क्या खाली होगा सिंहासन
‘अगली लड़ाई के मोर्चे खुले’ (आवरण कथा, 3 अक्टूबर) में आगामी चुनाव की तैयारियां के बारे में सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों की तैयारियों पर अच्छी चर्चा की गई है। गैर-भाजपा के संयुक्त दलों ने सत्तारूढ़ पार्टी को ध्वस्त करने का मन बना लिया है, नीतीश बाबू भी कमर कस कर तैयार हैं। लेकिन क्या यह वाकई इतना आसान है। जाति जनगणना, शोषितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के हक ऐसे कई विषय हैं, जिन पर विपक्ष सत्ता पक्ष को घेर सकता है। लेकिन पता नहीं क्यों विपक्ष चुप है। जिन्हें अभी लगता है कि सत्ता से किसी को हिलाना कठिन है, उन्हें इंदिरा गांधी का दौर याद करना चाहिए, जब बिहार राज्य के शक्तिशाली नेता जयप्रकाश नारायण ने, जनता से आह्वान किया था, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ और इसी वाक्य ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया था। अब ऐसा कोई नेता ही नहीं बचा, जो जुमलेबाजी और हर उद्यम के निजीकरण के खिलाफ जनता को एकजुट कर सके। अगर विपक्षी दल एकजुट होकर ठान लें, तो भाजपा को धराशाई होने से कोई नहीं रोक सकता। विपक्षी पार्टी के इतने नेता और उनके सामने बस दो खिलाड़ी- मोदी और शाह। दोनों बहुत सावधानी से हर बिसात बिछाते हैं। उनकी आज की स्थिति देख कर तो नहीं लगता कि विपक्षी दल उन्हें मात दे सकता है।
डॉ. जसवंतसिंह जनमेजय | नई दिल्ली
अनुशासित पार्टी
आउटलुक के नए अंक की आवरण कथा (‘अगली लड़ाई के मोर्चे खुले’, 3 अक्टूबर) अपने आप में बहुत कुछ कहती है। दरअसल बात सिर्फ इतनी सी नहीं है, जैसी मुख्य पृष्ठ (मोदी-शाह बनाम) पर दी गई है। यह लड़ाई खास तरह के संगठन के विरुद्ध है। अभी किसी भी पार्टी में वह संगठन दिखाई नहीं पड़ रहा है, जो भाजपा काडर में है। भले ही इसका कोई भी कारण हो। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि पार्टी में जिस व्यक्ति के लिए, जो काम तय कर दिया जाता है उसे वह करना ही पड़ता है, चाहे उसका मन हो या न हो। इतना ही नहीं, पार्टी उस व्यक्ति से बाद में पूछती भी है कि काम हुआ या नहीं। मोदी-शाह की जोड़ी का भाजपा में एकछत्र राज है। पहले नेता पांच साल में सिर्फ तभी दिखते थे, जब चुनाव आते थे। जनता भी सोच कर चलती थी कि ये सिर्फ चुनाव में ही दिखाई देंगे। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं और अब जनता नेताओं से हिसाब मांगने लगी है। मोदी-शाह कोई देवदूत या जादूगर नहीं हैं। इन दोनों ऐसी बिसात बिछाई है कि दोनों को मात देना मुश्किल जान पड़ता है। दोनों ने सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी आजमाने में कोई परहेज नहीं किया है। दोनों के इन्हीं तानेबाने की वजह से कोई मुकाबले में नहीं दिखता।
शैलेश चौरे | बड़वानी, मध्य प्रदेश
सत्ता परिवर्तन जरूरी
याद नहीं पड़ता कि पहले कभी आम चुनाव का इतना बेसब्र इतंजार होता था, जैसा अब है। अभी 2024 आने में वक्त है लेकिन चुनाव परिणाम के कयास, उस दौरान होने वाली राजनीति पर बातें अभी से होने लगी है। कौन किसके साथ जाएगा, यह अभी से कहना बहुत कठिन है। लेकिन इतना तो तय है कि मोदी-शाह को पटखनी देना इतना आसान भी न होगा। इसका एक ही कारण है कि दोनों ही हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं। लगता है जैसे, दोनों के अंदर कोई चुनाव का सॉफ्टवेयर है, जो हर दिन अपडेट होता रहता है। नीतीश कुमार अपने दम पर भाजपा को हराने का सपना पाले बैठे हैं। लेकिन उनके अकेले के मेहनत करने से क्या होगा। मोदी-शाह को हराना है, तो सामूहिक प्रयास करना होगा। अपने-अपने स्वार्थ पीछे रखने होंगे। यह इतना आसान नहीं है क्योंकि हर कोई प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले बैठा है। लेकिन विपक्षी दल की हर पार्टी को समझना चाहिए कि पहले सत्ता परिवर्तन जरूरी है। (आवरण कथा, 3 अक्टूबर) पद तो कभी न कभी मिल ही जाएगा। यह संकल्प अगर विपक्ष में आ गया तो किसी भी सत्ता को हिलाना मुश्किल नहीं है।
