मरीजों का हित पहले
आउटलुक की 5 अप्रैल की आवरण कथा, ‘देसी इलाज भरोसेमंद’ पढ़ी। लेख में जो सवाल उठाए गए हैं, वे वाजिब हैं किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आयुर्वेद का इतिहास सदियों पुराना है और इसी पद्धति की विशेषताओं के आधार पर ही कुछ रूपों में एलोपैथी भी टिकी हुई है। आयुर्वेद भरोसेमंद है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है किंतु इससे मिलने वाले लाभ कितने कारगर होते हैं यह इस पद्धति को अपनाने वाले लोग ही बता सकते हैं। लेकिन इतना तय है कि इस पद्धति में विशेषताएं न होतीं, तो इलाज की यह पद्धति अब तक इतिहास बन चुकी होती। असल में लोगों का खान-पान और जीवन जीने के तरीकों में आए परिवर्तनों ने इस पद्धति को पीछे धकेलने का काम किया है। यही वजह कि आयुर्वेद इलाज पिछड़ रहा है। साइड इफेक्ट के बावजूद एलोपैथी अपनाने वाले लोग इसलिए ज्यादा है कि इसमें फौरी और तुरंत आराम है। कोरोना से लड़ने में आयुर्वेद इलाज ने वाकई बहुत अच्छे नतीजे दिए हैं। आपकी आवरण कथा में भी कुछ ऐसे मामलों का वर्णन है। कोरोना से बचाव के लिए अश्वगंधा, गिलोय और अणु तेल या षडबिंदु तेल के उपयोग से कई मरीज ठीक हुए और उन्हें कोई साइड इफेक्ट भी नहीं आया। लोगों का भरोसा कोविड अस्पतालों से ज्यादा आयुर्वेदिक दवाओं पर रहा। आयुर्वेद की सफलता को इस बात से ही समझा जा सकता है कि इन्हीं कोविड अस्पतालों में मरीजों को एलोपैथिक दवाइयों के साथ देसी काढ़ा पिलाकर ठीक किया गया जो, दर्शाता है कि आयुर्वेद पर लोगों का भरोसा बढ़ा है।
हरिकृष्ण बड़ोदिया | रतलाम, मध्य प्रदेश
फिलहाल आयुर्वेद नहीं
आउटलुक के 5 अप्रैल के अंक में, ‘दवा, दावा दोनों विवादित’ पढ़ा। भारत में दवाओं पर विवाद होने में कोई नई बात नहीं है। कुछ समय पहले भारत बायोटेक की कोवैक्सीन विवाद में रही थी, क्योंकि फेज 3 के ट्रायल नहीं हुए थे और स्वास्थ्य कर्मचारी तक इसको लगवाने से हिचकिचा रहे है। ऐसे में पतंजलि समूह की कोरोनिल का रीलॉन्च अलग ही कहानी कहता है। इस समय हम जिस महामारी से जूझ रहे हैं उस समय हमें अपने देशवासियों का भरोसा जीतने की जरूरत है ताकि वह बिना किसी चिंता के अभी उपलब्ध दो वैक्सीन में से कोई भी लगवा सकें और हम सभी धीरे-धीरे इस संकट से बाहर आ पाएं। लेकिन कोरोनिल को अभी बाजार में आगे बढ़ाना ठीक नहीं है। वैसे भी जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन और आईएमए किसी दवा को मंजूरी न दे तब तक इसको जनता में वितरित करना गलत है। केंद्रीय सरकार को ऐसी किसी भी गतिविधि से दूर रहना चाहिए। सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए आम जनता के पास तमाम विकल्प मौजूद हैं चाहे वह आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथिक या एलोपथिक दवा लें मगर मेरा मानना है कि कोरोना जैसी बीमारी से लड़ने के लिए फिलहाल आयुर्वेद उतना भरोसेमंद नहीं है।
बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश
न हो टकराहट
एक पुरानी कहावत है, ‘जो लग जाए वही दवा।’ यही बाद आयुर्वेद और एलोपैथी पर भी लागू होती है। दोनों पद्धतियों के बीच बुनियादी विवाद नई बात नहीं है। आवरण कथा (5 अप्रैल) में ठीक लिखा है कि आयुर्वेद के वात, पित्त और कफ तथा एलोपैथी की ‘जर्म थ्योरी’ की अवधारणा के बीच यदा-कदा टकराहट होती रहती है। इस दूरी को पाटने की कोशिशें भी होती रही हैं। इसी के तहत स्वर्णिम त्रिकोण परियोजना शुरू की गई है, जिसमें वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) और आयुष विभाग पारंपरिक आयुर्वेदिक उत्पादों को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करते हैं। यदि ऐसा होता है, तो यह मरीजों के हित में होगा। दोनों ही पद्धतियों की अपनी खूबी और कमी होगी। यदि दोनों ही पद्धतियां कदमताल कर काम करें, तो हर बीमारी पर आसानी से काबू पाया जा सकेगा।
