प्रशांति के क्षणों में संजोए गए भावों से सजी और उदासी को अपनाए, कविता सदा से हृदय की भाषा रही है। चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा ने कहा है, “जब हृदय बोलता है, तो मस्तिष्क को दखल देना नहीं सुहाता।” कविता हमारे भीतर उमड़ रहे गहरे भावों को खंगालकर उन्हें अभिव्यक्त करने का ऐसा माध्यम है, जो दबी हुई संवेदनाओं को जागृत करती है। कविता भावुकता को ऐसे स्तर पर पहुंचाती है जहां मनुष्य की पीड़ा ही आत्मा का संगीत बन जाती है। कभी-कभार आने वाले आनंद के कुछ क्षण साधारण जीवन की शून्यता में उमंग की धरोहर बन जाते हैं। जीवन के तीखे कंटीले मोड़ों की चुभन के बीच कविता दर्द को सहर्ष स्वीकारती है, परंतु जीवन का मोल कम नहीं होने देती।
कविता की अंतःशक्ति और उसका सार्वभौम आकर्षण चयनित शब्दों के ‘कंपन और आकर्षण’ में है। लय और ताल में पिरोये गए शब्द गहन भावनाओं को बढ़ा देते हैं। एकात्मता, करुणा, न्याय-अन्याय, प्रेम-घृणा, एकरूपता और विभेद, स्वीकृति और विरोध, क्रोध और व्यथा से सजा जीवन इसके सुर के प्रभाव से और मधुर हो जाता है। कविता अपना संगीत संसार स्वयं रचती है। वह भाषा को कला में परिवर्तित कर कवि को ‘मर्यादित और मुखर’ होने के लिए स्वतंत्र कर देती है। जाने-माने गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी ने कहा हैः
“दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं।”
कविता में कवि अपनी आत्मा को पिरो देता है। मोहक मनोभावों से प्रेरित कवि, युग की सच्चाई को अपने अनुभवों से गूंथता है। यह सृजन सिर्फ उसका न रहकर पूरे समाज का आईना बन जाता है। दाग देहलवी के शागिर्द और उर्दू के महान शायर सीमाब अकबराबादी का एक शेर इसकी गवाही हैः
“कहानी मेरी रुदाद-ए-जहां मआलूम होती है,
जो सुनता है उसी की दास्तान मआलूम होती है।”
कवि का दायित्व है कि उसका अपना सत्य और जीवन का सच काव्यगत क्षेत्र से परे न जाने पाए। वह अतीत का इतिहास-लेखक है, वर्तमान का दर्शक है और भविष्य का आईना भी है। वह मनोभावों और जीवन की वास्तविकताओं के बीच की दूरी को पाटने का काम भी बखूबी करता है। शकील बदायूंनी ने जीवन और साहित्य के समन्वय को बखूबी बताया है:
“मैं शकील, दिल का हूं तर्जुमा, कि मोहब्बतों का हूं राजदान,
मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी जिंदगी से जुदा नहीं।”
अपनी व्यापक दार्शनिक कल्पनाओं में साहित्यकार ‘मानवता के उदास ठहराव’ में समय के अन्याय की भी पड़ताल करते रहे हैं। निराशा हो या एकतरफा प्रेम की पीड़ा का आनंद, आशाहीनता हो या विरोध की रूमानियत, ऐसे अनेक मनोभाव साहित्य में स्थान पाकर अमर हो गए हैं। प्रत्येक काल की संस्कृति ने उस समय के इतिहास की देह को आभूषित किया है। दर्शन, मनोभाव और जीवन-उत्साह, कला में इन सबका समावेश है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रज्ञा हमें राह दिखाती आई है। प्रसिद्ध जर्मन कवि और नाटककार बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कहा है, “कला वास्तविकता का दर्पण नहीं, बल्कि वह हथौड़ा है जिससे इसका आकार सुधारा जा सकता है।”
