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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं

राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान

आउटलुक ने हमेशा से ही किसानों की समस्याओं को विभिन्न अंक में प्रस्तुत किया है। 8 फरवरी के अंक में भी, महिला किसानों पर सामग्री देना प्रशंसनीय है।  ज्यादातर अखबार या पत्रिकाएं शहरी महिलाओं की समस्या को तो प्रकाशित करती है लेकिन ग्रामीण महिलाओं उनमें भी किसान महिलाओं को सामने लाना असली पत्रकारिता की मिसाल है।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

आधी आबादी की चिंता

8 फरवरी की आवरण कथा, ‘स्त्री किसान कौन देस की वासी’ पढ़कर पहली बार पता चला कि बड़ी संख्या में महिला किसान खुद के दम पर खेतों में काम कर रही हैं। आवरण कथा से ही पता चला कि महिलाएं मेहनत करती हैं और खेती की जमीन उनके नाम नहीं होती। इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा बात होनी चाहिए। बल्कि सरकार को कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि जो महिला खेती करना चाहे, उसे सरकार जमीन मुहैया कराए। या फिर महिलाओं को यदि पारिवारिक जमीन से हिस्सा चाहिए, और उसे न मिल रही हो, तो वह अपनी शिकायत दर्ज करा सके, जिसकी सुनवाई जल्द से जल्द हो। यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया है। इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।

टीकाराम सुतार | सिवनी, मध्य प्रदेश

दूर हो गुमनामी

आउटलुक के अंकों की यही खास बात है कि इसमें हर बार ऐसे विषय उठाए जाते हैं, जिन पर कोई और सोचता भी नहीं है। 8 फरवरी के अंक में, ‘खेत-खलिहान की गुमनाम बेटियां’ बढ़ कर मन उदास हो गया। हर क्षेत्र में महिलाएं नाम कमा रही हैं और उन्हें पहचान मिल रही है। खेती-किसानी में महिलाएं इसलिए गुमनाम हैं, क्योंकि किसी का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा। जो लोग कृषि पर बात करते हैं, लेख लिखते हैं और इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं उन्हें चाहिए कि वे अब ज्यादा से ज्यादा महिला किसानों की बात करें। सोच कर देखिए यदि किसान आंदोलन न हुआ होता, तो इन महिला किसानों पर कभी बात ही नहीं होती। इसलिए सभी को चाहिए कि हम सब मिलकर उनकी गुमनामी दूर करें।

विनी चौरसिया | जयपुर, राजस्थान

सबकी पसंद विवाद

8 फरवरी के अंक में प्रथम दृष्टि में ‘विवाद के बहाने’ में ठीक लिखा है कि सेंसरशिप समस्या का समाधान नहीं है। लेकिन आजकल देखने में आ रहा है कि बात-बेबात विवाद खड़े किए जाते हैं। इस बार तांडव को लेकर विवाद हो रहा है। इससे पहले पद्मावत पर विवाद हुआ था और वह फिल्म काफी उबाऊ थी। इसी तरह तांडव भी देखने लायक नहीं है। इससे तो लगता है कि निर्माता-निर्देशक को भी पता रहता है कि दर्शक इसे पसंद नहीं करेंगे, तभी शायद वे विवाद खड़ा कर देते हैं ताकि विवाद के बहाने ही सही थोड़ी बहुत चर्चा तो हो।

कुणाल चौधरी | दिल्ली

नई चुनौती

8 फरवरी के अंक में, ‘वह अक्षम्य अपराध’ अच्छा लगा। जो बाइडन के अमेरिका के 46 वें राष्ट्रपति बनते ही अमेरिका में बाइडन युग की शुरुआत हो गई है। अमेरिका के साथ दुनिया के दूसरे देशों को भी बाइडन से बहुत उम्मीदें हैं। लेकिन उन्हें सबसे पहले तो कोरोनावायरस से निपटने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। इस लेख में ट्रंप की खामियों को बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। चुनाव जीतने के लिए जिस तरह से उन्होंने सत्ता का दुरपयोग किया उससे अमेरिका का सिर शर्म से झुक गया है। बाइडन संवेदनशील हैं और उम्मीद है कि वे रंगभेद की समस्या से भी अच्छी तरह निपटेंगे।