श्रीशांति नेवाड़े | धुलिया, महाराष्ट्र
देर से आया शतक
3 अक्टूबर के अंक में, विराट कोहली के शतक पर आधारित लेख में यह बताने की कोशिश की गई है की खिलाडियों का फॉर्म आता-जाता रहता है, उनकी तात्कालिक नाकामियों को नजर अंदाज करना चाहिए। बात बिल्कुल सही भी है। लेकिन जिस अफगानिस्तान के खिलाफ शतक आया, वह बहुत देर से आया। एशिया कप में भारत का प्रदर्शन काफी निराश करने वाला रहा, यह मानना ही होगा। अगर विराट और अन्य खिलाड़ी अपनी फॉर्म बरकरार रखते, तो एशिया कप भारत की झोली में आता। टीम संतुलन भी अच्छा नहीं था। लंबे इंतजार के बाद सिर्फ एक शतक से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। हर खिलाड़ी को हमेशा अच्छा खेलने पर ध्यान देने की जरूरत है।
जफर अहमद | मधेपुरा, बिहार
किसकी होगी बाजी
3 अक्टूबर के अंक में प्रथम दृष्टि में चुनाव और गठबंधन राजनीति पर बहुत अच्छी टिप्पणी की गई है। असल में भाजपा हमेशा चुनावी मोड में है। बात केवल मोदी और शाह की जोड़ी को टक्कर देने की नहीं है। यहां बात अपने-अपने निजी स्वार्थ पीछे रखने की भी है। इसमें सच लिख है कि राजनीति और क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है। लेकिन क्रिकेट में बल्लेबाज या गेंदबाज आखिरी वक्त तक बाजी अपने पक्ष में करने के लिए जी जान लगा देता है। जबकि राजनीति में ऐसा नहीं है। हमारे यहां नेता मान कर चलते हैं कि इस बार नहीं तो क्या अगली बार जीत लेंगे। क्योंकि जो लोग राजनीति में हैं, उनके हर काम आसानी से हो जाते हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों। यही वजह है कि विपक्ष मोदी के खुद ही हट जाने का इंतजार कर रहा है। विपक्ष के नेताओं में मोदी-शाह की जोड़ी को टक्कर देने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसे भले ही कितने भी उदाहरण हों, जिनमें धुर विरोधी दलों ने आपसी रंजिश दरकिनार कर 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया था। यह जीत विपक्षी एकता की जीत थी। लेकिन अब जो भी गठबंधन में आना चाहता है, वह प्रधानमंत्री के पद से कम कुछ नहीं चाहता। सभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते इसलिए लगता नहीं कि मोदी को कोई हरा सकेगा।
श्रीलेखा जोशी | जयपुर, राजस्थान
एकछत्र राज की लालसा
प्रथम दृष्टि हमेशा से ही बड़े सवाल उठाता आया है। इस बार भी (3 अक्टूबर) संपादकीय के बहाने विपक्षी दल की एकजुटता और मोदी-शाह की जोड़ी को चुनौती पर बात की गई है। यह तो किसी को नहीं मालूम कि कौन सा दल किसके साथ चला जाएगा, लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि आने वाले लोकसभा चुनाव में विपक्ष मोदी-शाह का मुकाबला कैसे करता है। क्योंकि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा कोई अपेक्षित परिणाम नहीं दिखा पा रही है। कई बार यह बात बोली गई है कि विपक्ष को अपनी तमाम व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठना होगा। सभी लोग राहुल को नहीं चाहते, ममता नीतीश को नहीं चाहतीं, नीतीश शरद पवार को नहीं चाहते, पवार अपने अलावा किसी को नहीं चाहते। जब एक मुद्दे पर असहमति ही बनी हुई है, तो फिर कैसे उम्मीद की जाए कि मोदी को सब मिल कर सत्ता से बेदखल कर देंगे। सबसे पहले तो इन्हीं सब को मिलकर आम सहमति बनानी होगी। विपक्ष तो इस आस में है कि कुछ साल बाद भाजपा के सामने भी नेतृत्व का संकट होगा, तो तब ही सोचा जाएगा कि क्या करना है। ऐसे हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो समस्या जस की तस बनी रहेगी। वह वक्त और था, जब जनसंघ और समाजवादी पार्टियां एक साथ आ गई थीं या वामपंथ के पुरोधा किसी कांग्रेसी सरकार को समर्थन दे रहे थे। अब नए समीकरण में सभी को एकछत्र राज करने की लालसा रहती है। किसी से कोई भी बड़ा पद बांटना अब संभव नहीं लगता। नीतीश कुमार भी दो बार लालू प्रसाद यादव के साथ टूटे रिश्ते को फिर इसलिए जोड़ पाए, क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री पद पर बने रहना था।