विद्वानों की रचनाएं वह अमूल्य धरोहर है जिनमें शब्दों के सार्थक और सुरम्य संयोजन से उस कालखंड का ज्ञान और संवेदनशीलता सहेजी गई है। छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध खंडकाव्य ‘आंसू’ में वैयक्तिक दुख की पराकाष्ठा कुछ इस तरह दर्शायी गई हैः
“इस करुणा कलित हृदय में,
अब विकल रागिनी बजती।
क्यूं हाहाकार स्वरों में,
वेदना असीम गरजती।”
गहन शोक और दुख जहां एक ओर मुक्तिकारी है, वहीं यह पीड़ा जीने की उम्मीद भी जगाती है। इसी कारण पीड़ा का काव्य आशा का काव्य भी है। मिर्जा गालिब के इन शेरों में इस वेदना की अद्वितीय अभिव्यक्ति हैः
“जुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-गम का जोश है,
एक शमा है दलील-ए-सहर सो खामोश है।
या सुबह दम जो देखिए आ कर तो बज्म में,
न वो सुरूर-ओ-सोज न जोश-ओ-खरोश है।
दाग-ए-फिराक-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई,
एक शमा रह-गई है, वो भी खामोश है।”
मशहूर शायर साहिर लुधियानवी की शायरी में इस बेबसी का मार्मिक चित्रण हैः
“मजबूर हूं मैं
मजबूर हो तुम मजबूर ये दुनिया सारी है,
तन का दुख मन पर भारी है।
इस दौर में जीने की कीमत या दार-ओ-रसन या ख्वारी है।”
यहीं नहीं, वे आम लोगों और उनकी गरिमा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी व्यक्त करते हैंः
“लेकिन ऐ अज्मत-ए-इंसां के सुनहरे ख्वाबों
मैं किसी ताज की सतवत का परस्तार नहीं,
मेरे अफ्कार का उनवान-ए-इरादत तुम हो,
मैं तुम्हारा हूं लुटेरों का वफादार नहीं।”
प्रख्यात शायर परवीन शाकिर का दमन के विरुद्ध ओजस्वी कलाम संवेदनशील मन को जागृत करने के साथ न्याय के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने को प्रेरित करता हैः
“पा-ब-गिल सब है रिहाई की करे तदबीर कौन?
दस्त-बस्ता शहर में खोले मेरी जंजीर कौन?
मेरा सर हाजिर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले,
कर रहा है मेरी फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन?”
जो लोग कुछ हटकर कर गुजरने की चाहत रखते हैं, उनके लिए असरारुल हक ‘मजाज’ की शायरी में ध्वनित कुछ बड़ा कर दिखाने का जज्बा प्रेरणास्रोत हैः
“रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं, मेरी फितरत नहीं।”
इस संबंध के प्रकाश में कवि का विलाप, उसकी व्यथा की अभिव्यक्ति में निहित परामर्श अथवा चेतने के प्रयास भले ही नितांत निजी हों, सामाजिक तथा राजनैतिक संदर्भ में उनका बड़ा संदेश अंतर्निहित होता है। कवि के भीतर का दार्शनिक मन प्रगतिशील परिवर्तन का वाहक होता है। चूंकि अभिव्यक्ति का सामर्थ्य उस संदेश को प्रभावपूर्ण बनाता है, इसलिए स्वतंत्रता संग्राम की साहित्यिक रचनाओं के कई रत्न अब राष्ट्र की राजनैतिक लोकरंजना का अंग ही नहीं, बल्कि अन्याय तथा दमन के विरुद्ध अनवरत संघर्ष के प्रेरणास्रोत भी हैं। बंकिम चंद्र चटर्जी का ‘वंदे मातरम’, बिस्मिल अजीमाबादी का ‘सरफरोशी की तमन्ना’, राम प्रसाद बिस्मिल का ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’, इन सब में औपनिवेशिक सरकार के प्रति कड़वाहट और घृणा के बिना स्वतंत्रता की ललक जगाने की क्षमता रही है। इन रचनाओं ने पूरे राष्ट्र में स्वतंत्रता-प्राप्ति का जज्बा जगाया था। स्वतंत्रता के ऐसे गीतों की शक्ति का नैतिक आकर्षण भारतीयों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज भी पूजनीय है।