खुशी सेठ | भावनगर, गुजरात
सरकारी पैसे का दुरपयोग
5 अप्रैल के अंक में, ‘खेल में नए रंग और मोड़’ पढ़ा। वाकई पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव दिलचस्प मोड़ पर है। भाजपा ने एड़ी चोटी का जोर लगाया हुआ है, ताकि फतह हासिल कर पश्चिम बंगाल में सत्ता पर काबिज हो सके। जीत के लिए भाजपा इतनी उतावली है कि उसने अपने सांसदों को ही विधानसभा चुनाव में उतार दिया है। तृणमूल का कहना ठीक है कि भाजपा के पास चुनाव में खड़े करने के लिए योग्य और जिताऊ उम्मीदवारों का टोटा है। जीत के लिए बेताब केंद्र सरकार एक तरह से देखा जाए, तो सरकारी पैसे का दुरपयोग कर रही है। क्योंकि यदि ये सांसद जीतते हैं, तो इन्हें त्यागपत्र देना होगा। फिर इन जगहों पर उप चुनाव होंगे। हर भारतीय को सोचना चाहिए कि इसमें कितना समय, श्रम और धन का अपव्यय होगा। कोरोना पहले ही अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ चुका है। बड़ी मुश्किल से अर्थव्यवस्था पटरी पर आ रही है। यूं, तो सरकार बचत और मितव्ययिता की बड़ी-बड़ी बातें करती है और दूसरी तरफ करदाताओं के पैसे को यूं लुटाती है। सरकारी खजाने पर इस अनावश्यक भार के बारे में हर नागरिक को विरोध करना चाहिए।
हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश
किसी को नहीं फिक्र
अब भारत में शायद ही ऐसा कोई घर बचा हो, जिसके यहां कोई न कोई कोरोना संक्रमित न हुआ हो। लेकिन फिर भी हालत यह है कि जिसे नहीं हुआ वह खुद को अजेय महसूस कर रहा है और न मास्क लगा रहा है, न दूसरे तरह की सावधानी बरत रहा है। 5 अप्रैल के अंक में प्रथम दृष्टि में, ‘टीका या लॉकडाउन?’ एक तरह की चेतावनी भी है लेकिन फिर भी लोग संभल नहीं रहे हैं। बाजार में लोगों को बिना मास्क घूमते देख लगता है जैसे, किसी को कोई फिक्र ही नहीं है। सरकार को सख्ती बरतनी चाहिए, शायद तभी जनता काबू में आए।
अपराजिता मुद्गल | आगरा, उत्तर प्रदेश
चलते रहो
आउटलुक के 5 अप्रैल के अंक में, ‘अभी कमल कोसों दूर’ पढ़ कर लगा कि यह एकतरफा रिपोर्ट है। आपने लिखा है कि भाजपा 2024 की तैयारी कर रही है। लेकिन इसे जोर देकर लिखा जाना चाहिए। यह सही है कि इस बार भारतीय जनता पार्टी केरल में सरकार बनाने नहीं जा रही है। लेकिन जब 2019 के लोकसभा चुनाव हो रहे थे, तब क्या किसी ने सोचा था कि पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी इतना अच्छा प्रदर्शन करेगी? भाजपा की ताकत यही है कि वह निरंतर चलती रहती है। वे लोग बढ़ रहे हैं फिर भी रुक नहीं रहे, थक नहीं रहे। जबकि जो लोग रुक गए हैं, वे आराम से बैठे हैं। दूसरी पार्टियां आपसी मतभेद में ही उलझी रहती हैं। सही वक्त पर सही नेतृत्व का चुनाव नहीं कर पातीं। कमल भले ही कोसो दूर हो, पर भाजपा वहां ठोस तरीके से उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। यदि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को रोकना है, तो आज से ही जुटना होगा। सभी को मिल कर काम करना होगा, तभी नजीजे दिखाई देंगे।
सुनील जॉर्ज | कोट्टयम, केरल
सीख लेना जरूरी
