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13 जून 2022 · JUN 13 , 2022

पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आईं प्रतिक्रियाएं

स्थिति और बिगड़ेगी

30 मई की आवरण कथा, ‘वेस्ट इंडिया कंपनी’ आज का सच है। टेक्नोलॉजी कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं और हम उनके मुनाफे को दोगुना-तीन गुना करने के लिए जी तोड़ प्रयास भी कर रहे हैं। बिग टेक वास्तव में ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बन गया है, जिस पर पूरा विश्व अपना व्यापार चला रहा है। इसके बदले ये अपने प्लेटफॉर्म पर आश्रित कंपनियों से बड़ी कीमत वसूलते हैं, उन देशों से भी जो जिंदा रहने के लिए इन पर निर्भर हैं। यह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के गरीब देशों के लिए खास तौर से सच है, जो प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को डिजिटाइज करने और इंटरनेट कनेक्टिविटी बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। यह स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ेगी ही। आने वाले दिनों में जब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का दखल और बढ़ जाएगा, तो मनुष्य के लिए धरती पर जीवन भी किसी काम का नहीं रहेगा।

सुमन केडिया | कोलकाता, पश्चिम बंगाल

 

डेटा का शिकंजा

30 मई को प्रकाशित आवरण कथा, ‘वेस्ट इंडिया कंपनी’ के अंतर्गत एक लेख, ‘डेटावाद का साम्राज्य’ का शीर्षक बहुत सटीक है। पूरे लेख का सार इस शीर्षक में समाया हुआ है। वाकई अब इन्हीं कंपनियों का साम्राज्य है। नौकरियां, खान-पान, स्वास्थ्य, सरकारें, आवागमन के साधन ऐसी कौन सी चीज है, जो इनसे छूटी हुई है। हर जगह इनका शिकंजा है। आपने लेख में बिलकुल सही लिखा है कि “आधुनिक जीवन को प्रभावित करने वाली पांच प्रमुख कंपनियां हैं गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, एपल और अमेजन। इन्हें ‘फ्राइटफुल फाइव’ यानी डरावनी पांच कंपनियां कहा जाता है, क्योंकि ये अनेक देशों की सरकारों से भी अधिक ताकतवर हो गई हैं। डिजिटल जगत में आप कुछ भी करना चाहें, इनमें से किसी न किसी कंपनी से आपका साबका जरूर पड़ेगा।” ये लोग इतना पैसा देते हैं कि हर व्यक्ति इनके यहां नौकरी करना चाहता है। पैसे के बल पर ये तमाम तरह की नई-नई तकनीक बनवाते हैं, जो हर जीवन को प्रभावित करती हैं। भारत से भी प्रतिभाएं वहां जाने को जी जान लगा देती हैं। वह दिन दूर नहीं जब हमें वोट डालने जाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। अभी ही लोकतंत्र इन कंपनियों के हाथ का खिलौना बन चुका है। संभव है, आने वाले समय की सरकारें सोशल मीडिया के लाइक और डिस्लाइक पर ही बन जाएं।

श्वेतकमल जोशी | देहरादून, उत्तराखंड

 

मानसिक गुलामी

वैसे तो मैं मन से चाहती हूं कि बॉलीवुड में करण जौहर, कपूर खानदान जैसे लोगों की दादागीरी कम हो, ताकि नई प्रतिभाएं पनप सकें। लेकन 30 मई की आवरण कथा ‘वेस्ट इंडिया कंपनी’ पढ़ कर मन कहीं न कहीं डर गया। लेकिन इसी अंक में ‘जेफ शरणं गच्छामि’ पढ़ कर लगा कि विदेशी कंपनियां आएं और पैसा लगाएं, तो हो सकता है बॉलीवुड की दिशा और दशा सुधर जाए। हालांकि यह बहुत खतरनाक होगा कि भारतीय फिल्म उद्योग भी विदेशी लोगों के हाथों में चला जाए। क्योंकि इस बार ऐसी मानसिक गुलामी होगी, जिससे आसनी से छुटकारा पाने का कोई साधन या उपाय नहीं होगा। क्योंकि कोई इनके खिलाफ आवाज उठाएगा, तो देश के लोग ही उस आवाज को दबा देंगे। वेबसीरीज देखने का चस्का ऐसा लग गया है कि भारतीय फिल्म उद्योग पर कोई भी राज करे, लोगों को तो नया कंटेंट चाहिए, जो ये विदेशी कंपनियां ही उपलब्ध करा रही हैं। अमेजन और नेटफ्लिक्स के पास बजट की कोई कमी नहीं होगी और हर तरह की गुलामी में एक गुलामी यह भी जुड़ जाएगी।

नीता श्रीवास्तव | कानपुर, उत्तर प्रदेश

 

