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9 जनवरी 2023 · JAN 09 , 2023

संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

बराबरी का हक

26 दिसंबर अंक में निर्भया पर केंद्रित आवरण कथा पढ़ी। नारी के प्रति क्रूरतम कृत्य की करुण कथा आंखें नम कर गई। यह भी दुखद है कि अपराधी सात साल बाद दंडित किए गए। जबकि न्याय तुरंत होना चाहिए था। आज अविलंब न्यायिक निर्णय और कठोर दंड-व्यवस्था की आवश्यकता है, ताकि महिलाएं उत्पीड़न और व्याभिचार के डर से मुक्त हो कर निर्भीक जीवन जी सकें। न्याय प्रक्रिया में कहीं भी ऐसी खामी न हो, जिससे अपराधियों में कानून का डर न हो। अनामिका के दोषी भी इन्हीं खामियों की वजह से बच गए। बलत्कृत से शादी का निर्णय और भी खराब है। यह उस महिला के प्रति अन्याय है। यह अपराधी को पुरस्कृत करने जैसा है। इससे समाज की वह मानसिकता भी नहीं बदलेगी, जिसमें वह स्त्री को इंसान नहीं समझता। ऐसे निर्णयों से महिलाओं के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। बल्कि निर्णय ऐसे होने चाहिए, जो उसे शक्ति दें। प्रेरणा दें। स्त्री को सबला बनाना होगा, ताकि वे पुरुषों की बराबरी से अपना हक मांग सकें।

राजू मेहता | जोधपुर, राजस्थान

 

मीडिया का साथ

आउटलुक की 26 दिसंबर की आवरण कथा, ‘निर्भय निर्लज्जता की हदें’ पढ़ कर मन विचलित हो गया। छावला कांड के बारे में विस्तार से पता ही नहीं था। यह विडंबना ही है कि दो लड़कियां एक जैसी गति को प्राप्त होती हैं और एक के लिए कोई पूछने वाला भी नहीं। इसे पढ़ कर ही नेगी दंपती की पीड़ा समझी जा सकती है। लेकिन इसमें मीडिया भी दोषी है क्योंकि उसने इस मुद्दे को उस तरह जिंदा नहीं रखा, जिस तरह निर्भया को। पहले दिन से ही इस मामले को बहुत सुर्खियां मिलीं और यह पूरे देश में छा गया। सुर्खियां शब्द से यह मतलब नहीं है कि उन्हें नाम मिला। लेकिन यह तो सभी मानेंगे कि यदि कोई मामला मीडिया में छा जाता है, तो न्याय मिलने की उम्मीद में कम से कम 20 फीसदी का इजाफा हो जाता है। मीडिया मामले को ठंडा नहीं पड़ने देता और न्याय व्यवस्था, प्रशासन, सरकार, पुलिस हर किसी पर इसका दबाव पड़ता है। नतीजतन जांच में गड़बड़ी नहीं होती, किसी तरह की भी बेइमानी, समझौते या डराने-धमकाने की गुंजाइश कम हो जाती है। यदि छावला कांड में मीडिया ने ऐसी ही तत्परता दिखाई होती, तो आज फैसला का रुख कुछ और होता। आशा देवी भी तभी पूरी ताकत से तभी लड़ पाईं जब उनके साथ बहुत से लोग खड़े हो गए। याद कीजिए नीतीश कटारा वाला मामला। उनकी मां ने भी अपने बेटे के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। तब उनके साथ भी मीडिया पूरी मुस्तैदी से खड़ा था।

तनु मेहरा | दिल्ली

 

बेशर्मी की हद

अब इस पर क्या ही कहा जाए। दस साल बाद भी लगता है जैसे यह कल ही की बात है। कल ही तो दिल्ली उबल पड़ी थी, कल ही तो अपराधियों को फांसी देने के लिए सब एकजुट थे। कल ही की तो बात है, जब कहा गया कि दिल्ली को अपराध मुक्त बनाएंगे, महिला सुरक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। हर जगह सीसीटीवी कैमरे होंगे, पुलिस मुस्तैद होगी। वाकई ऐसा ही सब हो रहा है। अब कहीं कोई निर्भया या अपराजिता नहीं हैं। लड़कियां जब चाहे तब, जहां चाहे वहां अपनी मर्जी से घूम सकती हैं। कहीं भी बाहर आ जा सकती हैं। सब कुछ ठीक है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं। लड़कियां अब बिलकुल सुरक्षित हैं। क्योंकि निर्भया के जाने के दस साल बाद अब लड़कियों का वजूद ही न रहे इसके लिए बस उसके कुछ यूं ही 32 या 40 टुकड़े कर दिए जाते हैं। लड़कियों घूमो कि अब तुम सुरक्षित हो! (आवरण कथा, ‘निर्भय निर्लज्जता की हदें’, 26 दिसंबर)