‘टीका या लॉकडाउन?’ (5 मार्च) की पहली ही पंक्ति, “सबक लेने के लिए हमेशा इतिहास के पन्नों को पलटना ही जरूरी नहीं है। हम समकालीन घटनाओं से भी काफी कुछ सीख सकते हैं।” इस पूरे लेख का सार है। वैश्विक महामारी में सभी ने कुछ न कुछ खोया है। लाखों लोगों की नौकरियां गईं। आर्थिक मंदी आ गई। छोटे व्यापारी से लेकर बड़े तक सभी संकट में आ गए। कितनों की जानें गईं इसकी तो कोई गिनती ही नहीं। लेकिन इतना सब होने के बाद भी आखिर भारतीय जनता चाहती क्या है, किसी को पता नहीं चल रहा। सिर्फ साल भर पहले घरों में बंद लोग अब बेकाबू भीड़ बन कर घूम रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि हम गलती से नहीं सीख रहे हैं। भारत में कोरोना पर चुटकुले बन रहे हैं और कुछ लोग तो भारतीयों के इम्यून को लेकर कसीदे पढ़ रहे हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि अभी हमें सावधान रहने की जरूरत है। लॉकडाउन में हमने क्या खोया यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। जाहिर सी बात है, टीकाकरण और समझदारी ही हमें बचाएगी।
क्रांति कुमार गीते | मुंबई, महाराष्ट्र
सभी को मिले अवसर
एक समय वह भी था जब हाशिये में पड़ी प्रतिभाएं गुदड़ी का लाल कहलाती थीं। बिखरी हुई अनेक प्रतिभाएं गुमनाम जिंदगी जीती हुई अंधेरों में लुप्त हो जाया करती थीं। छोटे गांव और कस्बों का अस्तित्व अभी भी कायय हैं लेकिन निखरने और पहचान बनाने के कारण कई हीरे पारखी नजरों के मोहताज बने हुए हैं। जिन्हें आज की भाषा में, ‘अवसर’ कहते हैं। कला, राजनीति, साहित्य या विज्ञान का क्षेत्र हो लेकिन हुनर पहचानने की कोई कसौटी नहीं है। यह अच्छी बात है कि ऐसे समय में भी कई प्रतिभाएं हैं, जो अपनी मेहनत के बल पर अपनी पहचान बना लेती हैं। उन प्रतियोगिताओं का भी शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए, जो छोटे शहरों के प्रतिभागियों को मौका देती हैं और उनकी प्रतिभा को बाहर निकाल कर तराशती हैं। मान्या सिंह ऐसी ही प्रतिभागी हैं। आउटलुक का (22 मार्च) अंक ऐसी ही प्रतिभाओं को समर्पित था। इससे समाज में बहुत सकारात्मक संदेश गया।
मोहन जगदाले | उज्जैन, मध्य प्रदेश
कानून का दुरुपयोग
आउटलुक के 22 मार्च के अंक में, ‘जुबान बंद रखो वरना...’ जैसे ज्वलंत विषय को शामिल करके यह पत्रिका सही अर्थों में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने की हकदार है। वर्तमान में जिस तरह से राजद्रोह कानून का दुरुपयोग कर असहमति की आवाज को दबाया जा रहा है वह चिंताजनक है। ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए राजद्रोह कानून आईपीसी में शामिल किया था। ऐसे कानूनों का सहारा लेकर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में असहमति को गैरकानूनी घोषित करना कदापि उचित नहीं है। सत्ता पक्ष के कार्यों से असहमत होना लोकतंत्र की खूबसूरती है। सभी को असहमत होने का अधिकार है और सरकार को इसे इसी ढंग से लेना चाहिए।
मन्नान अली | सिवान, बिहार
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पुरस्कृत पत्रः आयुर्वेद में शोध हों
आयुर्वेद के पक्ष-विपक्ष के बारे में पढ़ना सुखद लगा (आवरण कथा, 5 अप्रैल कोरोना दौर में आयुर्वेद)। हालांकि आयुर्वेद पर पूरी तरह प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता क्योंकि कई लोग होंगे, जो आयुर्वेद के सैकड़ों फायदे गिना देंगे। लेकिन फिलहाल हम सिर्फ कोरोना मामले में ही आयुर्वेद की बात करें, तो इसमें अभी भी लक्षण पर इलाज होता है, जबकि कोरोना जैसी नई बीमारियों में परीक्षण भी महत्वपूर्ण हैं। इस इलाज के दो पहलू हैं। यदि किसी स्वस्थ मरीज को कोरोना अपनी चपेट में लेता है, तो हो सकता है, आयुर्वेद इलाज से उसे फायदा हो, लेकिन वहीं यदि मरीज को पहले से ही किसी और तरह की परेशानी हो, तो उसे चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए। आयुर्वेद में शोध होना जरूरी हैं।
सूरज मारू |श्रीगंगानगर, राजस्थान