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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

अहंकारी मन बदलेंगे

आउटलुक का नया अंक 'बुलंद दलित' पढ़ा। चाहे उन्हें (दलित) समाज के साथ सम्मान से जोड़ने की बात हो, उनके प्रति हीन नजर रोकने की या उनको जाति भाव से मुक्त करने की, सारी सरकारी योजनाएं इसमें अभी तक बेअसर साबित हुई हैं। आज भी समाज समरसता भरी मानसिकता के लिए विकसित नहीं हो पाया है। मराठी दलित साहित्य में सशक्त स्तंभ आदरणीय शरणकुमार लिंबाले जी का साक्षात्कार पढ़ा। वे  सही कहते हैं कि “प्रेम  प्राथमिकता नहीं है, संघर्ष ही मूल भावना है।” सच दलितों ने कभी प्रेम नहीं किया। उन्होंने संघर्ष और आंदोलन से प्रेम किया है। सबकी तरह पंचतत्व से बने होकर भी उनको कुछ तो अन्याय सहना पड़ा। ऐसे में जब दलितों पर अन्याय हो रहे हैं, यह अंक बहुत प्रभावी है। इसे पढ़कर लाखों अकड़ू और अहंकारी मन जरूर बदल जाएंगे। साधुवाद।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर

 

सदियों का कलंक

भारत में जाति व्यवस्था कोई आज की बात नहीं, यह सदियों से चली आ रही है। महात्मा गांधी ने भी आजादी के आंदोलन के साथ अस्पृश्यता के खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा था। यह जरूर है कि अब हालात पहले जैसे नहीं हैं, फिर भी दलित समाज को तथाकथित ऊंची जातियों के  समकक्ष आने में समय तो लगेगा। इसी का नतीजा है कि आज जहां भी और जब भी दलितों को मौका मिलता है वे अपने आप को स्थापित करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहते। आवरण कथा में डॉ. सूरज येंग्ड़े बिल्कुल सही कहते हैं कि दलित समुदाय की अपूर्व प्रतिभा से पूरी तरह बावस्ता होने के लिए संपूर्ण दलित अनुभव में गहरे गोता लगाने की दरकार है...। दलितों के राजा-रानी थे, वे अतीत में शासक थे। लेकिन उनका इतिहास और उनकी गौरवमयी कहानियां उनसे छीन ली गईं। दुनिया में और कहीं भी इतने व्यापक और संसाधनों से भरपूर समुदाय पर अस्पृश्यता नहीं थोपी गई।

अरविंद प्रसाद | बाराबंकी, यूपी

हाशिए पर दलित नेतृत्व

ऐसा क्यों है कि दलितों के नाम पर राजनीति तो निरंतर होती रही, लेकिन दलित जहां थे वहीं बने हुए हैं। एक बदलाव जरूर आया कि दलितों का एक वर्ग कुलीन हो गया। मायावती जैसे नेता दलितों के नाम पर राजनीति करते करते श्रेष्ठि वर्ग में शुमार हो गए, लेकिन वहां पहुंचने के बाद उन्होंने भी वही किया जो कोई भी नेता करता है। हकीकत तो यही है कि दलितों को हमेशा एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया गया। वरना क्या कारण है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के दरम्यान प्रधानमंत्री बांग्लादेश जाते हैं और दलित नामशूद्र मतुआ बिरादरी के मंदिर में मत्था टेकते हैं। बात किसी एक राजनीतिक दल की नहीं है। एक समय ममता बनर्जी ने भी इस समुदाय की बड़ीं मां के पैर सार्वजनिक मंच पर छुए थे। कमी समुदाय के अपने नेताओं में भी है जो थोड़ी हैसियत हासिल करने के बाद खुद को समुदाय से ऊपर समझने लगते हैं। ऐसे में अगर दलित समुदाय राजनीति शून्य होता जा रहा है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।

आशीष मंडल | लखनऊ

 

दाग धोएं बंगालवासी

एक समय था जब बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य चुनावी हिंसा के लिए कुख्यात थे। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की हत्या करवाना, उनके समर्थकों को वोट न देने देना जैसी बातें आम हुआ करती थीं। लेकिन अब ये बातें खुद को भद्रलोक कहने वाले बंगाली समाज का पर्याय बन गई हैं। इस बार विधानसभा चुनाव में वहां एक दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। हिंसा की घटनाओं और घायल होने वालों की तो कोई गिनती ही नहीं है। आश्चर्य होता है कि पश्चिम बंगाल के साथ-साथ तीन अन्य राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में भी चुनाव हुए, लेकिन कहीं से भी ऐसी हिंसक वारदात की खबरें नहीं आईं। राजनीतिक दलों ने बंगाल वासियों के माथे पर जो यह कलंक लगाया है उसे धोने का जिम्मा प्रदेश के लोगों पर ही है।