सुहासिनी खान | पटना, बिहार

 

निस्वार्थ सेवा

यह सोचने में ही कितना क्रूर लगता है कि न्याय की आस लिए किसी मां को अपनी बेटी के खिलाफ अत्याचार करने वालों को सजा दिलाने के लिए सालों साल लड़ना पढ़ा। 26 दिसंबर की आवरण कथा में निर्भया की मां आशा सिंह का इंटरव्यू पढ़ कर दस साल पीछे पहुंच गई। उन्होंने कहा कि “वक्त 2012 में ही जैसे ठहर गया है, बल्कि बदतर होता जा रहा है।” यह देश की बदनसीबी है कि कानून को जो जल्द से जल्द खुद करना चाहिए था उसके लिए भी आशा सिंह ने दर-दर की ठोकरें खाईं और बेटी को न्याय दिलाने के लिए दिन रात एक कर दिया। आज भी उनके लिए वक्त जैसे वहीं ठहर गया है। वे तो अपनी बेटी खो ही चुकी हैं। लेकिन यह उनकी हिम्मत ही है कि वे ऐसी और लड़कियों के माता पिता की उम्मीद बन चुकी हैं। देखा जाए, तो ऐसे निस्वार्थ भाव से दूसरों के लिए कुछ सोचने वाले दुनिया में कम हैं। वे चाहतीं तो निर्भया के दोषियों को फांसी के बाद अपनी दुनिया में लौट सकती थीं। लेकिन उन्होंने मैदान में ही रह कर दूसरे ऐसे लोगों को सजा दिलवाने को चुना है। आशा सिंह जैसी और महिलाएं यदि सामने आएं, तो अपराधियों के हौसले कुछ तो पस्त होंगे।

कालिंदी बजाज | दिल्ली

 

घिसे-पिटे बयान

अपराधियों के हौसले बुलंद ही इसलिए हैं कि पुलिस अपनी गलती प्रशासन पर थोप देती है और प्रशासन पुलिस की आड़ में आ जाता है। यह तो वाकई शर्म की बात है कि छावला के मुजरिम छोड़ दिए गए। 26 दिसंबर के अंक में, “दिल्ली पुलिस को अपनी जांच पर शर्म आनी चाहिए कि दस साल बाद छावला कांड के मुजरिम छोड़ दिए गए” चिंतनीय है। इस तरह का न्याय कानून को वाकई अंधा ही साबित करते हैं। दूसरे मामलों के बारे में तो पता नहीं लेकिन इतना तय है कि भारत में न्याय व्यवस्था महिलाओं के मामले में बहुत खराब है। हर दिन ऐसी घटनाएं होती हैं और वही रटे-रटाए या घिसे-पिटे बयान आ जाते हैं। बिलकिस बानो के मामले में भी न राज्य सरकार को लाज आई न केंद्र को। सरकार ने 11 बलात्कारियों को आजादी की वर्षगांठ पर छोड़ दिया गया। इनके अलावा पैरोल तो अपराधियों के लिए इतनी आसान है कि जब चाहे बाहर निकल आओ। कुछ अपराधी पैरोल पर बाहर आकर भी वही काम करते हैं, जिसके लिए उन पर केस हुआ था। हमारे यहां ऐसे मामलों की कमी नहीं है। वोट के लिए हरियाणा में बाबा गुरमीत राम रहीम के साथ कैसा वीआईपी बर्ताव हुआ यह किसी के छुपा हुआ नहीं है। ऐन मतदान के वक्त राम रहीम को पैरोल से बाहर आने की छूट मिली थी। ऐसे में यदि छावला कांड के अपराधी जांच या सबूत के अभाव में बाहर आ जाते हैं या निर्दोष साबित हो जाते हैं, तो क्या आश्चर्य। हम सिर्फ “न्यायिक तंत्र का मजाक” कह कर चुप हो जाएंगे। कौन यह सवाल पूछेगा कि न्याय कहां है? क्योंकि सवाल पूछने वाला हर व्यक्ति डरा हुआ है। आज के दौर में महिला सुरक्षा केवल घोषणा पत्र में लिखने के लिए है। अमल कोई सरकार नहीं करती। दिल्ली को रेप कैपिटल कहा जाने लगा है। फिर भी न कानून के रखवालों को फिक्र है न नेताओं के कान पर जूं रेंग रही है।

कीर्ति भट्ट | बड़ौदा, गुजरात

 

