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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रयाएं

अभिभावक दोषी

इस बार की आवरण कथा (फर्जीवाड़े का स्मार्ट जाल, 4 अक्टूबर) में बहुत महत्वपूर्ण विषय पर बात की गई है। आपने शुरुआत में मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म का जिक्र किया है, जिसमें मेडिकल प्रवेश परीक्षा में संजय दत्त, जिन्होंने मुरली प्रसाद शर्मा का किरदार निभाया था, टॉप करते हैं। आपने व्हाई चीट इंडिया में इंजीनियरिंग के एक छात्र और जॉली एलएलबी 2 का भी जिक्र किया है। लेकिन मुन्नाभाई एमबीबीएस में मुरली के माता-पिता उसे नकल करने के लिए नहीं कहते। हां यह सही है कि ये फिल्मी किरदार असल जिंदगी में भी अब बहुतायत में दिखने लगे हैं। हर दिन किसी न किसी परीक्षा में धांधली या पर्चे लीक होने की खबर अखबार में होती है। देश के हर राज्य में यह गड़बड़झाला हो रहा है। तकनीक के आने से बेइमानी करने वालों को जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई है। ऐसे-ऐसे आधुनिक तरीके हैं कि पुलिस भी चकरा जाए। लेकिन मेरा सवाल यह है कि बच्चे तो खुद किसी सॉल्वर या पर्चे लीक कराने वाले से बात करते नहीं। न उनके पास इतने पैसे होते हैं कि वे लाखों रुपये का ठेका किसी को दे पाएं। लेख में है कि परीक्षाएं ऑनलाइन होने के बाद से घोटालों में तेजी आई है। जबकि मेरा मानना है कि मीडिया की चुस्ती के कारण घोटाले सामने आ रहे हैं। पहले भी हर परीक्षा में बेइमानी होती रही है। लेकिन इसके लिए वे माता-पिता जिम्मेदार हैं, जो ऐसे घोटालेबाजों को पैसे देते हैं। माता-पिता आखिर इतने पैसे देकर बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बना कर क्या हासिल कर लेंगे। इन स्थितियों के लिए यदि कोई दोषी है, तो वे सिर्फ अभिभावक ही हैं।

सत्यभानु सिंह | बरेली, उत्तर प्रदेश

 

नया व्यवसाय

नए अंक में परीक्षा के फर्जीवाड़े पर बहुत अच्छी सामग्री है। पूरे भारत में हर परीक्षा में स्मार्ट तरीके से होती नकल (फर्जीवाड़े का स्मार्ट जाल, 4 अक्टूबर) बताती है कि देश में यह नए व्यवसाय के रूप में फल-फूल रहा है। परीक्षाओं में बेईमानी कई स्तर पर होती है। बस देखना यह होता है कि किसकी हैसियत किस स्तर तक है।  

श्रीजीत कुलकर्णी | मुंबई, महाराष्ट्र

 

इसका गुनहगार कौन

अभिभावक नवीं या दसवीं कक्षा से ही बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री कोटा में भेज देते हैं। इतनी मेहनत के बाद भी वे इसलिए पिछड़ जाते हैं कि इस परीक्षा में पैसे लेकर कुछ नकली लोग परीक्षार्थी बन जाते हैं। नतीजतन असफल बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। इस स्थिति का दोषी कौन है? (फर्जीवाड़े का स्मार्ट जाल, 4 अक्टूबर)। 

शशि शर्मा | बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

 

गलत राह दिखाते अभिभावक

आउटलुक के नए अंक (4 अक्टूबर) में आनंद कुमार ने ‘गरीब छात्रों की हकमारी न करें’ में बिलकुल सही लिखा है कि यदि शॉर्टकट से किसी कॉलेज में पहुंच भी गए तो वहां परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ध्यान दिलाया है कि जिन छात्रों ने कभी कंप्यूटर इस्तेमाल नहीं किया, उन्हें आगे चलकर ऑनलाइन परीक्षा देने में परेशानी आती है। इस बात पर सरकार को जरूर ध्यान देना चाहिए क्योंकि सरकारी स्कूलों के छात्रों के पास तो फोन भी नहीं होता। जबकि शहरी बच्चे कम उम्र से ही स्मार्ट फोन, टैबलेट, लैपटॉप का इस्तेमाल करने लगते हैं। उन्होंने माता-पिता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए हैं, जो बिलकुल सही है। माता-पिता ही यदि बच्चों को गलत करने के लिए प्रेरित करेंगे, तो वे बच्चे आगे चलकर क्या बनेंगे।

सलोनी शर्मा | श्रीगंगानगर, राजस्थान

 

ऊर्जा से भरा शहर

शहरनामा में बक्सर (4 अक्टूबर) पढ़ते हुए वहां के बिहारी मंदिर की याद आ गई। कितनी ऊर्जा कितना प्यारा अनुभव। आज भी मन रोमांचित हो जाता है। बक्सर पर अभी और शोध होना चाहिए। यहां भी अनेक रहस्य हैं जो यहां की सरिता, हरितिमा, प्राचीन चबूतरे के पास बैठकर महसूस होता है। बक्सर एक शानदार पर्यटन स्थल है, इस पर ध्यान दिया नहीं गया।

पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

खतरा टला नहीं

दूरसंचार क्षेत्र में कई गड़बड़ियां हैं और उन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ लेख अच्छा लगा। सरकार ने मोरेटोरियम, स्पेक्ट्रम चार्ज में छूट जैसे बड़े कदम उठाए हैं, जिससे क्षेत्र में सुधार आ सकते हैं। इन सबके बावजूद यह सोचना कि वोडाफोन-आइडिया संकट से बाहर आ जाएगी भूल होगी। कुमारमंगलम बिरला को कुछ और कदम बढ़ाने होंगे। उनके ऊपर मंडरा रहा खतरा अभी टला नहीं है।

बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश

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