फायर और फ्लावर के बीच
इस बार का अंक देख कर लगा कि आउटलुक आखिर क्यों इतनी लोकप्रिय है। (21 फरवरी, दक्षिण के दबंग) फिल्मों पर तो बहुत से अंक निकलते हैं और देखे भी हैं, लेकिन दक्षिण के लोकप्रिय सिनेमा पर कभी इतनी सारगर्भित अंक नहीं देखा। अभी पुष्पा का जादू हर किसी के सिर चढ़ कर बोल रहा है। देश में किसी भी उम्र का शायद ही कोई बचा हो, जिसने पुष्पा न देखी हो। मैं जहां रहता हूं वहां से काफी दूर एक गांव है, वहां का एक परिचित मुझसे मिलने आया। बातचीत में उसने कहा कि वे लोग मुझे फ्लावर समझ रहे थे, फिर मैंने उन्हें बता दिया कि मैं फायर हूं। मैं जब बात का अर्थ नहीं समझा तो उसने मुझे फिल्म का नाम बताया और आश्चर्य किया कि मैंने अभी तक यह फिल्म नहीं देखी। उसी दिन मैंने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर यह फिल्म देखी। फिल्म वाकई अच्छी लगी। उसके बाद मैंने आउटलुक का अंक देखा तो और खुशी हुई कि पत्रिका लोगों की पसंद से इतनी जल्दी जुड़ी और इतना अच्छा अंक भी निकाल लिया। यही आउटलुक की ताकत है। जब जो चल रहा हो, उसे पाठकों तक पहुंचा दो।
संजय त्रिपाठी | ग्वालियर, मध्य प्रदेश
नए दबंग
21 फरवरी के अंक में आपने एक तीर से दो निशाने किए हैं। आवरण पर ही लिख दिया है, दक्षिण के दबंग। इससे आपने मुंबईया फिल्म उद्योग के दबंगों तक भी संदेश पहुंचा दिया है कि भाई लोग अब फिल्म उद्योग पर सिर्फ तुम्हारा ही हक नहीं है बल्कि सुदूर दक्षिण से कोई भी आकर तुम्हारी कुर्सी छीन लेगा। आवरण पर अल्लु अर्जुन का शानदार फोटो देख कर दिल खुश हो गया। मौके पर आया यह अंक सीधे दिल तक पहुंचा। दक्षिण में बहुत से प्रतिभावान कलाकार हैं, जो बॉलीवुड के कलाकारों से किसी मायने में कम नहीं हैं। लेकिन बॉलीवुड ने किसी और कलाकार को यहां पनपने का मौका नहीं दिया। अब ओटीटी इतना बड़ा माध्यम हुआ है कि अब किसी भी प्रतिभा को दबाया नहीं जा सकेगा।
कनिका शर्मा | हैदराबाद, तेलंगाना
प्रयोगधर्मी दक्षिण सिनेमा
दक्षिण भारतीय फिल्में हमेशा से ही मुंबइया फिल्मों से बेहतर रही हैं। इस बार की आवरण कथा (21 फरवरी, दक्षिण के दबंग) में इस बात को खूबसूरती से रेखांकित किया गया है। जो भी व्यक्ति क्षेत्रीय फिल्मों को समझता है, वह इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि दक्षिण की फिल्में उत्तर भारत की फिल्मों से ज्यादा प्रयोगधर्मी होती हैं। दक्षिण हमेशा नएपन की तलाश में रहता है, जबकि बॉलीवुड बासी कढ़ी को ही उबालते रहते हैं। घूम-फिर कर उन्हीं कहानियों को अलग-अलग कलाकारों के साथ कहते रहते हैं। अब बॉलीवुड मध्यमवर्गीय परिवार, परिवेश, शहर का रस निकालने पर तुला हुआ है। जिसे देखो मध्यमवर्गीय परिवार और उनकी समस्याओं पर फिल्म बनाने लगा है। इससे जल्दी ऊब होती है। बॉलीवुड भेड़चाल है, जबकि दक्षिण भारतीय प्रयोग की खान है।
चित्रा देसाई | गांधीनगर, गुजरात
नए नायक का उदय
बीते दिनों में बॉलीवुड ने वास्तविक विषयों को छुआ और कुछ फिल्में वाकई अच्छी बनीं। लेकिन कई सुपरसितारे फ्लॉप रहे। इसकी एक वजह एकरसता है। आवरण कथा (21 फरवरी, दक्षिण के दबंग) में यह सही लिखा है कि बॉलीवुड जब तक पुष्पा के जादू को समझ पाता, पुष्पा की सफलता का रथ बहुत आगे निकल चुका था। यह सोचने वाली बात है कि पुष्पा की कहानी में ऐसा कोई नयापन नहीं है। लेकिन वह क्या बात है, जिसकी वजह से इसके हिंदी संस्करण ने सप्ताह भर में 100 करोड़ रुपये की कमाई कर ली। किसी फिल्म का विश्वव्यापी कलेक्शन 350 करोड़ रुपये पार जाना कोई मामूली बात नहीं है। पुष्पा फिल्म में एक-एक संवाद सुनने लायक है। हर कोई इसका दीवाना हो गया है। बॉलीवुड को सोचना चाहिए कि साधारण सा दिखने वाला लड़का चल गया यानी कहानी में दम होगा तो सब चलेगा। इस फिल्म का