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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

असली गुनहगार कौन

आउटलुक के 17 मई के अंक में लेख "कोविड कहर: वो कौन गुनहगार है" पढ़ा। सरकार की नजर में तो आम आदमी ही गुनहगार है क्योंकि जब वो दो जून की रोटी के लिए घर से निकला तो कभी मास्क नहीं पहन पाया, सामाजिक दूरी का ख्याल नहीं रख पाया, भीड़ से बच नहीं पाया। इसलिए अब उसे ही भुगतना होगा। किन्तु असली गुनहगार है तंत्र और तंत्र की शिथिलता। गुनहगार है हमारे कर्णधारों की वो समझ जिसने कोरोना की पहली लहर के समय यूरोप और अमेरिका में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा सेवाओं को ध्वस्त होता देख कर भी अपनी लचर स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का कोई काम नहीं किया। गुनहगार है कोरोना की आपदा को मोदी को वैश्विक नेता बनाने के अवसर में बदलने की ललक। सत्ता का मोह जिसने कोरोना को अंगीकार करते हुए चुनाव होने दिए। वो पैसे की चाह जो आइपीएल को होने दिया। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की वो धर्मान्धता जिसे कुंभ से कोरोना फैलता नहीं दिखा। तड़पते लोगों की पुकार झूठी और बनावटी कह कर दबा दी गई।

बृजेश माथुर | बृज विहार, गाजियाबाद, उप्र

 

अभी उम्मीद बाकी है

17 मई के आउटलुक में आलेख ‘संकट के मसीहा’ पढ़ा। इस भयंकर महामारी में जब सिस्टम फेल हो चुका है, सरकारें बेबस हैं, उनके पास लॉकडाउन लगाने के अलावा कोई चारा नहीं है, तब किसी नफा-नुकसान की परवाह किए बिना कुछ फरिश्ते उतर आते हैं। ये संकट के मसीहा हैं जो अपनी जान  कुर्बान करके भी मरीजों की जान बचाने का भरसक प्रयास करते हैं। इनके लिए मानवता से बढ़कर कुछ भी नहीं होता। लेकिन इसी संकट की घड़ी में कुछ लोग मजबूरी का फायदा भी उठा रहे हैं और मरीजों के परिजनों को लूटने में लगे हैं। ऐसे लोगों को शर्म बिल्कुल नहीं आती। कुछ दुकानदार सामान के दाम बढ़ाकर बेच रहे हैं, एम्बुलेंस वाले मनमाना पैसा वसूल रहे हैं। इन बेशर्म लोगों को लगता है कि ऐसा मौका फिर मिलेगा या नहीं, इसलिए जमकर लूट खसोट कर रहे। मुसीबत की इस घड़ी में संकट के उन मसीहा को सलाम जो अपना धर्म निभा रहे हैं। ऐसे ही लोगों की बदौलत इंसानियत और संवेदना के बचे होने की उम्मीद बनी रहती है।

जफर अहमद | रामपुर डेहरु, मधेपुरा, बिहार

 

कोरोना तो फैलना ही था

उस जनप्रतिनिधि (सरकार) को क्या कहें जिसे जन की ही परवाह नहीं। जब चारों ओर हाहाकार मचा है तब हमारी सरकार ने पूरे जोर-शोर से चुनाव करवाए और कुंभ जैसे लाखों की भीड़ वाले आयोजनों की अनुमति दी। इसके बाद भी अगर कोरोनावायरस ना फैलता तो वह आश्चर्यजनक होता। कुछ बेशर्म नेता महाराष्ट्र और कर्नाटक का उदाहरण देकर बड़ी ढिठाई से कह रहे हैं कि वहां तो कोई चुनाव नहीं था। ‘जीतने वाला भी होगा जवाबदेह’ आलेख में सही कहा गया है कि “शायद चुनावों को हर मर्ज का इलाज और अर्थव्यवस्था के मोर्चे से लेकर तमाम क्षेत्रों में नाकामियों का जवाब मान लिया गया है। यह दलील धड़ल्ले से दी जाने लगी है कि अगर सरकारी नाकामियां इतनी ही भारी हैं तो लोग उसी पार्टी को लगातार क्यों चुन रहे हैं।” कुतर्क देने वाले शायद यह बात कभी नहीं समझेंगे कि वक्त ऐसे आयोजनों का नहीं, बल्कि कोरोना की पहली लहर से सीख लेकर तैयारियां मजबूत करने का था।

रामप्रसाद यादव | बरेली, उत्तर प्रदेश

 