कौन समझेगा दर्द

यह सिर्फ निर्भया या निर्भया जैसे अन्य मसलों की बात नहीं है। यह बात मानसिकता की है। हर बलात्कार किसी न किसी तरह की खराब मानसिकता से जुड़ा हुआ है। ऐसा अपराध करने वाले कुछ हैं, जो लड़कियों को सबक सिखाना चाहते हैं। कुछ इसलिए ऐसा अपराध करते हैं ताकि परिवार वालों का बदला लेकर उन्हें सबक सिखाया जा सके। किसी को लड़कियों से बिना वजह दुश्मनी होती है जैसे, वे स्वतंत्र जीवन क्यों जी रही हैं, वे अपने फैसले खुद क्यों लेती हैं।

चंदन श्रीवास्तव | दिल्ली

 

दिल्ली का ताज

26 दिसंबर के अंक में, ‘डेढ़ दशक बाद भाजपा की गद्दी डोली’ पढ़ा। इन चुनावों में सबसे अलग एक रिकार्ड टूटा है, वह है ईवीएम मशीन का ईमानदारी पूर्वक संचालित होना। इस बार किसी भी विपक्षी दल ने अपनी हार का ठीकरा ईवीएम मशीन पर नहीं फोड़ा। यह तब हुआ जब मुख्य विपक्षी दलों को उनके पसंदीदा क्षेत्रों में सरकार बनाने का मौका मिला। पहली बार विधानसभा चुनावों में तीन मुख्य दलों को एक-एक क्षेत्र से संतोष करना पड़ा। गुजरात में पहली बार चुनाव में कूदी आम आदमी पार्टी को आखिरकार पांच सीटें मिल ही गईं। इसी अंक में, ‘नेदाव लैपिड की कश्मीर फाइल्स’ पढ़ा। इस फिल्म पर विवाद गैरजरूरी है। फिल्म की लोकप्रियता इसी से झलकती है कि 20-25 करोड़ रुपये की बजट वाली इस फिल्म ने 340 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार किया। फिल्म बनाने से पहले निर्देशक ने महीनों पीड़ितों का इंटरव्यू लिया। वास्तविकता के दर्द को समेटा, परखा, सरकारी दस्तावेजों को खंगाला तथा घटनाओं के स्थलों का सत्यापन भी किया। तब जाकर यह फिल्म बनी। इस पर भले ही इजरायली राजदूत ने माफी मांगी हो लेकिन लैपिड ने आईएफएफआई में जूरी पैनल का दुरुपयोग किया है। उनके जैसे प्रतिष्ठित फिल्मकार को आलोचना से पहले पृष्ठभूमि को जानना था। हालांकि विवादों से उनका गहरा नाता है।

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

 

कांग्रेस पर भरोसा

'राज्य अलग, आदेश अलग’, (26 दिसंबर) पढ़ कर इतना तो समझ आ गया कि भाजपा अजेय पार्टी नहीं है। यदि ऐसा होता, तो उसके हाथ से दिल्ली और हिमाचल नहीं निकलता। हिमाचल ने तो अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस पर भरोसा करने वाले लोग अभी भी मौजूद हैं। जनसमूह एक बार फिर कांग्रेस राज देखने के लिए लालायित है। भाजपा का कांग्रेस मुक्त सपना इतनी जल्दी साकार होने वाला नहीं है। क्योंकि कई लोग हैं, जो कांग्रेसमय भारत का सपना टूटने नहीं देंगे। यहां एक बात यह भी महसूस हुई कि गुजरात में सरकार बना चुकी भाजपा का असली चरित्र भी बदल रहा है। या फिर वो अपना मुखौटा बदल रही है।

डॉ. पूनम पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

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पुरस्कृत पत्र : सिहरन के दस साल

ताजा अंक (आवरण कथा, ‘निर्भय निर्लज्जता की हदें’, 26 दिसंबर) पढ़ कर बीता सारा मंजर आंखों के आगे तैर गया। खौफ जैसे फिर सामने आ गया। महिलाओं के लिए हालांकि कोई भी जगह सुरक्षित नहीं है लेकिन दिल्ली उस घटना के बाद और डरावनी हो गई है। सच है कि उस घटना के बाद भी कहीं कुछ नहीं बदला है। बस लड़कियों के नाम बदल गए हैं। बाकी सब कुछ वही है। वही अमानवीयता, वही क्रूरता, वही न्याय की आस लिए माता-पिता की पथराई आंखें। बातें जितनी भी बड़ी कर ली जाएं लेकिन सच तो यही है कि तंत्र में बैठे लोगों के लिए पीड़िता बस मुद्दा है और पुलिस के लिए केस। यह मानसिकता बदले तो ही कुछ उम्मीद की जा सकती है।

सोनाली ठाकुर | गोपालगंज, बिहार

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