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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आईं पाठकों की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं

राजनीति का आकलन

आउटलुक का 28 जून का अंक पढ़ा। आवरण कथा, “चुनौती कितनी दमदार” आज की राजनीतिक स्थिति का बहुत ही सटीक विश्लेषण करती है। एजेंडा के आधार पर चलने वाली पत्रकारिता के बजाय सत्य पर आधारित पत्रकारिता आज समय की मांग बन गई है। लक्षद्वीप पर भी लेख बहुत महत्वपूर्ण है। जो भी बिंदु इस लेख में उठाए गए हैं, उन पर बात होनी ही चाहिए। प्रथम दृष्टि में बिहार की स्थिति के बारे में जान कर यकीन हो गया कि यहां किसी का भी राज हो, बदलाव कोई नहीं चाहता।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

ममता को मानें नेता

“चुनौती कितनी दमदार” (आवरण कथा, 28 जून) बहुत ही अच्छा विषय है और उम्मीद है कि विपक्ष के कुछ नेताओं ने भी इसे जरूर पढ़ा होगा। लेख में सही लिखा है कि इस बार विपक्ष के लिए मुद्दे और मौके दोनों ही भरपूर हैं। लेकिन जहां निगाह जाती है वहां से निराशा ही हाथ लगती है। ममता बनर्जी इन सभी लोगों में वरिष्ठ हैं और हाल ही में उन्होंने चुनाव जीतकर भाजपा को बहुत अच्छी तरह पटखनी दी है। लेकिन वे सभी को स्वीकार्य नहीं हैं। दरअसल अब भी कोई दल कांग्रेस से ऊपर आकर विपक्ष की बागडोर अपने हाथ में नहीं ले रहा है और यही इस देश की राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है। आगामी लोकसभा चुनावों में फिर सभी दल नेतृत्वविहीन और बेजान कांग्रेस की तरफ देखेंगे। फिर सभी दल राहुल गांधी की आड़ में खड़े नजर आएंगे। ऐसे में आखिर बदलाव कैसे होगा। सभी दलों को चाहिए कि वे अभी से आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी करें और ममता बनर्जी को अपना नेता मान लें।

प्रभाकरमणि बरुआ | गुवाहाटी, असम

संगठित हो विपक्ष

28 जून की आवरण कथा जितने अच्छे ढंग से लिखी गई है यदि विपक्ष भी उतने ही अच्छे ढंग से अपनी तैयारी करे, तो वाकई स्थिति बेहतर हो सकती है। विपक्ष के युवा नेताओं को चाहिए कि दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर कोविड की दूसरी लहर में हुई सरकार की नाकामियों को लोगों के बीच रखे। कांग्रेस और सपा की पहली परीक्षा तो अगले साल आने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव हैं। अखिलेश यादव यदि अपनी पूरी ताकत झोंक दें, तो नतीजे वाकई उनके पक्ष में होंगे। वे युवा हैं और दूरदृष्टा भी। अब मोदी की चमक भी फीकी पड़ने लगी है। योगी भी उत्तर प्रदेश में कोई कमाल नहीं दिखा सके। न यहां अपराध कम हुए न युवाओं को रोजगार मिला। आखिर वे जनता के बीच दोबारा कौन सा मुद्दा लेकर वोट मांगने जाएंगे। इसलिए राहुल गांधी और अखिलेश यादव को आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस लेनी चाहिए। सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश का असर पूरे देश में आता है। यदि अखिलेश भी उत्तर प्रदेश जीत लेते हैं तो वे भी ममता बनर्जी के कद के हो जाएंगे। शाह-मोदी की जोड़ी को युवा व्यक्ति बेहतर तरीके से टक्कर दे सकता है और यह अखिलेश को समझ जाना चाहिए।

