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संपादक के नाम पत्र

पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं
भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां

डरावनी हकीकत

आउटलुक का 31 मई का अंक “लापता” पढ़ा। बहुत ही बेहतरीन है। पूरी साफगोई से सरकार की नाकामी बताता है। मैं खुद कोरोना से पीड़ित रह चुका हूं। मुझे उस दर्द और तकलीफ का अहसास है। अप्रैल में मैं जब संक्रमित हुआ तो दावे तो बहुत सुन रखे थे कि सरकार आपके साथ है और सब-कुछ वहीं करेगी। लेकिन अनुभव बहुत भयावह रहा। केवल अथॉरिटी के पास से फोन ही आता रहा, कि हम आएंगे दवाइयां देंगे, चिंता न करें। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। बिगड़ती हालत में मुझे नोएडा में काफी सिफारिशों के बाद भर्ती होकर इलाज कराना पड़ा। कोरोना से ज्यादा मरीज को डर यह लगता है कि मैं तो इलाज के बिना ही मर जाउंगा। नेता लोग केवल बातें करते और एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहते हैं। जमीनी हकीकत से आंख मूंद कर बैठे हैं। लोगों को इलाज के लिए लाखों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। 100-200 किलोमीटर की एंबुलेस के लिए लोग 40 हजार रुपये दे रहे हैं। श्मशान में जगह नहीं है। ऐसे में सरकार पर भरोसा कैसे किया जा सकता है। क्या सरकार को यह भी नहीं समझ में आ रहा है कि जिस पैसे से वह अपने ऐशो-आराम के सामान खरीदती है वह इसी जनता का पैसा है। मैंने एक खबर पढ़ी थी कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जब कोरोना पॉजीटिव हुए और होम क्वारंटाइन थे, तो आने वाली स्थिति की कल्पना कर उनके लिए अस्पताल में बेड रिजर्व कर दिया गया। क्या आम आदमी ऐसा सोच भी सकता है। उसे तो मरणासन्न स्थिति में भी बेड नहीं मिल रहा है। बड़ी ही भयावह स्थिति है। सब कुछ भगवान भरोसे हैं। वैक्सीन को लेकर भी इसी तरह बड़-बड़े दावे किए गए लेकिन हकीकत यह है कि लोग परेशान हैं और वैक्सीन नहीं है। बात-बात पर अपने को वैश्विक ताकत बताने वाले नेताओं को कुछ अमेरिका से ही सीखना चाहिए।

यतीश कुमार | अलीगढ़, उत्तर प्रदेश

 

जमीन पर नहीं सरकार

आउटलुक के 31 मई के अंक “लापता” में नृशंस सत्ता और देश के संकट में लापता सरकार का बहुत सही चित्रण किया गया है। सच में आज पूरे देश की हालत खराब है। और इस महामारी में तो रोज कमाकर खाने वालों के बहुत ही बुरे हालात हैं। गरीब होना जैसे महापाप है। हमारे घर पर दस साल से सब्जी-फल देने वाले काका इस बार लॉकाडाउन की वजह से तीन घंटे में पूरी सब्जी नहीं बेच पा रहे और बेहद परेशान हैं। गांवों में तो हालत और खराब है, खरबूज और तरबूज तो आढ़ती दो रुपये किलो में खरीद रहे हैं। कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। मंडी तक अपने वाहन से ले जाना महंगा पड़ रहा है। किसान की  हालत खराब है। मजदूर भी परेशान हैं। ऐसे वक्त में जब देश में जारी कोरोना संकट से अस्त-व्यस्त जिंदगी में आम लोगों की आमदनी में गिरावट आई है और क्रय शक्ति घटी है, तेल, अंडा, दाल, मसाले आदि में लगातार बढ़ती महंगाई कष्टदायक है। यह महंगाई अब सबके चेहरे पर भी नजर आ रही है। वैसे तो लोग पहले ही महंगाई की तपिश महसूस कर रहे थे, लेकिन अब हाल में आए थोक महंगाई के आंकड़ों ने उस तपिश पर मुहर लगा दी है। चिंता की बात यह है कि देश में थोक महंगाई दर बीते आठ सालों के उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है।