प्रमोद चक्रवर्ती | कोलकाता

 

कालाबाजारियों पर सख्ती

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने देशवासियों को झकझोर दिया है। इस कठिन समय में लोगों की सांसें डरी और सहमी हुई हैं। इस त्रासदी में बड़ी संख्या में लोगों का महाप्रयाण  बेहद पीड़ादायक है। ऐसे भीषण समय में जब समूची मानवता कराह रही है, लुटेरों, चोरों और ठगों द्वारा मौत से जूझ रहे लोगों और उनके परिजनों को ठगने का काम बेरोकटोक जारी है। जब लोग मौत से जूझ रहे हों तब जीवन रक्षक दवाई रेमडेसिविर की चोरी बेहद दुखदाई है। जहां एक ओर कई जगह रेमडेसिविर के नकली इंजेक्शन बनाने और बचने वाले पकड़ाए हैं तो वहीं इसे 10 गुना कीमत पर बेचने वाले भी पकड़े जा रहे हैं। भोपाल के एक सरकारी अस्पताल से 863 रेमडेसिविर इंजेक्शन चोरी हुए तो देश भर  में कई जगह ऑक्सीजन की कालाबाजारी भी हुई। ऐसे समय में जब पूरा देश महामारी की पीड़ा से कराह रहा है, ये चोर और लुटेरे अपनी जेबें भर रहे हैं। इन्हें लोगों की मौतों में भी कमाई का अवसर दिख रहा है। मानवता के दुश्मन ये लोग अपनी जेबें भरने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। ऐसे लोगों को इतनी कड़ी सजा दी जानी चाहिए कि वह दूसरे अपराधी मानसिकता वाले लोगों को नजीर बन सके।       

हरिकृष्ण बड़ोदिया | रतलाम, मध्य प्रदेश

 

हॉरर और कॉमेडी का मिश्रण

हॉरर कॉमेडी पर आधारित  लेख बेहतरीन है। ऐसी फिल्मों में नए फिल्मकारों की सचमुच  दिलचस्पी बढ़ रही है। हारर जॉनर बहुत अच्छे क्राफ्ट की डिमांड करता है। आप जिस तरह से ड्रामा या कॉमेडी को शूट करते हैं उस तरह से हॉरर सीन को शूट नहीं कर सकते। इस जॉनर में साउंड मिक्सिंग से लेकर म्यूजिक, वीएफएक्स और एडिटिंग सबका पैटर्न बदलता है। देखने पर हमें पता नहीं रहता है कि आगे क्या होगा। यहां पर वे कहानी को कौतूहल की सीमा तक ले जाते हैं, लेकिन फिर एकाएक बदल देते हैं। कभी उस क्षण को  हॉरर बनाते हैं तो कभी ऐसा ट्विस्ट लाते हैं कि लोगों को हंसी आ जाती है। रूही में  हॉरर और कॉमेडी का बेहतरीन मिश्रण रचने की कोशिश की गईं है।

संदीप पांडे | अजमेर

मुसीबत में सहारा

सिख पंथ की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। मुसीबत के समय चाहे भोजन-पानी की व्यवस्था हो, चाहे दीन दुखियों को सस्ते दामों पर दवाइयां उपलब्ध कराना हो या अब इस आपदा में ऑक्सीजन, हर समय सभी सेवाओं के लंगर खोल दिए जाते हैं। सिख समुदाय ने दिल्ली में ऑक्सीजन का लंगर खोल दिया गया है ताकि बीमार और मरते लोगों को बचाया जा सके। चाहे गत वर्ष का लॉकडाउन हो या सामान्य काल, कोई भी, किसी भी धर्म या जाति का व्यक्ति भूखा नहीं जाता है। अभी कुछ दिन पहले इसी सिख समुदाय को लक्ष्य करके टुच्ची  राजनीति करने वालों ने, ना जाने क्या क्या कहा। यह पंथ वाहेगुरु की शिक्षा पर इंसानियत के मार्ग पर चलने वाला है। जो मुसीबत में सहारा बने, वही तो सबसे बड़ा है।

हेमा हरि उपाध्याय | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

आज का ‘कलिंग’