कुमार अजय | आसनसोल, पश्चिम बंगाल
हमेशा रहेगा बॉलीवुड
19 सितंबर के अंक में बेहाल बॉलीवुड पर अच्छी जानकारी है। कोरोना महामारी के बाद, जो उम्मीदें थीं, बॉलीवुड उसमें भी खरा नहीं उतर पाया है। नया साल भी बॉलीवुड के लिए अच्छे दिन लेकर नहीं आया। बॉक्स ऑफिस पर हिंदी फिल्मों का बुरा हाल है। एक के बाद एक फिल्में पिट रही हैं। क्या खान, क्या कुमार... किसी का भी बॉक्स ऑफिस पर डंका नहीं बज रहा है। वर्ड ऑफ माउथ में सकारात्मक टिप्पणी का भी कोई फायदा नहीं मिल रहा। ओटीटी ने मनोरंजन की भूख मिटाने के लिए बहुत से नए विकल्प दे दिए हैं। लेकिन बॉलीवुड का तोड़ यह भी नहीं बन पाएगा। मेख शहरनामा बहुत पसंद आया।
हरीशचंद्र पाण्डे | नैनीताल, उत्तराखंड
क्या जोड़ो यात्रा
19 सितंबर के अंक में, ‘जुड़ो या टूटो’ लेख अच्छा लगा। भ्ाजपा की ओर से सवाल उठ रहा है कि जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत अखंड है, फिर किस भारत को जोड़ा जा रहा है? लेकिन देश में जैसी वैमनस्यता आज फैली है, वैसी कभी नहीं थी। सवाल कांग्रेस से यह भी है कि किसके शासन काल में कश्मीर में तिरंगे की जगह पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते थे और अब श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराया जा रहा है, भले सरकारी उपक्रम में। असम को अशांत करने वाले तत्व अब कहां है? पंजाब को अशांत करने वाला भिंडरावाला किसके शासन की देन है? कांग्रेस को इन सवालों पर गौर करना चाहिए। भारत में आजादी के बाद कइयों ने देश भर में पदयात्रा की और उन्हें उसका लाभ भी मिला है। 3570 किमी लंबी यह यात्रा पांच महीनों में बारह राज्यों से होकर गुजरेगी। क्या कांग्रेस इस पदयात्रा के जरिए अपने खोए हुए जनाधार के साथ-साथ राहुल गांधी को मजबूत नेता के तौर पर 2024 के लोकसभा चुनाव से स्थापित कर पाएगी? क्या राहुल गांधी इस यात्रा को पूरा करने के साथ ही पार्टी के नेताओं को एकसाथ जोड़ पाने में कामयाब हो पाएंगे? यह तो बाद में पता चलेगा। यात्रा के दौरान राज्यों में कई जगहों पर चौपाल और आम सभाएं भी आयोजित की जाएंगी। सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस ने इस यात्रा के बहाने 2024 का रास्ता तय करना शुरू कर दिया है। देखें आगे क्या होता है।
युगल किशोर राही | छपरा, बिहार
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पुरस्कृत पत्र : यही जीवन है
गुजरे जमाने की बात करना किसे पसंद नहीं होता। उम्र बढ़ने पर हर वो बात या उसकी याद अच्छी लगने लगती है, जिसका संबंध बचपन से होता है। 3 अक्टूबर अंक में ‘नॉस्टेल्जिया ड्रिंक’ का सुरूर पढ़ कर मन आनंद से भर गया। उस दौर में आज की तरह बचपन नहीं था कि हर चीज हर वक्त हाजिर रहे। ऐसे ड्रिंक किसी बड़ी शादी में ही नसीब होते थे। इस लेख को पढ़ते हुए मन उन सभी समारोह में पहुंच गया, जहां कैंपा कोला पिया था। हालांकि लेख में व्यापार और नफे-नुकसान का लेखा-जोखा भी है। लेकिन हमारी आंखों में तो सिर्फ वही कतरे तैरे, जिनका संबंध उस बोतल, बोतल पर लगे ढक्कनों से था। इन बोतलों पर धातु का ढक्कन होता, जिसे खोलना भी कलाकारी थी। क्या दिन थे वे। उन दिनों की याद के लिए साधुवाद
बेला आर्या | नागपुर, महाराष्ट्र