सोशल मीडिया का शिकंजा

30 मई के अंक में ‘सोशल मीडिया के शिकंजे में हमारे गांव’ अच्छी रिपोर्ट लगी। इस रिपोर्ट से पता लगा कि भारत इंटरनेट के मामले में चीन को पीछे छोड़ने वाला है, खासकर गांवों में इंटरनेट यूजर की तादाद बढ़ती जा रही है। गांवों में तकरीबन 40 फीसदी सिर्फ सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वाले यूजर्स हो चुके हैं। यह रिपोर्ट भारत जैसे देश के लिए चिंतनीय है क्योंकि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और गांव के लोग इंटरनेट के चंगुल में फंस कर हर दिन अपने जीवन के कई घंटे बर्बाद कर रहे हैं। इस तरह यदि गांव के लोग फिजूल समय बर्बाद करेंगे, तो वे लोग शहरी लोगों से और पिछड़ जाएंगे। इस विषय पर भी एक बार सोचना चाहिए।

अरुणेश कुमार | चंपारण, बिहार

 

पुलिस की दादागीरी

भारत गजब देश हो गया है। राज्य सरकारें किसी को भी ‘उठवा’ लेने का ऐसा खेल खेलने लगी हैं कि सोच कर ही रूह कांप जाती है। 30 मई के अंक में जिग्नेश मेवाणी की आपबीती पढ़ आंखें खुल गईं। क्या अब व्यक्ति बिलकुल ही बोलना बंद कर दे? सरकार इतनी तानाशाह हो गई है लेकिन किसी के मुंह से आवाज ही नहीं निकल रही है। पीड़ितों में भी ऐसी गुटबाजी है कि पता ही नहीं चलता कि कौन किस गुट में है। जिग्नेश के पक्ष में जितनी पुरजोर ढंग से आवाज उठनी चाहिए थी, उतनी नहीं उठी। सरकार विरोधी हर समूह के अपने एजेंडे हैं। संभवतः इन संगठनों ने सोचा हो कि जिग्नेश की बात उठा कर उन्हें क्यों कर नायक बनने का अवसर दिया जाए। यदि ऐसा है, तो यह बहुत घटिया सोच है। इससे सरकार की तानाशाही बढ़ती ही जाएगी और उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले कमजोर पड़ते जाएंगे।

शांतिलाल साहू | अंबिकापुर, छत्तीसगढ़

 

वोट का गणित

‘आदिवासी वोट पर नजर’ (16 मई) आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए एक महत्वपूर्ण लेख है। आजादी के बाद से ही आदिवासी वोट, कांग्रेस के वोट शेयर को बढ़ाने का काम कर रहा है। 2023 में होने वाले मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस अपने पुराने वोटरों को बचा पाएगी? यह देखना दिलचस्प होगा। आदिवासियों को अपने पाले में रखने के लिए भाजपा कई प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री ने भील जनजाति की तारीफ की, गृहमंत्री ने आदिवासियों के विशाल सम्मेलन में भाग लिया, यह दोनों कदम बताते हैं कि भाजपा ने अपनी तारीफ शुरू कर दी है। केंद्र सरकार बिरसा मुंडा जयंती को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा कर चुकी है। आने वाले समय में भाजपा का यह कदम मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी को फायदा पहुंचा सकता है। आदिवासी राज्य में सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इसलिए दोनों पार्टियों द्वारा उनको अपने पाले में लाने की कोशिश जारी है। केंद्र सरकार आदिवासियों के लिए कई योजनाओं की शुरुआत कर रही है, तो कांग्रेस अपना वोट बैंक बचाने की खातिर, उनसे सीधे संवाद का कार्यक्रम कर रही है। इस लेख को पढ़ने के बाद ये लग रहा है कि सरकार किसी की भी बने आदिवासी क्षेत्रों में विकास का जो पहिया इतने साल रुका था, वह तेजी से चलेगा। जनजातीय समाज को शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और उनके अधिकार अब मिलेंगे।

शशिधर जायसवाल | बठिंडा, पंजाब

 