प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा है। फिल्म बांधे रखती है। ओटीटी प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम वीडियो पर आने से भी इसे फायदा हुआ है। जो लोग छोटे शहरों में रहते हैं और जहां यह फिल्म थिएटरों में नहीं लगी, वहां भी इसे ओटीटी के कारण दर्शक मिले। इसमें कोई शक नहीं कि पुष्पा की अप्रत्याशित सफलता के बाद अल्लु अर्जुन राष्ट्रीय स्तर के सुपरस्टार बन गए हैं। यह जानकारी नई थी कि फिल्म के ‘श्रीवल्ली’ गाने के दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के थिएटरों में तालियां और सीटियां बजीं। किसी भी सिने प्रेमी के लिए यह बहुत सुखद है। ऐसी फिल्में आती रहनी चाहिए ताकि, भाषाई दीवार पूरी तरह ढह जाए। यही असली भारत की पहचान है। क्षेत्रीय सिनेमा को अभी तक उसका असली हक नहीं मिला है। इसके लिए जरूरी है कि ऐसी फिल्में आती जाएं और उन्हें पूरे भारत के दर्शकों का प्यार मिले। अल्लु अर्जुन ने अभी तक किसी हिंदी फिल्म में काम नहीं किया है लेकिन बॉलीवुड इतना घमंडी है कि वह फिर भी उनके पास नहीं जाएगा। क्योंकि बॉलीवुड किसी को भी अपने सामने खड़े होते नहीं देख सकता। अभी यही कोई उत्तर भारतीय कलाकार होता तो उसके आगे फिल्म निर्माता लाइन लगाए खड़े रहते। बॉलीवुड को एक दिन उसका यही घमंड ले डूबेगा। फिर भी अल्लु अर्जुन को देख कर लगता है कि वे फ्लावर नहीं, फायर ही सिद्ध होंगे।
चंदन पुरोहित | इंदौर, म .प्र
चुनावी सरगर्मी
आउटलुक के 21 फरवरी अंक में 'जनादेश 2022' के अंतर्गत चुनाव की राज्यवार जानकारियां बहुत अच्छी हैं। चुनाव की सुर्खियां एक जगह मिल जाएं तो इससे अच्छा क्या हो सकता है। बागियों का पार्टी नेतृत्व की अपील ठुकराना, जिसमें मौजूदा विधायक से लेकर पूर्व मंत्री तक शामिल हों, ऐसी रोचक बातें पढ़ने में मजा आता है। अब पाटियां भले ही बागियों पर सख्ती दिखा रही हों, लेकिन कुछ समय बाद सभी बागियों को देर-सबेर सियासी ठिकाना मिल ही जाता है। इस कारण बागी पार्टियों की परवाह भी नहीं करते हैं। चुनाव दर चुनाव सियासी दलों को अधिकृत उम्मीदवारों के सामने बागियों की मौजूदगी का सामना करना पड़ता है जो आमतौर पर समान वोट बैंक पर चोट कर अधिकृत प्रत्याशी के लिए संकट खड़ा कर देते हैं। नाम वापस न लेने वाले उम्मीदवारों को भले ही पार्टियां तब छह साल के लिए निकाल देती हैं, लेकिन ज्यादातर की कुछ समय बाद ही सम्मान सहित वापसी भी हो जाती है। यह हमारे लोकतंत्र की कैसी विडंबना है। दल-बदल कानून तक को धता बताकर ये बागी हीरो बन जाते है।
हरीशचंद्र पांडे | हलद्वानी, उत्तराखंड
धर्म के नाम पर बांटना गलत
21 फरवरी के अंक में 'जनादेश 2022' लेख में हर राज्य के चुनावी दांव-पेच पढ़ कर राज्यों की सही स्थिति पता चली। पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव को लेकर इस बार बहुत अलग बातें देखने को मिल रही हैं। देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बिगड़ रहा है। मोदी सरकार आने के बाद से देश धर्म के नाम पर साफ तौर बंटता हुआ दिखाई दे रहा है, जो चिंताजनक है। यह काम और कोई नहीं बल्कि सत्ता में बैठे लोग ही कर रहे हैं। भारतीय संविधान की मूल भावना हमें जाति, धर्म के विभेद से अलग रखती है। किसी भी राजनैतिक पार्टी को वोट के लिए न तो किसी वर्ग विशेष पर कीचड़ उछालना चाहिए न ही धार्मिक भावनाओं का सहारा लेना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब हम सभी वर्गों, धर्मों और जातियों के प्रति समान भाव के रास्ते पर चलें। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने महिलाओं को जो 40 प्रतिशत टिकट देने की पहल की है वह स्वागतयोग्य है। इन पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ही 2024 के लोकसभा चुनाव का भविष्य तय करेंगे। भाजपा का यह स्वरूप भी बदलना चाहिए कि पार्टी कोई भी जीते, ये लोग कुछ महीनों बाद विधायकों की खरीद-फरोख्त कर अपनी सरकार बना लेते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति है। दलबदल के सहारे किसी भी निर्वाचित सरकार को गिराना लोकतंत्र की हत्या करने जैसा है और इस पर लगाम लगनी चाहिए।