अपूरणीय क्षति

महामारी ने हमसे कई ऐसी शख्सीयतों को छीन लिया जिनकी भरपाई कभी मुमकिन नहीं है। चाहे वे साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कारों से सम्मानित बांग्ला कवि और आलोचक शंख घोष हों, कथाकार मंजूर एहतेशाम, साबरी ब्रदर्स के फरीद साबरी या फिर बनारस घराने के मशहूर शास्त्रीय गायक राजन मिश्र। ये सब ऐसी हस्तियां हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में शिखर पर रहीं। समाज को इनका योगदान अतुलनीय है और इनका जाना अपूरणीय क्षति।

दिवाकर बुंदेला | सागर, मध्य प्रदेश

 

बच्चे कैसे करें पढ़ाई

17 मई के अंक में ‘कोरोना के अधूरे अध्याय’ लेख पढ़ा। कोरोना की दूसरी लहर ने लाखों छात्र-छात्राओं का भविष्य अनिश्चित कर दिया है। कभी उनकी कक्षाएं टल रही हैं तो कभी परीक्षाएं। आखिर वे पढ़ाई करें भी तो क्या। पढ़ाई का शुरुआती उद्देश्य होता है परीक्षा, लेकिन वही बार-बार टल रही है। न स्कूलों की नियमित परीक्षाएं हो रही हैं और न ही प्रतिस्पर्धी परीक्षाएं। ऑनलाइन पढ़ाई कभी सामान्य कक्षाओं की जगह नहीं ले सकती, फिर भी इसकी मजबूरी है। शिक्षा मंत्रालय के सोच की बलिहारी जिसने 2020 का सत्र लगभग पूरी तरह बर्बाद होने के बाद भी 2021 के लिए कोई तैयारी नहीं की। सरकार के बाकी अंगों की तरह उसने भी मान लिया था कि कोरोना अब नहीं रहेगा।

अनिल कुमार | कोलकाता

 

कड़े अनुशासन की जरूरत

कोरोनावायरस के कारण हमारी आदतें और दिनचर्या काफी हद तक बदल गई है। हम जीवनशैली में हो रहे इन बदलावों को हर दिन अनुभव भी कर रहे हैं। अतीत की कई बड़ी आपदाओं के बाद सामाजिक, आर्थिक समझ और जीवनशैली में बदलाव देखे गए हैं। कोरोना संकट के दौर में भी देश-दुनिया में सामाजिक जीवन काफी हद तक प्रभावित हो रहा है। हमारे खानपान और तौर-तरीकों से लेकर हमारी कार्यशैली बदल रही है। आने वाले समय में इन बदलावों का बड़ा असर पड़ने वाला है। हो सकता है कि इस दौरान हमारी बदली आदतें हमारे जीवन का स्थायी हिस्सा बन जाएं। अब घर से बाहर बगैर मास्क पहने निकलना खुदकुशी करना ही कहलाएगा। सरकार और जनता दोनों के लिए चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद कोरोना संक्रमित व्यक्तियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। प्रतिदिन हजारों जानें भी जा रही हैं। इस संकट से निपटने के लिए कड़े अनुशासन, आत्म संयम और संकल्प की बहुत जरूरत है।

प्रदीप कुमार दुबे | राजाराम नगर, देवास, मप्र

 

घुटनों पर सिस्टम

भारत महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहा है। इसने पिछले साल दुनिया भर में तबाही मचाई। भारत में इसकी दूसरी लहर ने मध्यम और उच्च वर्ग के नागरिकों को भी अपने घुटनों पर ला दिया है। स्वास्थ्य सुविधाएं अपर्याप्त साबित हो रही हैं। आज बीमारी सार्वभौमिक है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं। दुनिया को वैक्सीन देने वाला कल्याणकारी राज्य महामारी से निपटने में कम पड़ रहा है। हांफते मरीजों को ले जाने वाली एंबुलेंस की लंबी कतार, बेड, दवाओं, ऑक्सीजन, आवश्यक दवाओं और परीक्षणों के लिए मदद की गुहार है। इन सबके लिए उत्तरदायी चुनाव और कुंभ मेला है। वहां किसी सावधानी का पालन नहीं किया गया जिससे स्थिति बिगड़ गई। टीकाकरण धीमा और अच्छी तरह से लक्षित नहीं है। आपूर्ति भी अपर्याप्त है। देश को आज फिर एक सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है।

डॉ. सत्यवान सौरभ | भिवानी, हरियाणा

 