रंजना मिश्रा | कानपुर, उत्तर प्रदेश

बाइडन की चुनौतियां

8 फरवरी के अंक में जो बाइडन की ताजपोशी पर अच्छा लेख है। ट्रंप ने अमेरिका की जितनी बदनामी की है, उतनी शायद ही किसी राष्ट्रपति ने की हो। ट्रंप ने अमेरिका को न केवल गड्डे में ढकेल दिया बल्कि विश्व नेता के रूप में वर्षों से स्थापित अमेरिका का स्थान खतरे में डाल दिया है। उम्मीद है कि अब बाइडन सभी चीजों को पटरी पर ले आएंगे। दुनिया को उनसे निरंतरता की उम्मीद है। अमेरिकी नीति निर्माताओं को सबसे पहले अपनी घरेलू चुनौतियों को देखना होगा।

नृपेन्द्र अभिषेक नृप | छपरा, बिहार

नए चेहरों की जीत

8 फरवरी के अंक में, ‘जीत लाए लाजवाब तोहफा’ बहुत अच्छा लगा। यह वाकई नए चेहरों की जीत है। टीम पहले टेस्ट में 36 रनों पर ऑल आउट हो गई थी। कप्तान कोहली भी भारत आ गए थे। ऐसे वक्त में टीम ने बहुत अच्छे से वापसी की। चोटिल खिलाड़ियों और रंग भेद का सामना करते हुए यह जीत वाकई मायने रखती है। इस जीत को भुलाया नहीं जाना चाहिए। जिस तरह नटराजन, सिराज जैसे खिलाड़ियों ने प्रदर्शन किया उससे हर उस गरीब और वंचित बच्चे को प्रोत्साहन मिलेगा कि कड़ी मेहनत करने के बाद कोई भी सपना सच हो सकता है। गिल और पंत के प्रदर्शन ने साबित कर दिया की भविष्य के लिए एक टेस्ट ओपनर और विकेट कीपर भारत की टीम को मिल गया है। इस जीत की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। इस टेस्ट श्रृंखला ने एक बार फिर साबित कर दिया कि टेस्ट क्रिकेट का सबसे अच्छा प्रारूप है।

बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश

पहरेदारी जरूरी

आउटलुक के 8 फरवरी के अंक में आजादी पर नई पहरेदारी पढ़ा। सरकार अब ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी सेंसरशिप की तैयारी कर रही है। कई लोगों को लग रहा है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कोई सेंसरशिप नहीं होनी चहिए। लेकिन जो भी लोग वेबसीरिज देख रहे हैं वे जानते हैं, कि इक्के-दुक्के शो के अलावा ऐसे कोई शो नहीं हैं, जिन्हें परिवार के साथ बैठ कर देखा जा सके। ज्यादातर सीरीज में या तो गालियों की भरमार है या भयानक हिंसा है। पात्र के परिवेश की दुहाई देकर खुले आम गालियां दिखाने की छूट तो किसी को नहीं दी जानी चाहिए। लेख में लिखा है कि सरकार टीवी को िनयंत्रित कर चुकी है और अब ऑनलाइन माध्यम को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है। लेकिन ऐसा नहीं है। सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, जामताड़ा जैसी सीरीज में गालियों की भरमार है। ऐसे में यदि सेंसरशिप लागू की जा रही है, तो गलत क्या है। किसी भी स्थिति के दो पहलू होते हैं। इसे समझना चाहिए।