श्रीगोपाल नारसन | मुंबई, महाराष्ट्र
देशहित सर्वोपरि हो
इन दिनों पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में जीत के लिए सभी राजनीतिक दल अपने ढंग से एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। 21 फरवरी के अंक 'जनादेश 2022' में लोकतंत्र के इस अद्भुत उत्सव की अच्छी जानकारी है। अब जरूरी है कि नेता गलत दांव-पेच छोड़कर देशहित को सर्वोपरि रखकर चुनाव प्रचार करें। मगर इस चुनावी समर में विभिन्न राजनीतिक दल हिंदू-मुस्लिम, दलित, ओबीसी आदि के आधार पर लोगों में भेदभाव पैदा करके आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं, उससे समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है। ज्यादा बुरा तब लगता है जब दिहाड़ी मजदूर, पान-बीड़ी बेचने वाले और चाय विक्रेता तक को इस राजनीतिक कटुता में शामिल किया जाता है। चुनाव प्रचार एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के बिना होना चाहिए। क्योंकि गैर-जिम्मेदार बयानों से होने वाला नुकसान समाज पर हमेशा भारी पड़ता है।
संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान
मुद्दों से भटकाने की कोशिश
जनादेश 2022 की गहन समीक्षा करता 7 फरवरी 2022 का आउटलुक इस बार समय से प्राप्त हो गया। संपादक महोदय ने चुनावी माहौल में सोशल मीडिया की सार्थक भूमिका के निर्वहन और दायित्व बोध का जो भान कराया है, वह आईना दिखाने के लिए पर्याप्त है। आज के दौर में जब विकास, रोजगार, महंगाई, भारतीय मुद्रा की गिरती साख, जीडीपी में निरंतर गिरावट जैसे मुद्दे एजेंडे से बाहर हो चुके हैं, विभिन्न पार्टियां धर्म की आड़ में जनता का ध्यान भटका रही हैं। विमर्श में सम्राट अशोक सरीखे गड़े मुर्दे उखाड़ने वालों की लेखक ने कलई खोल कर रख दी। उत्तर प्रदेश में भाजपा को सत्ता बरकरार रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा इसमें कोई शक नहीं है। पंजाब, उत्तराखंड, गोवा आदि में नए समीकरण से संबंधित रिपोर्ट सत्य की पड़ताल करती हुई प्रतीत हुई। सत्तारूढ़ पार्टी के साथ विपक्षी दलों के मेनिफेस्टो में से असली मुद्दे नदारद हैं। बड़ी कंपनियों को मात देते स्टार्टअप के बारे में पढ़ा। लेकिन आशंका है कि इनमें स्टैग्नेशन आएगा और अभी जो 30-40 प्रतिशत की ग्रोथ दिख रही है, वह 10 से 12 प्रतिशत रह जाएगी। यह अंक मतदाताओं की आंखें और राजनीतिक पार्टियों की कलई खोलने में समर्थ लगा।
सबाहत हुसैन खान | उधम सिंह नगर, उत्तराखंड
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पुरस्कृत पत्र
उत्तर से आगे दक्षिण
यह बहस दक्षिण या उत्तर भारतीय सिनेमा की नहीं है। जो लोग खुश हो रहे हैं कि बॉलीवुड को पछाड़ कर दक्षिण के कलाकार उत्तर भारत में छा गए हैं या पुष्पा फिल्म ने सिनेमा जगत की रौनक लौटा दी है, उन्हें समझना होगा कि लोग हमेशा से अच्छा देखना चाहते हैं। लेकिन बॉलीवुड माफियाओं का अड्डा है और दक्षिण के लोगों के यहां संपर्क नहीं होते थे इसलिए वे लोग अपनी फिल्में यहां रिलीज नहीं करा पाते थे। लेकिन अब धन्यवाद देना होगा ओटीटी माध्यम और सोशल मीडिया को जिसकी वजह से अब किसी को भी रोका नहीं जा सकता। सोशल मीडिया पर पुष्पा का इतना जोर था कि अमेजन प्राइम जैसे ओटीटी माध्यम को इसे अपने यहां लेना ही पड़ा। वहां की फिल्मों का कंटेंट जबर्दस्त होता है इसमें दो राय नहीं है।
सुकेश रंजन | पटना, बिहार