खूब लड़ी मर्दानी... ममता

पांच राज्यों के चुनाव में सबसे ज्यादा फोकस पश्चिम बंगाल पर था। इस चुनाव में किसने किसको वोट दिया-नहीं दिया, यह महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी की तारीफ करना होगी कि एक अकेली महिला भले खुद हार गई, लेकिन अपने 213 साथियों को जिता दिया। हम सबने 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' कविता पढ़ी। लेकिन राजनीति में यह संदर्भ दिया जाएगा कि 'चुनाव के मैदान में, एक अकेली ममता, खूब लड़ी भाजपा के दमदारों से!' पत्र का मकसद ममता के गुण गाना नहीं है, लेकिन उन्होंने अपने दम पर किला फतह कर देश की सभी महिलाओं को अपनी शक्ति का एहसास करा दिया कि महिला किसी से कम नहीं, बस नेक कदम, हिम्मत तथा दृढ़ इच्छा शक्ति हो। यह महिलाओं के लिए गौरवान्वित करने वाला तथा आन, बान, शान व गर्व का क्षण है।

हेमा हरि उपाध्याय | अक्षत खाचरोद, उज्जैन, मप्र

 

सुर्खियों की ललक

गिरिधर झा ने अपने आलेख ने काफी बारीकी से करण और कार्तिक पर बहुत कुछ साफ-साफ कह दिया है। मैं तो सिनेमा में खूब रुचि रखता हूं और इस प्रकरण से हैरान था। कार्तिक आर्यन यों भी अलग-अलग वजहों से सुर्खियों में रहे हैं। हर बार मैंने यह पाया कि उनकी पीआर टीम की तरफ से उड़ाई गई खबर अफवाह साबित हुई है, लेकिन इस बार करण ने भी अपनी तरफ कड़ा रुख ले लिया है। कार्तिक की पीआर टीम ने पहले भी कई बार अलग-अलग प्रोडक्शन की फिल्मों के लिए और हाल ही में फिर से खबर फैलाई कि उन्हें धर्मा प्रोडक्शन की शरण शर्मा के निर्देशन में बन रही अगली फिल्म के लिए फाइनल कर लिया गया है। कार्तिक की पीआर टीम ने अनेक अखबारों में यह भी खबर फैलाई कि उनके अपोजिट तृप्ति डिमरी को भी फाइनल किया गया है। कार्तिक की हर खबर को लेकर हमेशा सरगर्मियां बढ़ाने वाला काम तो किया ही जा रहा था। आपके आलेख से दूसरी अनेक भिड़ंत के बारे में भी जानकारी मिली। इस आलेख में अनेक मनोवैज्ञानिक पक्ष हैं जो हर जगह साझा करने लायक हैं।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

चुनावी हवा तो नहीं

एक बार फिर भगोड़े हीरा कारोबारी नीरव मोदी को भारत लाने की हवा चली है। इसे संयोग कहें या कुछ और, हमने देखा है कि अक्सर चुनावों से पहले ऐसी हवा चल पड़ती है। कभी नीरव मोदी की तो कभी विजय माल्या को भारत लाने की। ‘अभी प्रत्यर्पण दूर की कौड़ी’ आलेख में सही बताया गया है कि अभी नीरव मोदी का प्रत्यर्पण आसान नहीं। अब भी इसमें काफी वक्त लग सकता है क्योंकि इस भगोड़े कारोबारी के पास कई विकल्प मौजूद हैं। हमारे सामने विजय माल्या का भी उदाहरण है। एक साल पहले उसके सभी विकल्प खत्म हो गए थे, इसके बावजूद उसका प्रत्यर्पण अभी तक नहीं हो पाया है।

ईश्वर सिंह | दिल्ली

 

पुरस्कृत पत्र

 

बस मानवता बचे

17 मई के अंक में महामारी की महादशा और जन साधारण का दर्द पढ़कर मन कितना आहत हुआ, यह शब्दों मे कहना संभव नहीं है। पीड़ितों को नजरअंदाज कर विधायक, सांसद, पार्षद, मेयर सब दुबक गए। ये चुनाव प्रचार में रात-दिन एक किए रखते हैं। तब तो बिलकुल नहीं थकते ये अमानुष। यों मददगार लोग भी कम नहीं। आज कोई रहीम, रहमान ऐसा नहीं जो धर्म देखता हो। काश! यह कोविड जाति, धर्म, संप्रदाय को भी लील जाए और मानवता ही शेष बचे, जो आजकल जन सामान्य में दिख रही है। गोंडा पर शहरनामा पढ़कर दिल गीला सा हो गया और बहुत देर तक महकता रहा। गांधीजी वाला उदाहरण देकर उस समय के दिलदार गोंडा की याद दिलाई है, वह बहुत अच्छा है। इसे आगे भी किसी न किसी बहाने जारी रखना चाहिए।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

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