सम्राट अशोक को मौर्य शासनकाल के सबसे लोकप्रिय, दूरदर्शी व प्रजा के हितचिंतक शासक के तौर पर याद किया जाता है। उनकी प्रजा में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो उनसे व उनकी नीतियों से प्रेम नहीं करता था। जब सम्राट अशोक की लोकप्रियता व शौर्य बुलंदी पर थे, ऐसे समय में उन्होंने साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा के चलते कलिंग पर चढ़ाई कर दी और उस विजय भी प्राप्त कर ली। लेकिन उस युद्ध स्थल में लाखों लोगों के शवों ने सम्राट को विचलित कर दिया और उसके बाद का इतिहास हम सब जानते हैं। कमोबेश यही सब कुछ आज के भारत में भी हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी के सामने पूरा विपक्ष एकजुट होकर भी बौना साबित हो रहा है। कोरोना महामारी के बाद लॉकडाउन की पीड़ा से उबर कर देश में खुशहाली लौटने लगी थी। ऐसे समय में अपने साम्राज्य के विस्तार की ललक ने मोदीजी को पश्चिम बंगाल की रैलियों व जनसभाओं में इस कदर व्यस्त कर दिया कि इस महामारी ने कब विकराल रूप धारण कर लिया, उन्हें पता भी न चल पाया। आज जब पूरा देश कोरोना महामारी की दूसरी लहर से त्राहि-त्राहि कर रहा है, हजारों लोगों की रोजाना मौत हो रही है, तब भी उनका अधिकतम ध्यान पश्चिम बंगाल में भगवा फहराने पर ही केन्द्रित है। हो सकता है वहां मोदीजी अपनी राजपताका फहराने में कामयाब हो जाएं, लेकिन क्या उस विजय के जश्न में वे उन परिवारों के सदस्यों से नजरें मिलाने की स्थिति में होंगे, जिन्होंने शासकीय अस्पतालों में पूर्ण इंतजाम न होने की वजह से अपने परिजनों को खो दिया। ऐसा न हो कि पश्चिम बंगाल की चुनावी लड़ाई उनके लिए ‘कलिंग’ बन जाए।

राजेश कुमार मंडवारिया | मंदसौर, मध्य प्रदेश

 

नौकरी को तरसते युवा

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पता नहीं किस दम पर राज्य में कौशल विकास की बात पर आए दिन अखबारों में छाने की कोशिश करते रहते हैं। सच तो ये है कि इस प्रदेश के लाखों युवा सालों से नौकरी की बाट देख रहे हैं। हरियाणा के बीटेक, आइटीआइ अनुदेशक ट्विटर ट्रेंड में बेरोजगार युवाओं के ट्वीट्स ने नौकरी के गुहारों की झड़ी लगा दी है। खट्टर का तथाकथित कौशल विकास और भर्ती को तरसते आइटीआइ अनुदेशक पिछले कई माह से ट्विटर ट्रेंड में छाए हुए हैं। हरियाणा सरकार ने पिछले साल कोरोना लॉकडाउन से पहले जो भर्ती विज्ञापन जारी किए थे उन पर कोई काम नहीं किया है, नई भर्ती तो दूर की बात है। यही नहीं, मार्च में यहां राज्यभर के आइटीआइ संस्थानों में अनुदेशकों के पदों के लिए जारी किए गए परिणाम के बाद डॉक्युमेंट वेरिफिकेशन के लिए जारी शेड्यूल को भी लटका दिया गया है। आखिर सरकार कोर्ट का नाम लेकर भर्ती क्यों नहीं करना चाहती? क्या ये अंदरखाने भ्रष्टाचार की दस्तक तो नहीं है। अगर ऐसा नहीं तो फिर क्यों सरकार भर्ती नहीं कर रही है। सरकार कॉन्ट्रैक्ट पर ही कर्मचारी क्यों रखती है? इस सांठ-गांठ के राज उजागर होने चाहिए।

डॉ. सत्यवान सौरभ | दिल्ली

 

 पुरस्कृत पत्र

सावधानी ही समझदारी

भारत में कोरोना महामारी की दूसरी भयावह लहर के बीच खबर आई कि इजराइल में अब मास्क पहनने की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है। स्कूल-कॉलेज, कारोबार फिर से खुल चुके हैं। मतलब इजराइल ने कोरोना को लगभग मात दे दी है। यह खबर सुकून देने वाली है। लेकिन मास्क को भूलना अभी जल्दबाजी होगी। कोरोना वायरस को अभी वैज्ञानिक सही तरह से पहचान नहीं पाए हैं। वायरस के नए म्यूटेंट भी सामने आ रहे हैं। वैक्सीन नए म्यूटेंट पर कितनी कारगर होगी यह तय नहीं है। अभी तो सावधानी में ही समझदारी है। जब मुकाबला अंजान दुश्मन से हो, तो तैयारी सबसे बुरे दौर के हिसाब से करनी चाहिए। विश्व कोरोना मुक्त होने तक मास्क पहनना जारी रखना चाहिए।

प्रदीप कुमार दुबे| देवास, मध्य प्रदेश

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