डॉ पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

राजनीति न करे सरकार

आउटलुक के 31 मई के अंक में खबर चक्र में पहली खबर पप्पू यादव से संबंधित थी। कोरोना महामारी के दौरान कई लोग समर्पित भावना से पीड़ित परिवारों की मदद कर रहे हैं।  बिहार के लोकप्रिय नेता जन अधिकार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव उन्हीं लोगों में से एक हैं, जो हर आपदा में, हर मुसीबत में आम जनता के दुख दर्द में हमेशा शरीक रहे हैं। कोरोना महामारी के दौरान वे अस्पतालों का दौरा करते रहे और सरकार की नाकामियों को उजागर करते रहे। इसी बीच बीजेपी के एक नेता के घर एम्बुलेंस रखे होने को मीडिया में उजागर किया जबकि उन एंबुलेंस को जनता की सेवा में लगाना चाहिए था। बिहार सरकार को यह नागवार गुजरा और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 32 साल पहले के मामले मे उनको जेल भेजा गया है। यह बिहार सरकार की हिटलरशाही है कि खुद काम नहीं करेंगे और जो कर रहे हैं उन्हें भी नहीं करने देंगे। पप्पू यादव ने ऐसा कौन सा जुर्म कर दिया कि उनकी गिरफ्तारी की नौबत आ गई?

जफर अहमद | मधेपुरा, बिहार

 

टीकाकरण जमीन पर दिखे

देश में कोरोना वायरस महामारी का प्रकोप जारी है। इस बीच राहत की खबर आ रही है कि अब संक्रमण से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में नए मामले घटने लगे हैं। दिल्ली, महाराष्ट्र छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में थोड़ा सुधार दिख रहा है। हालांकि अब भी कोराना का खतरा टला नहीं है। सरकार और जनता दोनों को चौक्कना रहना होगा।

हाल ही में दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल ने एक स्टडी में पाया कि पूरी तरह वैक्सीन लगवा चुके 97 फीसदी लोग कोविड संक्रमण से सुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोगों के कोरोना के कारण अस्पताल में भर्ती होने का चांस भी महज 0.06 फीसदी रहता है। भारत सरकार को टीकाकरण के लिए प्रभावी प्लान बनाना चाहिए। सरकार पंजीकरण से लेकर टीकाकरण की प्रक्रिया को सुगम बनाएं और टीकाकरण का बड़ा लक्ष्य रख उसको हासिल करने का प्रबंध करे।

प्रदीप कुमार दुबे | देवास

 

महिलाएं मिसाल

कोरोना की वजह से सुबह अखबार, फेसबुक या ह्वाटसएप खोलने में डर लगता है कि कहीं किसी स्वजन की मौत का समाचार तो नहीं है। कोरोना के साथ अनेक लोगों के अच्छे-खराब संबंधों की भी परख हो गई है। बिजनेस-रोजगार सब कुछ खतरे में है। महिलाओं की सहनशीलता और समझ इस समय बहुत काम आ रही है। अपनों की जान बचाने के लिए किसी ने गहने बेच दिए तो किसी ने बेटी के ब्याह के लिए कराई एफडी तोड़ डाली, तो किसी पर कर्ज हो गया है। इसका मानसिक और आर्थिक असर कितना लंबा चलेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। इस दौर में महिलाओं के जज्बे को सलाम।

वीरेन्द्र बहादुर सिंह | नोएडा, उत्तर प्रदेश

 

सरकार की लापरवाही का नतीजा

कोरोना आया था तो प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी। रणनीति बन सकती थी कि पहले टेस्ट हो, जो पॉजिटिव हैं उन्हें अलग रख लिया जाता बाकियों को घर भेजा जाता। खैर, ऐसा कुछ हुआ नहीं और पेट की चिंता कर कुछ पैदल तो कुछ साइकिल से, कुछ बस से, कुछ स्पेशल ट्रेन से लौटने लगे। उनमें भी कई की मौत हो गई। इस बीच कोरोना भी घर घर पहुंच गया, पर पहली लहर का वायरस कमजोर बताया गया। सरकार ने कोरोना पर विजय पताका फहराने की घोषणा कर दी। चुनावों की घोषणा हुई, जो लोग बेरोजगार हो रहे थे और जो बच्चे स्कूलों में बिना मतलब की फीस भर रहे थे उनकी बात दबा दी गई। बहुत से युवा अपने सपने दबाए घर बैठ गए। हां एक उम्मीद थी कि कोरोना जल्द खत्म होगा और फिर से परीक्षाएं होंगी, उद्योग खुलेंगे। चुनाव हुए तो बेरोजगार, खाली बैठा युवा उसमें रुचि लेने लगा और खूब जोर-शोर से शामिल हुआ। सबसे ज्यादा चर्चा में रहा बंगाल चुनाव, दीदी ओ दीदी ने तो प्रधानमंत्री की गरिमा पर ही बट्टा लगा लिया।