राजनीतिक मतभेदों के दौर में हमारे सामाजिक गठन के परिप्रेक्ष्य में अतीत के ऐसे संवाद बेहद प्रासंगिक हैं। स्पष्ट है कि गहन भावों की सरस अभिव्यक्ति से ओतप्रोत विचारों की गरिमा जन-स्मृति पर अमिट छाप छोड़ती है और इसी से सार्वजनिक संवाद सकारात्मक बनता है। यह साहित्य की ही क्षमता है कि विवादित और जटिल विषयों को वह अत्यंत अनौपचारिक सुगमता से उठा सकता है और कटु आलोचनाओं को बिना विद्वेष के व्यक्त कर सकता है। किसी मन को आघात देने वाली द्वेष और कटुता लाए बिना विवादास्पद विषयों पर संभाषणों को प्रस्तुत करना साहित्यिक कौशल का प्रमाण है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध कवि ए. ई. हाउजमैन ने शोषण और मानव पीड़ा की प्रभावपूर्ण आलोचना भी नम्रता तथा शिष्टता के साथ करते हुए लिखा थाः
“मेरी कविता उन्हें दुखमय लगती है, आश्चर्य क्या?
इस पतली धारा में बहते हैं शाश्वत दुख और पीड़ा के अश्रु।
ये मेरे मात्र नहीं, मानव के हैं।”
चिली के महानतम कवि पाब्लो नेरूदा ने इतिहास की गवाही देते हुए यह लिखा है कि “तानाशाही गीत गाने वाला शीश भले काट सकता है, परंतु कुएं के भीतर से वह स्वर धरती की गुप्त धारों से फूटकर निकलता है और घुप्प अंधेरे को चीरता हुआ जनता की आवाज बनकर गूंजता है।”
क्रांतिकारी कवि और शायर फैज अहमद फैज का तराना भी दमन के विरुद्ध अनवरत संघर्ष में मशाल बनकर स्वतंत्रता की विजय का ऐलान करता हैः
“ऐ खाकनशीनों उठ बैठो वो वक्त करीब आ पहुंचा है,
जब तख्त गिराए जाएंगे जब ताज उछाले जाएंगे,
अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं,
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएंगे।”
मानव गरिमा को समर्पित मोहम्मद इकबाल की रचना आज भी मौजू हैः
न तू जमीं के लिए है, न आसमां के लिए,
जहां है तेरे लिए, तू नहीं जहां के लिए।
तू शाहीन है, परवाज है काम तेरा,
तेरे सामने आसमान और भी हैं।
इसी रोज-ओ-शब में, उलझ कर न रह जा,
कि तेरे जमीनों-मकां और भी हैं।
सितारों से आगे जहां और भी हैं,
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं।”
निस्संदेह, वर्तमान युग में भी संवाद की प्रभावशीलता लिखे जाने वाले और कहे जाने वाले शब्दों के लालित्यपूर्ण चयन पर निर्भर करती है। तभी हम गालिब की इस फटकार से बच पाएंगे किः
“हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम्हीं कहो के ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है?”
अब समय है कि हम अपने सार्वजनिक संवाद का उद्देश्य उत्तम रखें, जो काव्यात्मक कल्पना से प्रेरित हो और साहित्यिक सौंदर्य से ओत-प्रोत हो, जिससे कि अन्तरवैयक्तिक तथा सामाजिक संवाद दोनों ही शालीन हो सकें। आइए, हम अपने भाषा-संसार में गहरे उतरकर भाषा और शैली को समय की जरूरत के अनुसार मूल्यवान बनाएं।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं)