी 23 मई को पता चलेगा कि उनका एकसूत्री कार्यक्रम कितना कारगर रहा, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज बिहार की 40 सीटों में कहीं भी एकतरफा मुकाबला होता नहीं दिख रहा है। अंतिम परिणाम चाहे जिस गठबंधन के पक्ष में हो, लालू चुनावी रण में शामिल न होते हुए भी अपनी मौजूदगी का एहसास कराने में सफल हैं।