इस बीच दूसरी लहर शुरू हो गई और मरीजों की बढ़ती संख्या के साथ स्वास्थ्य सेवा धवस्त होने लगी। विदेशों में दान स्वरूप भेजी गई वैक्सीन खुद के लिए खत्म हो गई। दवाइयों की भी कमी होने लगी। जिस दूसरी लहर का असर कम करने के लिए हमारे पास पूरे एक साल का समय था उसमें हम सिर्फ लापरवाही बरतते गए, बिना मास्क के घूम कोरोना को दावत देते रहे और सरकार अपनी राजनीतिक ताकतों को बढ़ाने में व्यस्त रही।  गंगा में बहती लाशों के दृश्यों ने मानव के सर्वशक्तिमान होने का गुरुर तोड़ दिया है।

हिमांशु जोशी | उत्तराखंड

 

बेहतरीन साक्षात्कार

गिरिधर झा का भाईजान प्रोटोकॉल पर विस्तृत और सारगर्भित आलेख पढ़ा और बहुत सी जिज्ञासाओं का  समाधान हुआ। सलमान खान के नजरिये को भी क्या खूब समझाया। इस बार आइपीएल नहीं हो रहा है। ऐसे मे रणदीप संग दिशा और सलमान खान ने माहौल बनाया। पर एक बात तो है। यह फिल्म बहुत ही हिंसक और सपाट बना दी। संवाद कहीं-कहीं बहुत ही ओछे लगे। कहानी में जरा सा भी जोर या दम नहीं था। 31 मई के ही अंक में मां आनंद शीला का इंटरव्यू पढ़ा, सारे सवाल बहुत ठोस थे। खासतौर पर  अंतिम सवाल तो बहुत खास था और मां आनंद शीला के बगैर जवाब के ही जवाब समझ में आ गया। इंटरव्यू से बहुत खुलासे हुए। शहरनामा में इलाहाबाद के बारे में पढ़ा। बहुत सुंदर तरीके से शहर के मिजाज को बताया गया है। यह पूरा अंक शानदार है।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

पंचायत चुनाव ने दिखाई हकीकत

उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों ने राज्य की राजनीति की नई तस्वीर पेश कर दी है। परिणामों से साफ है कि भाजपा का जनाधार खिसक रहा है। उसे किसानों की नाराजगी के साथ-साथ कोविड-19 की बदइंतजामियों का भी खमियाजा उठाना पड़ रहा है। जिस तरह से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के क्षेत्र में सत्ताधारी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी है, उससे तो लगता है कि 2022 की डगर आसान नहीं होगी। हालांकि लोगों की नाराजगी का फायदा समाजवादी पार्टी को मिलता दिख रहा है। लेकिन वह भी कोई बेहतर विपक्ष की भूमिका नहीं निभा रही है। उनके मुखिया सड़क पर कम, ट्विटर पर ज्यादा दिखते हैं। वे मुलायम सिंह जैसे तेवरों से कोसों दूर हैं। एक बार जनता ने उन्हें मौका दिया था लेकिन वे कुछ खास नहीं कर पाए। जबकि मायावती और कांग्रेस कहीं दिखती नहीं है। ऐसे में अगर समाजवादी पार्टी को कुछ करना है तो जनता के साथ खड़ा होना होगा। जहां तक भाजपा की बात है तो उनके पास अब ज्यादा कुछ करने का समय नहीं है। लेकिन एक बात तय है कि कोविड ने सरकार के दावों की पूरी तरह से पोल खोल दी है।

पूजा सिंह | बहराइच, उत्तर प्रदेश

 

 पुरस्कृत पत्र

 

कहां हैं एनजीओ

कोरोनावायरस महामारी के दौरान केन्द्र, राज्य सरकारें तथा प्रशासन अपने स्तर पर काम कर रहे हैं, ताकि देश में इस महामारी से ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी बचाई जा सके। लेकिन एनसीसी, एनएसएस के स्काउट्स कहां हैं? इसी तरह सामान्य दिनों में अरबों की सरकारी सहायता प्राप्त कर मीडिया जगत में छाये रहने वाले और जगह-जगह अपनी शाखाओं का प्रचार करने वाले कई प्रमुख एनजीओ इस दौरान न जाने कहां दुबके रहे? कुछेक अपवाद हैं जिन्होंने अपना फर्ज निभाया। कितना अच्छा होता अगर इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए शहरों और कस्बों से लेकर तालुका स्तर तक सामाजिक कार्यो का दावा करने वाले ये एनजीओ जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आते। आधे संगठन भी कमर कस लेते तो लिए इस चुनौती का सामना करना आसान हो जाता।

प्रियंका सौरभ | हिसार, हरियाणा

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