गांव पर गर्व

‘बेलसंड लोकल’ (16 मई) लाजवाब है। पंकज त्रिपाठी के बारे में जानने को इतना कुछ है यह पता नहीं था। यह तो ओटीटी प्लेटफॉर्म का सहयोग है कि दर्शक ऐसे जहीन और वास्तविक कलाकारों को देख पा रहा है। लेकिन पंकज त्रिपाठी के बारे में जानना इसलिए भी अच्छा लगा कि वे उतने ही अच्छे इंसान भी हैं, जितने अच्छे कलाकार हैं। उनकी कही ये बात दिल को छू गई, “लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि मेरे तार अभी तक कैसे गांव से जुड़े हुए हैं, तो मैं कहता हूं कि मैं अपने गांव से कभी बेतार हुआ ही नहीं। जुड़ने का सवाल तो तब आता है, जब आप कहीं से कट जाते हैं। मैं तो अपने गांव से कभी कटा ही नहीं।” यह सच्चा कलाकार नहीं, सच्चा इंसान ही कह सकता है। एक उम्दा कलाकार की यही पहचान है कि वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। यदि कलाकार सच्चा नहीं है, तो वह अपनी पृष्ठभूमि छुपाने में लगा रहेगा। वह चाहेगा कि कोई न जान पाए कि वह शहरी वातावरण में नहीं बल्कि गांव में पला बढ़ा है। इस मामले में पंकज त्रिपाठी ने दिल जीत लिया।

शिवम तिवारी | डाला, उत्तर प्रदेश

 

सच्चे देसज

पंकज त्रिपाठी बहुत ही अच्छे कलाकार हैं। वह जो भूमिका निभाते हैं, उसी के हो कर रह जाते हैं। इस बार, ‘कालीन भैया की देसज कथा’ (16 मई) वाकई बहुत देसज लगी। आखिर उनसे ज्यादा देसज कौन होगा, जो मुंबई की मायानगरी में अपनी पहचान बनाने के बाद भी हल्दी का अचार बनाते हैं, उपले पर लिट्टी बना लेते हैं। देखा जाए, तो वे सच्चे अर्थों में ग्रामीण परिवेश के नायक हैं। उनकी कहानी पढ़ कर हिम्मत आती है कि आपकी पृष्ठभूमि कोई भी हो, यदि मेहनत की जाए, तो सफलता जरूर मिलती है। पंकज त्रिपाठी ने साबित किया कि साधारण होकर भी असाधारण सफलता हासिल की जा सकती है।

प्रीति चौरसिया | पटना, बिहार

 

इनका भी हो सम्मान

2 मई की आवरण कथा (कामयाबियों की महाभारत) बताती है कि हम कितने निष्ठुर हैं। लोग दान-पुण्य करते हैं, मंदिर जाते हैं लेकिन किसी ट्रांसजेंडर को देख कर मुंह मोड़ लेते हैं। आखिर उनका कसूर क्या है? लोग बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन उनके लिए करते कुछ भी नहीं हैं। शायद यह पहली ही बार है कि किसी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका ने ट्रांसजेंडर को आवरण कथा में जगह दी है। ऐसे ही यदि इन लोगों पर सामग्री प्रकाशित होती रही, तो इन्हें भी संबल मिलेगा और आत्मविश्वास आएगा। आम लोगों के बीच इन्हें लेकर जो डर बैठा है, उसे दूर करना होगा। इस काम में ट्रांसजेंडर समुदाय को भी अपनी ओर से कोशिश करनी होगी। आपसी संवाद के बाद शायद कुछ स्थितियां बदलें और संकुचित दिमाग खुल जाएं। उम्मीद है ऐसा दिन जल्द ही आएगा।

चिंतामण पाठक | हल्द्वानी, उत्तराखंड

 

हिम्मत देती कहानियां

2 मई का अंक ‘कामयाबियों की महाभारत’ में हर कहानी हिम्मत देती है। यह अंक नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरित करता है। इन्हें भी समाज से प्रेम और सम्मान चाहिए। जब तक समाज का हर तबका दिल से इनकी मदद के लिए आगे नहीं आएगा, तब तक  ये लोग सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे।

चांदनी शर्मा | उज्जैन, मध्य प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र

सुविधा की कीमत भारी

आउटलुक के हर अंक की अनोखी बात होती है। पिछले तीन अंक बहुत ही संग्रहणीय हैं। तकनीक के जाल में हम सभी हैं, लेकिन हम किस कदर गहराई में फंस चुके हैं यह ‘वेस्ट इंडिया कंपनी’ को पढ़ कर ही समझ आता है। अगर किसी से इस मुद्दे पर बात की जाए, तो हर व्यक्ति का यही कहना है कि यदि तकनीक का इस्तेमाल बंद कर दें, तो पिछड़ जाएंगे। यह बिलकुल सही है कि तकनीकी चीजों ने जीवन को आसान कर दिया है। नए ऐप्स रोजमर्रा के काम को आसान बना रहे हैं, अपनी बात कहने के लिए बहुत से मंच हैं। लेकिन इस सब की भारी कीमत है। ये लोग अभिव्यक्ति की आजादी दे नहीं रहे बल्कि छीन रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि हर व्यक्ति इससे अनजान है।

राजेन्द्र सिंह क्वीरा | नैनीताल, उत्तराखंड

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