भ्रमित मतदाता
भारत का प्रमुख उत्सव चुनाव है। अभी बिहार के चुनाव खत्म हुए और अब सबकी निगाहें पश्चिम बंगाल में लग गई हैं। 25 जनवरी की आवरण कथा, ‘मिशन कोलकाता’ इस राज्य में होने वाले चुनावों के कई पहलुओं से रूबरू कराती है। मीडिया इस पूरे चुनाव को ऐसे दिखा रहा है, जैसे यह चुनाव न होकर युद्ध का मैदान हो। चुनाव जीतने के लिए सभी पार्टियां शुरू से ही खूब मेहनत करती रही हैं। पहले एक ही पार्टी का अस्तित्व था फिर भी चुनाव प्रचार उतने ही जोर-शोर से होता था, ऐसी ही रैलियां होती थीं। इसमें कुछ नया नहीं है। लेकिन अब देखने में आ रहा है कि चुनाव होने में चार-छह महीने होते हैं और मीडिया ऐसा दिखाने लगता है कि बस कल ही चुनाव हैं। दो पार्टियों की प्रतिद्वंद्विता, नेताओं की ऊल-जुलूल बयानबाजियां, सरकार बनाने के दावे आदि ऐसी बातें हैं, जिन पर इतना ध्यान दिलाया जाता है कि चुनाव महज सरकार बनाने का खेल लगने लगता है। मतदाता भ्रमित होते हैं और परिणाम के बाद जनता के हाथ कुछ नहीं लगता। इस तरह की रिपोर्टिंग से माहौल में धीरे-धीरे एक-दूसरे के प्रति नफरत फैलती है, जो दिखाई नहीं देती। बेहतर हो कि मुद्दों की बात की जाए न कि कौन किसके वोट काट रहा है या किसे फायदा पहुंचा रहा है।
सम्यक समीर | दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल
दखल आसान नहीं
‘बंगाल की विकट जंग’ (25 जनवरी 2021) आवरण कथा पढ़ी। अमित शाह कह रहे हैं कि यह बंगाल की आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत को बहाल करने की लड़ाई है। लेकिन क्या अमित शाह बंगाल की संस्कृति से परिचित हैं? बंगाल की संस्कृति हजारों साल पुरानी है और यहां किसी बाहरी का दखल आसान नहीं है। अच्छी बात है कि अमित शाह यहां मेहनत कर रहे हैं लेकिन यह राज्य अन्य राज्यों की तरह नहीं है। यहां विजय पताका फहराना आसान काम नहीं है। इस लेख का शीर्षक वाकई बहुत अच्छा लगा क्योंकि यह वास्तव में विकट जंग है।
कीर्ति झा, कोलकाता | पश्चिम बंगाल
शह-मात का खेल
हर रोज आती खबरों से यह तो तय हो गया है कि बंगाल के चुनाव दिलचस्प होने जा रहे हैं। 25 जनवरी की आवरण कथा, ‘बंगाल की विकट जंग’ खूब अच्छी लगी। इससे वहां की अंदरूनी राजनीति की जानकारी मिली। पल-पल बदलती स्थिति देख कर तो लग रहा है कि राजनीतिक पंडित भी इस चुनाव की भविष्यवाणी नहीं कर पाएंगे। हालांकि भारतीय जनता पार्टी बहुत आक्रमक होकर खेल रही है। उसने तृणमूल कांग्रेस के कई लोगों को तोड़ कर अपने पाले में कर लिया है। लेकिन फिर भी जब तक नतीजे न आ जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। ममता बनर्जी के चेहरे की चिंता बता रही है कि इस बार उनके लिए यह चुनाव परेशानी भरा रहेगा।
मनस्विनी तोमर | धार, मध्य प्रदेश
चुनाव जीतना मकसद
‘बंगाल की विकट जंग’ (25 जनवरी) कोई शुभ संकेत नहीं देती हैं। चाहे भाजपा हो या तृणमूल, बंगाल में पिछले कुछ समय से जो राजनीतिक परिस्थितियां बनाई जा रही हैं वो कम से कम जनता के अनुकूल तो नहीं है। ये स्थितियां शुभ लोकतंत्र की तरफ इशारा नहीं करतीं। अब येन, केन प्रकारेण बस चुनाव जीतने को ही सब कुछ मान लिया जाता है, जो अशोभनीय है। भाजपा अपनी जड़ें जमाने और सत्ता में आने के लिए हर प्रकार के हथकंडे आजमा रही है, तो वहीं तृणमूल भी किसी भी हालत में सत्ता गंवाना नहीं चाहती। जनता का कल्याण और प्रदेश का विकास कोई मायने नहीं रखता। रक्त रंजित होते बंगाल की यही कहानी है, किसे दोष दें, किसे नहीं! सब एक जैसे हैं! यह कड़वी सच्चाई है। दुख इस बात का है कि लोकतंत्र अब वह लोकतंत्र नहीं रहा जिस पर हम सब नाज करते थे। यह केवल एक बंगाल की बात नहीं है, पूरे देश में ही ऐसा हो रहा है।
हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश
दोगुने जश्न का वक्त
प्रथम दृष्टि (25 जनवरी) में बिलकुल सही लिखा है कि यह मानवता का टीका है। अब जबकि टीकारण की शुरूआत हो चुकी है, ऐसे में यह लेख और प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि वाकई यह भारत के लिए दोगुने जश्न का वक्त है। अब हम सभी की जिम्मेदारी है कि टीके के प्रति आशावान और सकारात्मक रहें। यह क्या कम है कि भारत ने खुद अपना टीका विकसित किया है और दूसरे देश भी इसे चाहते हैं। यह कठिन समय है, जिसमें सभी मिलकर इन प्रयासों की ताकत बनें।
उषा सरमा | गुवाहाटी, असम
भ्रांति न फैले
भारत में टीकाकरण का शुरू होना सुखद है। लंबे समय से पूरा विश्व इस महामारी से जूझ रहा है। टीका आने के बाद फिर जिंदगी ढर्रे पर लौट आएगी ऐसी आशा है। ‘किसकी वैक्सीन?’ (25 जनवरी) टीके के आने और उसके पहले की स्थितियों का सटीक आकलन करता है। इसमें बिलकुल ठीक लिखा है, अब इसके प्रति कोई भ्रांति नहीं फैलाई जानी चाहिए क्योंकि यह कड़ी मेहनत का परिणाम है।
श्रीनिधि वत्स | पंडरपुर, महाराष्ट्र
अच्छे दिन की आस
आउटलुक के 25 जनवरी अंक में बॉलीवुड की आने वाली नई फिल्मों के बारे में पढ़ा। अच्छे दिन एक तरह से जुमला बन गया था। अब तो लगता है, किसी भी उद्योग में अच्छे दिन दूर की कौड़ी हैं। आने वाली फिल्मों की सूची में कुछ अच्छी फिल्में हैं, जिन पर दर्शकों की नजर रहेगी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है कि हम सब महामारी से उबरें। टीकाकरण के बाद थिएटर खुलते हैं, तो यह न सिर्फ कलाकारों के लिए अच्छा होगा, बल्कि यह दर्शकों के लिए भी राहत देने वाला होगा। फिल्में सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं हैं बल्कि इनके बहाने हम बहुत सी बातें जानते हैं और इस बहाने घर से बाहर कुछ वक्त सुकून से बिता पाते हैं।
तेजस्विनी कुलकर्णी | मुंबई, महाराष्ट्र
अड़ियल रवैया छोड़े सरकार
आउटलुक के पिछले अंक (विशेषकर 28 दिसंबर 2020 और 11 जनवरी 2021 के अंक) में किसान आंदोलन की विस्तृत जानकारी पढ़ी। इंटरव्यू में मंत्री नितिन गडकरी कहते हैं कि नए कानून किसानों के हित में हैं, यह बात उन्हें समझाने में जितना भी समय लगे सरकार उसके लिए तैयार हैं। मंत्री जी की यह बात स्पष्ट करती है कि अभी तक सरकार किसानों की मांग पर विचार करने को तैयार नहीं है। इस संदर्भ में बस इतना बताना चाहता हूं कि खेती मूलतः राज्यों का विषय है। केंद्र सरकार को पूरे देश के लिए खेती से संबंधित कानून बनाने की जिद नहीं करना चाहिए। बहुत से राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां वे इस तरह के कानून बनाएं और उनके कार्यान्वयन से अन्य राज्यों को उदाहरण पेश करें कि इस तरह के कानून वास्तव में लाभदायक हैं। साथ ही सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का दायरा बढ़ाना चाहिए और इसे सीमित खाद्यान्नों की जगह अधिक खाद्यान्नों (सभी तरह के अनाजों, फलों और सब्जियों) के लिए घोषित करना चाहिए और राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि किसानों के उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम पर न बिकें। केंद्र सरकार के तीनों कानूनों से पहले भी किसान अपनी खेती और जमीन ठेके पर देने के लिए स्वतंत्र थे, तो फिर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए नए कानून की जरूरत कहां है? आखिर केंद्र सरकार खाद्यान्न के भंडारण की सीमा क्यों हटा रही है। इसकी जरूरत क्या है। किसान संगठनों को आशंका है कि तीन कृषि कानूनों की वजह से किसानों की खेती पर पूंजीपतियों (कॉर्पोरेट कंपनियों) का कब्जा हो जाएगा। यदि किसान का करार पर विवाद हो जाता है, तो नए कानूनों के तहत अदालत का दरवाजा खटखटाने का विकल्प बंद कर दिया गया है। एक और बुनियादी अंतर समझने की जरूरत है कि कॉर्पोरेट जगत का लक्ष्य लाभ कमाना होता है, जिसके लिए वह सरकार के मुकाबले लाभ के लिए अधिक चुस्त रहता है, जबकि सरकार का लक्ष्य राजनैतिक के साथ जनकल्याण भी होता है।
केशव राम सिंघल | अजमेर, राजस्थान
इतिहास का आईना
वाइट हाउस
28 अक्टूबर 1961
प्रिय मिशेल,
उत्तरी ध्रुव पर रूसियों की बमबारी से सांता क्लॉज के जीवन को खतरे में डालने और उन्हें ऐसा करने से रोकने के बारे में आपका पत्र देख कर मुझे बहुत खुशी हुई।
मैं भी न केवल उत्तरी ध्रुव के लिए बल्कि दुनिया भर के देशों के लिए सोवियत संघ के वायुमंडलीय परीक्षण की आपकी चिंता के साथ हूं। यह सिर्फ सांता क्लॉज के लिए नहीं बल्कि, विश्व के तमाम लोगों के लिए है।
आप सांता क्लॉज के लिए चिंतित मत हो। कल मैंने उनसे बात की थी और वे एकदम ठीक हैं। इस क्रिसमस पर वे फिर से आएंगे।
आपका जॉन कैनेडी
मासूम चिंता: 1961 में शीत युद्ध के तनाव के बीच सांता क्लॉज की चिंता में एक बच्ची ने राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को पत्र लिखा, जिसका जवाब वाइट हाउस ने भेजा।
पुरस्कृत पत्र
नई उम्मीद
कोविड-19 का टीका आना उम्मीद जगाता है लेकिन किसान आंदोलन का कोई हल न निकलना परेशान भी करता है। कड़ाके की सर्दी में किसान भाइयों का यह संघर्ष पता नहीं कब खत्म होगा। आउटलुक के 25 जनवरी अंक में उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी की दस्तक, मध्य प्रदेश में वहां के मुख्यमंत्री का दबाव में काम करना, झारखंड में सरकार के एक साल के कार्यकाल में कुछ भी न होना दिखाता है कि नए साल की चुनौतियां भी कम नहीं हैं। इसी अंक की आवरण कथा बताती है कि केंद्र में मौजूद सरकार बंगाल में किसी न किसी तरह बस अपनी पार्टी की सत्ता वहां स्थापित करना चाहती है। ऐसे में सर्वे भवन्तु सुखिनः वाला टीका बस कोविड-19 से बचा पाएगा, बाकी परेशानियों से नहीं।
सचिन देव शर्मा |हिसार, हरियाणा