रोहित कुमार | डिब्रूगढ़, असम

वाणी पर हो संयम

गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में जो कुछ हुआ वह बहुत शर्मनाक है। भाजपा के एक विधायक राकेश टिकैत को फांसी पर टांगने की बात कह रहे हैं। क्या इसे कहीं से भी लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप कहा जा सकता है? इसे किसी भी दृष्टि से बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कई पत्रकारों पर भड़काने के नाम पर एफआईआर दर्ज की जा रही है। जो नेता अपनी वाणी पर संयम नहीं रख पा रहे हैं, उन पर सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही? इनको क्यों बख्शा जा रहा है? यह पक्षपात क्यों? क्या जनप्रतिनिधि कानून व्यवस्था से ऊपर है! जब सरकार और दिल्ली पुलिस अपना काम कर रही है, तो उकसाने और भड़काने वाली बातें क्यों कहीं जा रही हैं? अगर देश में के हालात इसी प्रकार रहे, तो हालात बिगड़ना निश्चित है। ऐसे माहौल में कोई भी शांति से अपना जीवन गुजर-बसर नहीं कर सकता। सरकार को चाहिए कि ऐसे लोगों पर भी सख्ती करे।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

सम्मानजनक समझौता

किसान आंदोलन ने बहुत सुर्खियां बटोर ली हैं। 26 जनवरी की घटना ने देश को शर्मसार भी कर दिया। अब आंदोलन कर रहे किसानों को मान जाना चाहिए। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने कानून पर रोक लगा दी है, तो अब बेवजह हठ ठीक नहीं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी के फैसले का इंतजार करना चाहिए। कोई भी कानून पूरी तरह से खराब नहीं हो सकता। आंदोलन में शामिल किसान भाइयों को यह बात समझना चाहिए कि लोकतंत्र में हठ योग की कोई जगह नहीं होती उन्हें हठधर्मिता छोड़ बीच का रास्ता निकालना चाहिए। सरकार ने बातचीत के सभी विकल्प खुले रखे हैं। यही सही समय भी है, जब किसानों को सम्मानजनक समझौता कर लेना चाहिए।

प्रदीप कुमार दुबे | देवास, मध्य प्रदेश

 

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इतिहास का आईना

 

जनवरी 15, 2003

ऐसा क्यों है कि किसी व्यक्ति के जीवन में मौजूद कमियों के बावजूद, उनकी मृत्यु के बाद भी उनके बारे में बहुत ज्यादा बात की जाती है? जैसे, लॉर्ड जेनकिंस के बारे में कहा गया, “वह ब्रिटिश राजनीति को अनुग्रहित करने वाले सबसे उल्लेखनीय लोगों में से एक थे। उसके पास बुद्धि, दृष्टि और अखंडता थी।” लेकिन तथ्य यह है कि वह दलबदलू, मिथ्याभिमानी और आंशिक रूप से थैचरवाद के लिए जिम्मेदार थे।

एम रॉबर्ट्स

 

श्रद्धांजलि? ब्रिटिश राजनेता रॉय हैरिस जेनकिंस की मृत्यु पर डेली मिरर अखबार को मिला एक पत्र

 

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पुरस्कृत पत्र

असली पहचान

आउटलुक का 8 फरवरी का अंक अच्छा लगा यह कहना काफी नहीं होगा। क्योंकि यह अच्छे की श्रेणी से भी ऊपर था। पिछले कई अंकों से आउटलुक किसानों की चिंता पर सामग्री दे रहा है। लेकिन आवरण पर महिला किसान की चिंता करना वाकई काबिले-तारीफ है। ‘स्त्री किसान कौन देस की वासी’ से अच्छा आवरण इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि किसान-किसान चिल्ला रहे किसी अखबार या चैनल ने महिला किसानों की सुध नहीं ली। आउटलुक का यह सार्थक प्रयास है। किसान महिलाओं की पीड़ा को अच्छी तरह समझाया गया है। देश में इतनी महिला किसान हैं और वे अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही हैं, यह जानकर लगा कि महिलाओं को अपनी असली पहचान के लिए वक्त लगेगा।

कृतिका छाबड़ा |अंबाला

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