गिरिराज तिवारी | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

कब सुधरेंगे हालात

28 जून के अंक में प्रथम दृष्टि में, “बिहार होने का दंश” पढ़ कर एक बिहारी होने के नाते बहुत निराशा हुई। नीति आयोग की, “सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) सूचकांक 2020-21” में बिहार कोई सुधार नहीं कर पाया। झारखंड की स्थिति जरूर बिहार से ऊपर है लेकिन अलग होने के बाद इस राज्य ने भी कोई तरक्की नहीं की। यह तो किसी भी राज्य और वहां की सरकार के लिए शर्म की बात होनी चाहिए कि बीस साल से भी ज्यादा वक्त में राज्य पिछड़ेपन से बाहर नहीं आ पाया है। बीमारू राज्य होने का दुख लगता है किसी बिहारी को नहीं है। तभी तो कभी कोई पार्टी इसे चुनावी मुद्दा मानती ही नहीं है कि वह इस राज्य को बीमारू के ठप्पे से मुक्ति दिलाएगी। इस लेख की सबसे मारक पंक्तियां यही हैं, “पिछले कई दशकों से बिहार की गिनती बीमारू प्रदेश के रूप में होती रही है। इसका स्थान किसी भी विकास सूचकांक में हमेशा वैसा ही रहा जैसा भारत का स्थान ओलंपिक की पदक तालिका में अमूमन रहता है। ओलंपिक में कभी-कभार हॉकी, टेनिस या कुश्ती में पदक लेकर भारत एक छलांग लगा भी लेता है, लेकिन बिहार का अंतिम पायदान पर रहना मानो उसकी नियति बन गई है।” इन पंक्तियों के बाद भला बिहार के बारे में कुछ भी लिखने या कहने का कोई अर्थ रह जाता है? ये पंक्तियां समूचे बिहार की नियति को भली-भांति दिखाती हैं। उम्मीद है सुशासन बाबू ने भी इन पंक्तियों को पढ़ा होगा। अगर इसका उन पर कोई असर हो तो बात बने।

अशोक प्रियदर्शी | दरभंगा, बिहार

शिक्षा सबसे पहले

पत्रिका में सबसे पहले प्रथम दृष्टि ही पढ़ता हूं। कम शब्दों और संक्षिप्त रूप से इसमें बहुत सारी बातें आ जाती हैं। बिहार की दुर्दशा पर अक्सर ही लेख आया करते हैं। लेकिन इस बार (28 जून, बिहार होने का दंश) कई मायनों में बिल्कुल अलग लगा। टेनिस के दो खिलाड़ियों रॉजर फेडरर और राफेल नडाल का उदाहरण इतना सटीक है कि इसे पढ़ कर मैंने भी गौर किया कि वाकई अब फ्रेंच ओपन और विंबलडन में पहले जैसी रुचि नहीं रह गई है। लेकिन बिहार के संदर्भ में इस दृष्टि से पहले कभी सोचा ही नहीं गया। अब लगता है बिहार ने भी नीति आयोग के सूचकांक को अपनी नियति मान लिया है। इस लेख की सबसे अच्छी बात यह लगी कि इसमें सिर्फ बिहार के पिछड़ने का विलाप नहीं है। बल्कि यह क्यों पिछड़ा इस पर भी रोशनी डाली गई है। कुछ साल बिहार में रहने के बाद मैं यह कह सकता हूं कि यहां के लोग भी बदलाव नहीं चाहते। जो जैसा चल रहा है, वे उसमें ही खुश हैं। जब लोग चाहेंगे, तो ऐसा हो नहीं सकता कि राजनैतिक पार्टियां उनकी चाहत की अनदेखी कर सकें। इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले समाज शिक्षित हो।

विभु पटनायक | भुवनेश्वर, ओडिशा

कब सुधरेगा बिहार

28 जून के अंक में बिहार के बारे में पढ़ कर झटका लगा (प्रथम दृष्टि, “बिहार होने का दंश”) क्योंकि और भी कई राज्य हैं जहां आर्थिक विकास कम है, गरीबी उन्मूलन में भी वे पीछे हैं, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा और अन्य मानक वहां यदि अच्छे हैं तो दिखाई नहीं देते। मध्य प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ में भी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं चाक चौबंद नहीं हैं। छत्तीसगढ़ के सुदूर क्षेत्रों में तो पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिलता। तब फिर ये राज्य बीमारू की श्रेणी में क्यों नहीं हैं? पूर्वोत्तर के राज्यों का तो सच क्या है, पता ही नहीं चलता। वहां से यहां तक सही खबरें आ ही नहीं पातीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह बिहार के प्रति कोई दुर्भावना हो। इस पर जरूर विचार होना चाहिए।

ज्योति कुसुम | पटना, बिहार

किसको मिलेगा पंजाब

आउटलुक के 28 जून के अंक में, “पंजाब: कलह में घिरे कैप्टन” पढ़ा। 2022 के चुनावों में कैप्टन आंतरिक कलह के साथ-साथ चतुष्कोणीय मुकाबले में भी फंसेंगे। शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के बाद अगर कोई और गठबंधन नहीं होता है तो इस बार पंजाब में इस गठबंधन, कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी में चतुष्कोणीय मुकाबला होना तय है। 1947 से पंजाब की सत्ता कांग्रेस या अकालियों के पास ही रही है। एक अपवाद नवंबर 1967 का है, जब अकाली दल से टूटे धड़े पंजाब जनता पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से नौ महीने सरकार चलाई थी। वह सरकार भी अकाली और कांग्रेस की खिचड़ी ही थी। इसी से प्रश्न उठता है कि कांग्रेस और अकालियों की इस रणभूमि में क्या भाजपा और आप अपना झंडा बुलंद कर पाएंगे या फिर इन पारंपरिक धुरंधरों का खेल बिगाड़ेंगे? चतुष्कोणीय मुकाबले में ये भी हो सकता है कि किसी को भी बहुमत न मिले और कोई किंग मेकर किसी नए गठबंधन को अंजाम दे। आने वाले पंजाब चुनाव मीडिया के लिए दिलचस्प, मतदाताओं की समझ को परखने वाले और नेताओं के लिए सिरदर्द साबित होंगे।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

ठोस जानकारी का अभाव

आउटलुक के 28 जून के अंक में, लक्षद्वीप पर लेख (स्वर्ग दोहन का लालच) ने बहुत निराश किया। लक्षद्वीप का मुद्दा इतना आसान भी नहीं है, जितना इसमें लिखा गया है। यह लेख कम, निबंध ज्यादा लग रहा था। दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जहां गुंडे न हों। यह दावे से कैसे कहा जा सकता है कि जहां कोई गुंडा नहीं वहां गुंडा कानून लाने का प्रस्ताव है। इसमें यह भी लिखा है कि आतंकवाद को लेकर अफवाह फैलाई जा रही है। विरोध ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि देश को ही नुकसान होने लगे। सरकार के हर निर्णय को शक के दायरे में रखने से देश का ही नुकसान होता है। अच्छा होता, पूर्व प्रशासक महोदय ये बताते कि 1980 के बाद से लक्षद्वीप में क्या बदलाव आए हैं। क्या उनके वक्त से इस वक्त तक कुछ नहीं बदला? लक्षद्वीप के बारे में जो भी जानकारी उन्होंने दी वो सब उपलब्ध हैं। वो जगह शांत है, खूबसूरत है, वहां क्या खाया जाता है और क्या भाषा बोली जाती है यह जानकारी सभी को पता है। नए प्रशासक के बदलाव से क्या होगा या हो सकता है या हो रहा है, अगर वे इस पर रोशनी डालते तो यह उपयोगी लेख होता। इस लेख में तो कोई ठोस जानकारी नहीं है।

ऋषि माथुर | दिल्ली

डर बरकरार

आउटलुक की 14 जून की आवरण कथा, “नई आफत” पढ़ कर मन में कोरोना का डर और अधिक बैठ गया है। तीसरी लहर की खबरें अब बहुत डराने लगी हैं। कोरोना का डर जस का तस बना हुआ है। इस लहर में बच्चों के प्रभावित होने की आशंका है। लेकिन जनता अभी नहीं चेती है और उदासीन बनी हुई है। ब्लैक फंगस के मामलों की भी अब खबरें नहीं आतीं। आम आदमी को पता ही नहीं चलता कि वह क्या सावधानी रखे। पहले भी सरकार की लापरवाही ने इतनी जानें लीं। अब भी रवैया वही है।

कला भारद्वाज | मुंबई, महाराष्ट्र

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पुरस्कृत पत्र

कोरोना की दूसरी लहर की तबाही और तीसरी लहर की आशंका के बीच भी हमें चुनाव और चुनावी राजनीति के दांवपेंच ही ज्यादा लुभा रहे हैं। जैसे ही कोरोना की दूसरी लहर गुजरी, मीडिया में हर जगह अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव या फिर दो साल बाद होने वाले लोकसभा के चुनावों ने जगह ले ली। मोदी और योगी की वापसी की संभावनाएं तलाशी जाने लगीं। अगर योगी आ भी जाएं, तो दुनिया छोड़ गए लोग वापस नहीं आ पाएंगे। यदि योगी न आएं, तो भी यूपी में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होगा। यही बात मोदी पर भी लागू होती है। आखिर क्यों राजनीति मोदी-योगी के इर्द-गिर्द ही मंडरा रही है। अभी विपक्ष की एकजुटता और चुनाव की हार जीत से ज्यादा जरूरी है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान दें ताकि तीसरी लहर का मुकाबला किया जा सके।

रीति पाठक | दमोह, मध्य प्रदेश

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